संसद में तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार मंत्री के हाथ उनका बयान छीनकर फाड़ देने की हरकत से विश्व में भारतीय लोकतंत्र के प्रति क्या संदेश गया होगा, यह सोचकर भी शर्म आती है। परन्तु, शांतनु सेन को ऐसा करते हुए बिलकुल भी शर्म नहीं आई। यह उचित ही है कि उन्हें इस पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया है, लेकिन इससे विपक्षी विरोध की गतिविधियों में कोई परिवर्तन नहीं आया। ऐसा लगता है जैसे विपक्षी दल यह तय करके बैठे हैं कि चाहें कुछ भी हो जाए सदन में कामकाज नहीं होने देना है।
मॉनसून सत्र की शुरुआत से एक दिन पूर्व पूर्व गत 18 जुलाई को केंद्र सरकार द्वारा एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई थी, जिसमें 33 दलों ने हिस्सा लिया था। इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह स्पष्ट किया था कि सरकार सदन में हर मुद्दे पर स्वस्थ चर्चा के लिए तैयार है और सदन को सुचारू ढंग से चलाने के लिए उन्हें सभी दलों का सहयोग चाहिए।
इस बैठक के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि मार्च में संसद का बजट सत्र निर्धारित समय से तेरह दिन पूर्व ही समाप्त हो जाने के चलते जो कार्य लंबित रह गए थे, उन सबकी भरपाई भी इस मॉनसून सत्र में हो जाएगी। लेकिन यह सत्र शुरू होने के बाद से जो नजारा दिखाई दे रहा है, वो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है।
मॉनसून सत्र को एक सप्ताह से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन इस दौरान शायद ही कोई दिन ऐसा बीता हो जब विपक्षी सांसदों के हंगामे के कारण सदन की कार्यवाही स्थगित न करनी पड़ी हो। इस सत्र के पहले दिन भारतीय संसद की परंपरा के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने विस्तारित मंत्रिमंडल के नए सदस्यों से सदन का परिचय करवाना था, लेकिन विपक्षी सांसदों ने संसदीय परंपरा की भी परवाह न करते हुए ऐसा हंगामा किया कि सरकार के नए मंत्रियों का परिचय नहीं हो पाया और बिना इसके ही सदन की कार्यवाही आगे बढ़ानी पड़ी।
हद तो तब हो गयी जब तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन ने राज्यसभा में पेगासस प्रकरण पर बयान दे रहे सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव के हाथ से उनके बयान की प्रति छीनकर फाड़ दी और उसके टुकड़े उपसभापति की ओर उछाल दिए।
संसद में शांतनु सेन की इस हरकत से विश्व में भारतीय लोकतंत्र के प्रति क्या संदेश गया होगा, यह सोचकर भी शर्म आती है। परन्तु, शांतनु सेन को ऐसा करते हुए बिलकुल भी शर्म नहीं आई। यह उचित ही है कि उन्हें इस पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया है, लेकिन इससे विपक्षी विरोध की गतिविधियों में कोई परिवर्तन नहीं आया। ऐसा लगता है जैसे विपक्षी दल यह तय करके बैठे हैं कि चाहें कुछ भी हो जाए सदन में कामकाज नहीं होने देना है।
सरकार द्वारा इस संसदीय सत्र में 31 विधेयक पेश किए जाने थे और उम्मीद की जा रही थी कि तकरीबन दो दर्जन विधेयक पारित भी हो जाएंगे, लेकिन हंगामे के कारण जिस तरह सदन का समय नष्ट हो रहा उसे देखते हुए लगता नहीं कि ये विधेयक पारित हो पाएंगे। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती। लोकतंत्र में संसद संवाद और विमर्श का सबसे बेहतर माध्यम मानी गयी है।
उम्मीद की जाती है कि यहाँ हमारे जनप्रतिनिधि परस्पर चर्चा और विमर्श करके देश की जनता के हित में जरूरी कानून बनाएंगे। विपक्ष से यह अपेक्षा होती है कि वो चर्चा के दौरान रचनात्मक रुख रखते हुए न केवल जनहित से जुड़े जरूरी मुद्दों पर सरकार से उचित सवाल पूछेगा बल्कि आवश्यक सुझाव भी देगा। लेकिन यहाँ तो विपक्ष संसद चलने देने को ही तैयार नहीं है।
विपक्षी दलों को शायद ऐसा लगता है कि सदन चलने पर सरकार बहुमत के बल पर अपने मनमुताबिक विधेयक पारित करवाके जनता में अपनी छवि चमका लेगी, अतः वे व्यर्थ हंगामे के जरिये सदन की कार्यवाही में गतिरोध पैदा करके सरकार को विधेयक पारित करवाने से रोकने की रणनीति अपना रहे हैं। वे पहले के संसद सत्रों में भी ऐसा करते रहे हैं।
उन्हें लगता है कि ऐसा करने से सरकार काम नहीं कर पाएगी और उसकी छवि कमजोर होगी। लेकिन यह विपक्ष का भ्रम मात्र है, क्योंकि सदन की कार्यवाही का सीधा प्रसारण टीवी पर होता है, तो जनता स्वयं सबकुछ देख ही रही है और विपक्ष की यह कारिस्तानी उससे छुपी हुई नहीं है। ऐसे में, संसद में गतिरोध की यह राजनीति विपक्ष कोई कोई लाभ नहीं देगी बल्कि इससे हानि होने की संभावना ही अधिक है।
बहरहाल, हंगामे की भेंट चढ़ती संसद को देखकर यह सवाल भी उठ सकता है कि सांसदों के हंगामे के आगे लगभग लाचार नजर आ रही संसदीय शासन प्रणाली क्या देश की आकांक्षाओं को पूर्ण करने में समर्थ है ? वास्तव में, संसदीय शासन प्रणाली देश के लिए उपयुक्त है, परन्तु तमाम अच्छे लोगों के बीच कुछ गलत लोग भी इसमें घुस आते हैं, जिन्हें ठीक करने के लिए समुचित व्यवस्था बनाने की आवश्यकता है।
सांसदों का निलंबन पर्याप्त नहीं है, अपितु वर्तमान समय को देखते हुए संसद की मर्यादा का हनन करने, कामकाज बाधित करने व संसदीय विशेषाधिकार का दुरूपयोग करने की स्थिति में सांसद के वेतन-भत्ते को रोकने से लेकर उसका निर्वाचन रद्द करने तक की व्यवस्था होनी चाहिए। यह व्यवस्था कठोर अवश्य है, परन्तु इसके लागू होने के बाद निश्चित रूप से आज संसद में विपक्ष की जो अराजकता नजर आ रही है, इसमें भारी कमी देखने को मिलेगी तथा देश के संसदीय कामकाज में भी गुणात्मक वृद्धि होगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)