विशेष बात जो कोर्ट ने कही वो ये है कि इन कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के पीछे कोई राजनीतिक असहमति या वैचारिक मतभेद का आधार नहीं है बल्कि सबूतों के आधार पर इनकी गिरफ्तारी हुई है। कोर्ट की यह टिप्पणी इस गिरफ्तारी को असहमति के स्वरों को दबाने की कोशिश बताने वालों के मुंह पर जोरदार तमाचे की तरह है।
भीमा कोरेगांव हिंसा, प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश और शहरी नक्सलवाद के मामले में शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की अहम सुनवाई हुई। इसमें शीर्ष कोर्ट ने नक्सली संबंध के आरोपी वामपंथी कार्यकर्ताओं को खासा झटका देते हुए इनकी नजरबंदी की मियाद भी बढ़ा दी और एसआईटी जांच की मांग भी सिरे से खारिज कर दी। कोर्ट के निर्णय के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि वे कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि आरोपियों की नजरबंदी बढ़ाई जाना स्वागत योग्य है।
इनपर आरोप है कि ये वामपंथी विचारक एवं कार्यकर्ता वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरनान गोन्जाल्विज और अरुण फरेरा देश में सिविल वार की नौबत लाने की फिराक में थे। विशेष बात जो कोर्ट ने कही वो ये है कि इन कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के पीछे कोई राजनीतिक असहमति या वैचारिक मतभेद का आधार नहीं है बल्कि सबूतों के आधार पर इनकी गिरफ्तारी हुई है। कोर्ट की यह टिप्पणी इस गिरफ्तारी को असहमति के स्वरों को दबाने की कोशिश बताने वालों के मुंह पर जोरदार तमाचे की तरह है।
देखा जाए तो नक्सलवाद की जड़ें अब सुदूर क्षेत्रों तक सीमित ना रहते हुए शहरों में भी पैर जमा रही हैं। और फिर देश में गृहयुद्ध छेड़ने को जो एकदम तैयार बैठे हों, जो हिंसा का नंगा नाच कराने को तत्पर हों, उन्हें आरोपी क्यों नहीं माना जा सकता। उक्त पांचों आरोपित “शहरी नक्सली” आखिर अब तक क्या करते आए थे।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा एवं जस्टिस खानविलकर ने यह बिंदु स्पष्ट करके बहुत अच्छा किया कि इनकी गिरफ्तारी के पीछे राजनीतिक कारण नहीं है। अब इनके बचाव में उतरने वाले धुरंधर जिस तत्परता से इनकी गिरफ्तारी के खिलाफ याचिका लगाने कोर्ट की शरण गए, क्या उसी तेजी के साथ वे इस तथ्य को स्वीकारने का साहस रखते हैं कि उक्त आरोपियों का माओवादी भाकपा से कनेक्शन है जो कि एक प्रतिबंधित संगठन है। पुणे पुलिस इन आरोपियों के खिलाफ पुख्ता सबूत होने का दावा करती रही है और अब अदालत द्वारा इनकी नजरबंदी बढ़ाए जाने से पुणे पुलिस के सबूतों में दम होने की बात साबित होती है।
अदालत ने ठीक ही कहा कि आरोपियों को उनकी जांच एजेंसी को चुनने का कोई अधिकार नहीं है। उनका क्या करना है, यह अदालत स्वयं तय करेगी। हालांकि पांचों आरोपी अब चाहें तो ट्रायल कोर्ट जा सकते हैं लेकिन इस मामले की कोई एसआईटी जांच नहीं होगी।
यहां इस तथ्य का उल्लेख करना जरूरी होगा कि ये कार्यकर्ता लंबे समय से संदिग्ध गतिविधियों में शामिल रहे हैं। इनमें से कईयों का तो आपराधिक इतिहास भी रहा है। निश्चित ही यह वामपंथ के मानसिक दिवालियेपन का एक और प्रमाण है कि आरोपियों के खिलाफ की गई कार्यवाही को मनगढ़ंत तक बताया गया। वामपंथियों को लगता है कि यदि वे गैर कानूनी काम भी करें तो यह क्रांति है और जब उनकी तथाकथित क्रांति पर कानून अपना काम करे तो वह मनगढ़ंत हो गया।
दरअसल वामपंथी असहमति को पचा नहीं पाते और खुद को सही मानने की अलोकतांत्रिक ग्रंथि से इस कदर ग्रस्त हैं कि अदालत पर भी छींटाकशी करने से बाज नहीं आते। देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश की बात उन्हें झूठ लगती है और जब न्यायालय भी इस बात को मान ले, तो उसे भी सरकार से मिला हुआ है।
यदि इन वामपंथी कार्यकर्ताओं पर लगे आरोप सच हैं तो कहना होगा कि नक्सलियों को संरक्षण देने वाले, प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने वाले अब कानून की गिरफ्त में हैं जिससे समूचा वामपंथ बुरी तरह तिलमिला गया है। वामपंथ का असली चेहरा एकबार फिर बेनकाब हो चुका है। इन पर अब बाकायदा ट्रायल चलेगी। उम्मीद है कि कानून अपना काम करेगा और ससमय दोषियों को उचित दंड मिलेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)