शरद यादव ने यह नहीं बताया कि साझी विरासत को खतरा कहां उत्पन्न हुआ है। भारत की साझी विरासत शरद यादव, राहुल गाँधी, मनमोहन सिंह, लालू यादव, अखिलेश यादव, सीताराम येचुरी आदि की वजह से नहीं है। यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति का प्रभाव है। इसे कुछ अराजक तत्व समाप्त नहीं कर सकते। ऐसी कुछेक घटनाएं यदि हुई हैं, तो वे कानून व्यवस्था की समस्या हैं। इससे विरासत पर कोई असर नहीं पड़ा है। हमारा समाज आज भी पहले जैसा है। अतः शरद यादव के लिए ठीक होगा कि वे साझी विरासत की नहीं, अपनी सीट बचाने की चिन्ता करें।
विपक्षी पार्टियों का जमावड़ा बड़े अर्न्तद्वन्द से गुजर रहा है। शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में यही त्रासदी दिखाई दी। नामकरण से लग रहा था कि इसमें कोई बड़ा वैचारिक धमाका होने वाला है। साझी विरासत के रूप देश की गौरवपूर्ण सामाजिक व्यवस्था पर चर्चा होगी। यह भी सोचा गया कि इस विरासत को बचाने के लिए कोई नया प्रस्ताव आयेगा। लेकिन फिर वही ढांक के तीन पात। तीन वर्षों से जो बातें चल रही हैं, वही यहां भी दोहरायी गयीं। लेकिन ये तदवीर भी उनकी कमजोरी को छिपा नहीं सकी।
इससे कई तथ्य उजागर हुए। पहली बात यह कि विपक्ष की हताशा सामने आ गयी। सभी ने एक स्वर में भाजपा के मुकाबले के लिये एकजुटता का राग अलापा। इसका सीधा तात्पर्य है कि इनमें से किसी पार्टी में अब अकेले चलने की क्षमता नहीं रही। दूसरी बात यह है कि जमावडे़ में सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव है। सभी नेता अपने-अपने लिये संभावना तलाश रहे हैं। शरद यादव भी इसी कवायद में लगे हैं। शरद के सामने नयी समस्या आ गयी है। उनका अपना जनाधार नहीं है।
संसद में पहुंचने के लिये उन्हें किसी न किसी के सहारे की जरूरत हमेशा रही है। इस समय भी वह नीतीश कुमार की मेहरबानी से राज्यसभा में हैं। शरद अपनी स्थिति देख लें। बिहार में जद(यू) के सभी विधायक नीतीश कुमार के साथ हैं। अभी कुछ दिन पहले शरद बिहार की यात्रा से लौटे तो किसी एक वर्तमान विधायक ने उनसे मिलने की जरूरत नहीं समझी। यहां तक कि जद(यू) के गिने-चुने कार्यकर्ताओं के अलावा कोई उनके साथ नहीं था। राजद के सहयोग से शरद ने लाज बचायी। इसी के साथ शरद यादव के सामने समस्या उत्पन्न हुई है। नीतीश कुमार से अलग स्टैंड लेने के बाद शरद का आधार दरक गया है। लेकिन, उनकी समस्या यहीं तक सीमित नहीं है।
लालू यादव ने अपनी पार्टी की विरासत बेटे तेजस्वी को सौंप दी। कांग्रेस में सोनिया गांधी की सक्रियता कम हुई है। वहां राहुल गांधी अघोषित रूप से अध्यक्ष की भूमिका में हैं। शरद को इसी कारण अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता हो रही है। उन्हें अब अपनी वरिष्ठता को किनारे रखते हुए तेजस्वी और राहुल के पीछे चलना होगा। अपनी अहमियत दिखाने के लिए उन्होंने साझी विरासत बचाओ सम्मेलन आयोजित किया। इसी तरह शरद यादव अपना नेतृत्व आगे करने का प्रयास कर रह रहे थे। इसके लिये वह नया शब्द तलाश करके लाये थे। लेकिन, उनकी साझी विरासत में पश्चिम बंगाल, केरल की घटनाओं का जिक्र नदारद थे।
जिन साथियों के साथ शरद यादव अपनी विरासत बचाने का प्रयास कर रहे हैं, उनमें से कांग्रेस तो पूरी तरह से टूट गयी है। आज कांग्रेस के पास उत्तर भारत में पंजाब और हिमाचल प्रदेश के सिवा कोई राज्य नहीं बचा है, जहां वो सत्ता में हो। जो कांग्रेस अपनी सियासी जमीन बचाने में खुद नाकाम है, वो शरद यादव को कितना मजबूत कर सकती है, यह अपने आप में बड़ा प्रश्न है।
शरद ने यह नहीं बताया कि साझी विरासत को खतरा कहां उत्पन्न हुआ है। भारत की साझी विरासत शरद यादव, राहुल, मनमोहन सिंह, लालू यादव, अखिलेश यादव, सीताराम येचुरी आदि की वजह से नहीं है। यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति का प्रभाव है। इसे कुछ अराजक तत्व समाप्त नहीं कर सकते। ऐसी घटनाएं कानून व्यवस्था की समस्या है। इससे विरासत पर कोई असर नहीं पड़ा है। हमारा समाज आज भी पहले जैसा है। अतः शरद यादव साझी विरासत की नहीं, अपनी सीट बचाने की चिन्ता करें। साझी विरासत में उनकी भूमिका नहीं हो सकती।
यहां जो भाषण हुए, वह भी विपक्ष की बासी विरासत से ज्यादा नहीं था। राहुल गांधी अपने पुराने अंदाज में थे। कहा कि भाजपा जीत नहीं सकती, इसलिए अपने लोगों को विभिन्न संस्थाओं में तैनात कर रही है। राहुल बतायें कि उनकी सरकार किसे तैनात करती थी। वह इनके बल पर जीत कर क्यो नहीं आ गये।
कुल मिलाकर विपक्ष पूरी तरह से हारा हुआ नजर आ रहा है। इस कार्यक्रम के जरिए शरद ने अपनी सियासी ताकत का प्रदर्शन करने का प्रयास जरूर किया है, लेकिन जिन नेताओं और दलों के सहारे शरद यादव अपनी सियासी ताकत जुटाने को तैयार हैं, उनके पैरों तले से पहले ही सियासी जमीन खिसक चुकी है।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)