आज के वक़्त में कांग्रेस आदि विपक्षी दलों सहित कुछ वरिष्ठ वकील जिस तरह से न्यायपालिका के ऊपर खुलकर भेदभाव, पक्षपात या भ्रष्टाचार करने का आरोप लगा रहे हैं, इसके पीछे कोई तथ्य या तर्क नहीं नहीं है। अगर कोई फैसला सत्ता पक्ष के हक़ में आ गया तो इसका मतलब निकालना कि फलां जज बिक गया, लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर अविश्वास का ही सूचक है। विपक्षी खेमों सहित कुछ विचारधारा विशेष के लोगों में इस तरह की बीमारी लगातार बढ़ रही है।
आज से तीन वर्ष पहले हुई जज लोया की मौत को सुप्रीम कोर्ट ने ‘सामान्य’ करार दिया, साथ ही उनलोगों को लताड़ लगाई जो इसे सनसनीखेज बनाने की कोशिश कर रहे थे। सम्बंधित याचिकाओं के साजिशन या राजनीति से प्रेरित होने की बात भी कोर्ट ने कही है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अब इस मामले पर आगे कोई सुनवाई नहीं होगी।
आखिर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा, इस पर भी सरसरी तौर पर नज़र डाल लेना ज़रूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जज लोया के मामले में जो तथ्य सामने लाए गए हैं, उनमे कोई दम नज़र नहीं आता। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि ऐसे प्रयासों से न्यायपालिका की विश्वसनीयता को आघात लगता है। दूसरा, याचिकाकर्ताओं के वकील द्वारा पेश किया गया पक्ष, न्यायपालिका पर किसी हमले से कम नहीं। तीसरी बात, अगर लोकतंत्र में दो पार्टियों के बीच प्रतिद्वंदिता है, तो उसे चुनावी मैदान में निबटाया जाना ज़रूरी है, उसके लिए न्यायालय का मखौल बनाना ठीक नहीं है।
और अंत में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पीआईएल के पक्ष में जो दलील दी गई, वह वास्तव में किसी क्रिमिनल कंटेम्प्ट से कम नहीं थी। इस पूरी बहस में देश की नज़र इस बात पर है कि क्या आने वाले समय में राजनीतिक लड़ाई को निबटाने के लिए अदालत को अखाड़ा बनाया जाएगा? कम से कम जज लोया मामले में ऐसा ही लग रहा है। एक तरफ निशाने पर जहाँ चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया दीपक मिश्रा हैं, वहीं दूसरी तरफ विपक्ष में हताशा इस बात को लेकर भी है कि संभावित तौर पर अमित शाह को इस मामले में घेरा नहीं जा सका।
सोशल मीडिया से लेकर तमाम टीवी चैनलों पर विपक्षी खेमों की निराशा साफ़ तौर पर झलक रही है। इसी क्रम में माना जा रहा है कि कांग्रेस समेत बहुत से विपक्षी दल मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग लाने की कवायद में इसलिए लगे हैं ताकि सरकार को नीचा दिखाया जा सके।
लेकिन, विपक्ष के पास दो तिहाई बहुमत न होने की स्थिति में प्रस्ताव का ख़ारिज होना तय है। इसका खामियाजा सरकार से ज्यादा न्यायपालिका को उठाना पड़ेगा। विपक्षियों द्वारा राजनीति का पासा किसी और मकसद से फेंका जायेगा, लेकिन इज्ज़त तो तार-तार न्यायपालिका की होगी। फायदा इसमें किसी का नहीं होगा।
ज़ाहिर है कि समाज के अन्दर या राजनीतिक गलियारे में कुछ ऐसे फैसले होते हैं, जिसकी ज़द में बेवजह न्यायपालिका को भी आना होता है। आज के वक़्त में कांग्रेस आदि विपक्षी दलों सहित कुछ वरिष्ठ वकील जिस तरह से न्यायपालिका के ऊपर खुलकर भेदभाव, पक्षपात या भ्रष्टाचार करने का आरोप लगा रहे हैं, इसके पीछे कोई तथ्य या तर्क नहीं नहीं है। अगर कोई फैसला सत्ता पक्ष के हक़ में आ गया तो इसका मतलब निकालना कि फलां जज बिक गया, लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर अविश्वास का ही सूचक है। विपक्षी खेमों सहित कुछ विचारधारा विशेष के लोगों में इस तरह की बीमारी लगातार बढ़ रही है।
अदालत को न्याय का मंदिर माना जाता है, इसकी छीछालेदर करने से किसी का भला नहीं हो सकता है। आप जितनी बार न्यायपालिका के ऊपर ऊँगली उठाते हैं, आप दरअसल उसे और कमजोर करने का काम कर रहे हैं। यह घड़ी दुखद है, विपक्ष को अपने राजनीतिक लाभ के लिए न्यायपालिका का इस्तेमाल करने जैसी गैरजिम्मेदाराना चीजों से बचना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)