प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के नेता रहे हैं, इस कारण कांग्रेस उनके विचारों पर अपना ज्यादा अधिकार जताने की कोशिश कर रही, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति की कही बातों पर संघ जितना खरा उतरता है, उतना कांग्रेस नहीं। प्रणब मुखर्जी ने सहिष्णुता की बात की तो कांग्रेस, जो संघ को असहिष्णु बताती रहती है, को जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गयी। लेकिन, देखा जाए तो प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करना संघ की वैचारिक सहिष्णुता का ज्वलंत उदाहरण है, जबकि कांग्रेस द्वारा प्रणब के कार्यक्रम में जाने का विरोध करना उसकी असहिष्णुता को ही उजागर करता है।
कांग्रेसी नेताओं की तमाम आपत्तियों और यहाँ तक कि अपनी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी की चेतावनी को भी अनदेखा करते हुए देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में पहुंचे और स्वयंसेवकों को संबोधित किए। जबसे प्रणब दा ने संघ के आमंत्रण को स्वीकृति दी थी, देश के राजनीतिक महकमे में एक उथल-पुथल का वातावरण बन गया था। भाजपा के खेमे प्रसन्नता देखी जा रही थी, तो कांग्रेसी खेमा सन्न था।
ख़बरों के अनुसार, कांग्रेस के कई नेताओं ने प्रणब दा को चिट्ठी और फोन के जरिये संघ के कार्यक्रम में न जाने की सलाह दी थी। हालांकि पी. चिदंबरम, वीरप्पा मोइली, सुशिल शिंदे जैसे कुछ कांग्रेसी नेताओं ने संभवतः प्रणब मुखर्जी का सम्मान करते हुए ही उनके इस निर्णय के प्रति समर्थन व्यक्त किया। प्रणब मुखर्जी का इन सब बातों पर केवल इतना कहना था कि वे संघ के कार्यक्रम में जा रहे हैं और वहीं अपनी बात कहेंगे।
बहरहाल, अब जब प्रणब मुखर्जी का संघ के कार्यक्रम में सम्मिलित होना और वक्तव्य देना, इतिहास में दर्ज हो चुका है, तब आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि उनकी बातों से सब संतुष्ट नजर आ रहे। कांग्रेसी उनके संबोधन को संघ-भाजपा को आईना दिखाने वाला बता रहे, तो भाजपा का कहना है कि डॉ. मुखर्जी की बातें उसके विचारों के अनुरूप हैं।
वास्तव में, प्रणब मुखर्जी ने किसी राजनीतिक दल की वैचारिकता पर आधारित व्याख्यान नहीं दिया है, बल्कि उन्होंने सीधे ढंग से केवल राष्ट्र और राष्ट्रभक्ति जैसे विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे इस समय किसी राजनीतिक दल से सम्बंधित नहीं हैं, इस नाते भी यह विशुद्ध रूप से उनके व्यक्तिगत विचार माने जाएंगे। कांग्रेस हो या भाजपा अथवा कोई और दल, सबकी विचारधारा में उनके इन व्यक्तिगत विचारों से सम्बंधित कमोबेश कुछ न कुछ तत्व मिल ही जाएंगे, बस इसी आधार पर हर दल उनके वक्तव्य को अपने अनुकूल बताने में लगा है।
प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के नेता रहे हैं, इस कारण कांग्रेस उनके विचारों पर अपना ज्यादा अधिकार जताने की कोशिश कर रही, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति की कही बातों पर संघ जितना खरा उतरता है, उतना कांग्रेस नहीं। प्रणब मुखर्जी ने सहिष्णुता की बात की तो कांग्रेस, जो संघ को असहिष्णु बताती रहती है, को जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गयी। लेकिन, देखा जाए तो प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करना संघ की वैचारिक सहिष्णुता का ज्वलंत उदाहरण है, जबकि कांग्रेस द्वारा प्रणब के कार्यक्रम में जाने का विरोध करना उसकी असहिष्णुता को ही उजागर करता है।
प्रणब मुखर्जी ने कहा कि हम वैचारिक विविधता को दबा नहीं सकते। संघ के इतिहास में एक अध्याय भी ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें उसने किसी भी तरह से किसी के विचारों को दबाने या उसपर अपने विचार थोपने का प्रयास किया हो, जबकि कांग्रेसी शासन के इतिहास में संघ पर दो-दो बार प्रतिबन्ध लगाना वैचारिक विविधता को दबाने का ही उदाहरण है। प्रथम प्रतिबन्ध को अगर हम तात्कालिक परिस्थितियों की उपज भी मान लें, तो आपातकाल के दौरान लगाए गए दूसरे प्रतिबन्ध को विपरीत विचारधारा को कुचलने की कोशिश के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता।
प्रणब मुखर्जी ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, विविधता में एकता आदि की बात की, तो इसका जिक्र ठीक उनके पहले सर संघचालक मोहन भागवत ने भी अपने वक्तव्य में किया था। प्रणब मुखर्जी का कहना था कि भारतीय राष्ट्रवाद में सब लोग समाहित हैं, इनमें जाति-धर्म-नस्ल-भाषा आदि के आधार पर कोई मतभेद नहीं है। अब आप संघ की किसी शाखा में जाकर देखिये, वहाँ आपको एक साथ उठने-बैठने और खाने-पीने वाले हजारों-हजार लोगों के बीच कोई भेदभाव नजर नहीं आएगा। वे लोग न एकदूसरे की जाति जानते हैं और न धर्म, बस अपने-अपने ढंग से राष्ट्र-निर्माण के कार्य में निस्वार्थ भाव से जुटे रहते हैं। ये बातें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी कह चुके हैं।
उल्लेखनीय होगा कि 1934 में जमनालाल बजाज के आमंत्रण पर संघ के एक शिविर में महात्मा गांधी पहुंचे थे, जिसमें वे संघ की कार्य-पद्धति से अत्यंत प्रभावित नजर आए। महात्मा गांधी ने एकबार इस घटना का जिक्र करते हुए कहा था, ‘बरसों पहले मै वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्म-त्याग से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है।…संघ के खिलाफ जो भी आरोप लगाए जाते हैं, उसमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।‘
जाहिर है कि प्रणब मुखर्जी और संघ के विचारों में मूलतः वैसा भेद नजर नहीं आता जैसा कि प्रचारित किया जाता है, जबकि कांग्रेस प्रणब दा के विचारों के विपरीत ध्रुव पर ही खड़ी नजर आ रही है। प्रणब मुखर्जी ने संघ के कार्यक्रम में शामिल होकर संघ के स्वयंसेवकों के प्रति जो कुछ कहा सो तो है ही, लेकिन साथ ही उन्होंने कांग्रेस को भी एक अप्रत्यक्ष सन्देश देने की कोशिश की है कि वो दुराग्रहों को छोड़ते हुए संघ की शक्ति और महत्व को स्वीकार कर वैचारिक सहिष्णुता का परिचय दे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)