इस चुनाव ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि अब वे दिन लद गए जब कुछ परिवारवादी पार्टियाँ दलितों को सदा-सदा के लिए अपना वोटबैंक समझती थीं। विगत 3-4 दशकों का सामान्य अनुभव जनता के बीच में है कि दलितों-वंचितों को वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करनेवाली पार्टियों ने स्वयं का साम्राज्य खड़ा किया, दलितों ग़रीबों का कोई भला नहीं किया और उन्हें अपनी ज़ागीर समझा। इस चुनाव में भी दलितों के मसीहा बनानेवालों की जमानतें देशभक्त दलित जनता ने ही ज़ब्त करवाई है…आँकड़े इसकी गवाही देते हैं। चंद्रशेखर रावण का उस सीट से जमानत ज़ब्त हो जाना जहाँ दलित मतदाताओं की संख्या लाखों में है, इसका एक ताज़ा उदाहरण है।
यूपी चुनाव को राजनीतिक विश्लेषक अलग-अलग तरह से परिभाषित करेंगे; परंतु सामान्य बुद्धिलब्धि (कॉमन-सेंस) से भी इतना तो समझा जा सकता है कि विगत एक दशक में राजनीति बदल गई है; राजनीतिक टूल्स बदल गए हैं।
कोई पार्टी तब तक किसी प्रदेश अथवा देश में ही अल्पसंख्यक तुष्टीकरण करते हुए जीत सकती थी, जब तक बहुसंख्यक जनता बरदाश्त कर सकती थी। यह तुष्टीकरण अपने चरम पर पहुँच गया, तो बहुसंख्यक जनता एक ऐसी सशक्त पार्टी की राह तकने लगी, जो उसकी बात करे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने यही किया। अभी उत्तरप्रदेश का प्रचंड जनादेश भी बहुसंख्यक अस्मिताबोध की ही अभिव्यक्ति है।
दूसरी बड़ी बात यह है कि जब धर्म की बात होती है, तब जातीय समीकरण ढीले पड़ जाते हैं। मुसलमानों में यह धारणा सदा से रही है, अब हिंदुओं में भी धीरे-धीरे यह बात आ रही है। इसका मतलब है आगे सालों-साल तक बहुसंख्यक जनता की अनदेखी करने वाली पार्टी हाशिये पर रहेगी।
इस चुनाव ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि अब वे दिन लद गए जब कुछ परिवारवादी पार्टियाँ दलितों को सदा-सदा के लिए अपना वोटबैंक समझती थीं। विगत 3-4 दशकों का सामान्य अनुभव जनता के बीच में है कि दलितों-वंचितों को वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करनेवाली पार्टियों ने स्वयं का साम्राज्य खड़ा किया, दलितों ग़रीबों का कोई भला नहीं किया और उन्हें अपनी ज़ागीर समझा।
इस चुनाव में भी दलितों के मसीहा बनानेवालों की जमानतें देशभक्त दलित जनता ने ही ज़ब्त करवाई है…आँकड़े इसकी गवाही देते हैं। चंद्रशेखर रावण का उस सीट से जमानत ज़ब्त हो जाना जहाँ दलित मतदाताओं की संख्या लाखों में है, इसका एक ताज़ा उदाहरण है।
कभी राज्य की सबसे सशक्त पार्टी बसपा देखते ही देखते कहाँ से कहाँ आ गई ? मायावती के जीते जी बसपा उत्तर प्रदेश विधानसभा में दो सीटों पर सिमट जाएगी, इसकी कल्पना उनके धुर विरोधियों ने भी नहीं की होगी। पार्टी का अपना कैडर था, अकूत संसाधन थे, तो चूक कहाँ हुई ? चूक दरअसल राजनीतिक टूल्स के उपयोग में हुई। मायावती के किसी भी भाषण को उठाकर देख लीजिए, केवल और केवल दुहराव मिलेगा। उन्होंने यह मान लिया था कि चाहे वे कुछ करें अथवा न करें, दलित उनको वोट करेंगे।
इसी तरह कांग्रेस एकदम पुराने टूल्स के साथ राजनीति कर रही है। राजनीति अगर ट्विटर से संभव होती तो कितनी सरल होती! ज़मीनी मुद्दे छोड़कर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, फोटो अपोर्चुनिटी आदि के सहारे चुनाव की वैतरणी पार करने के दिन अब लद गए।
कुल मिलाकर सपा ही उत्तर प्रदेश में ज़मीन पर भाजपा का मुक़ाबला करती दिखी लेकिन अतीत के गुंडाराज का बोझ एवं अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का कलंक तथा अखिलेश यादव का अहंकार वो कारण हैं कि सपा को मुख्य विपक्षी दल बनकर रहने का जनादेश प्राप्त हुआ।
उत्तर प्रदेश की ही भाँति उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भाजपा ने जनता की आकांक्षाओं को समझा और जनता ने उसे निराश नहीं किया है। बात एकदम साफ है। यह राष्ट्रवादी तेवर वाला नया भारत है। यहाँ जनसरोकार और राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर जनता-जनार्दन की मुहर लगेगी, लगती रहेगी।
फोटो साभार : Livemint
(लेखक आईटीबीपी में डिप्टी कमान्डेंट के रूप में सेवारत हैं। स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)