एक ओर बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती केंद्र में “मजबूर” सरकार की मांग कर रही हैं, तो दूसरी ओर कांग्रेस की चुनाव पूर्व गठबंधन बनाने की कवायद “एक कदम आगे, दो कदम पीछे” चल रही है। इसी बीच राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने केंद्र में मजबूत सरकार की जरूरत बताकर इस बहस को एक नया आयाम दे दिया है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने देश के चहुंमुखी विकास के लिए केंद्र में अगले दस साल के लिए एक स्थायी और निर्णायक फैसले लेने वाली सरकार की जरूरत बताई। उन्होंने कहा कि देश गठबंधन या अस्थिर सरकारों का जोखिम नहीं उठा सकता। सरदार वल्लभभाई पटेल स्मृति व्याख्यान के तहत “भारत-2030 : मार्ग के अवरोध” विषय पर बोलते हुए डोभाल ने बताया कि 1970 तक सैन्य मामलों को छोड़ कर अन्य सभी मामलों में भारत चीन से बेहतर स्थिति में था, लेकिन आज हम चीन से बहुत पीछे हो गए हैं।
स्पष्ट है, हम तभी चीन की बराबरी कर पाएंगे जब यहां भी देंग शियांग पिंग जैसा ठोस फैसले लेने वाला नेतृत्व हो। ऐसा नेतृत्व गठबंधन सरकारों में संभव नहीं है, क्योंकि गठबंधन सरकारों की पूरी ऊर्जा निजी स्वार्थों को पूरा करने में ही खर्च हो जाती है। देश को सैनिक और आर्थिक दृष्टि से मजबूत बनाने का काम एक स्थिर और बहुमत वाली सरकार ही कर सकती है।
डोभाल ने मजबूत केंद्र की जो वकालत की है, उसे हमारे संविधान निर्माताओं ने दशकों पहले अनुभव कर लिया था। इसीलिए तो संविधान में गणतंत्र का प्रावधान करने के साथ-साथ मजबूत केंद्र की व्यवस्था की गई। इतना ही नहीं इतिहास के पन्नों को खंगाले तो भी डोभाल के कथन को मजबूती मिलेगी। उदाहरण के लिए जब-जब भारत की केंद्रीय सत्ता कमजोर पड़ी तब-तब भारत विदेशी आक्रांताओं का आसान शिकार बना।
डोभाल के व्याख्यान के बाद से ही देश में बुद्धिजीवियों का एक ख़ास तबका, जिसका भाजपा और मोदी के विरोध के सिवा और कोई काम नहीं, केंद्र में मजबूत सरकार की खामियां गिनाने में जुट गया है। इंदिरा गांधी की तानाशाही व राजीव गांधी की चाटुकारिता वाली राजनीति के उदाहरण देकर मजबूत सरकार के दुष्परिणाम गिनाए जा रहे हैं; लेकिन निंदा करने वाले यह नहीं देख रहे हैं कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व में बनी मजबूत सरकारों में व्यक्तिगत और पारिवारिक महत्वाकांक्षा ज्यादा थी और राष्ट्रीय हित कम। स्पष्ट है, मोदी सरकार की तुलना पहले की मजबूत सरकारों से नहीं की जा सकती।
आलोचक दूसरा तर्क यह दे रहे हैं कि राज्यों में कामयाब गठबंधन सरकारें रहीं हैं। लेकिन देखा जाए केंद्र में इस फार्मूले को लागू करने पर निराशा हाथ लगती है। केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर बहुत बुरा रहा है। आज नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, गरीबी, बेकारी, भ्रटाचार की जो समस्याएं विकराल रूप लिए हुए हैं, वे सब स्वेच्छाचारी राजनीति और सत्ता लोभी गठबंधन का ही नतीजा हैं। गठबंधन राजनीति में मुख्य दल की कमजोरी के नतीजे को रेलवे के उदाहरण से समझा जा सकता है।
1990 के दशक में शुरू हुई गठबंधन की राजनीति में रेल मंत्रालय को सहयोगी दलों को दहेज में दिया जाने वाला “लग्जरी आइटम” बना दिया गया। सहयोगी दलों से बनने वाले रेल मंत्रियों ने इसका जमकर फायदा उठाया और उनमें रेलवे व उससे जुड़ी परियोजनाओं को अपने-अपने गृह राज्य व संसदीय क्षेत्र में ले जाने की होड़ मच गई।
उदाहरण के लिए जिस ममता बनर्जी ने 1997-98 के रेल बजट में पश्चिम बंगाल की उपेक्षा से नाराज होकर तत्कालीन रेल मंत्री राम विलास पासवान की ओर गुस्से में अपनी शॉल फेंकी थी; उन्हीं ममता बनर्जी ने जुलाई 2009 में रेल मंत्री बनते ही पश्चिम बंगाल में रेल परियोजनाओं की झड़ी लगा दी। उनके कार्यकाल में पूरे देश की रेल परियोजनाएं एक तरह से ठप कर दी गईं ताकि उन परियोजनाओं के पैसे से पश्चिम बंगाल की परियोजनाओं को युद्ध स्तर पर चलाया जा सके।
रेलवे के राष्ट्रीय के बजाए क्षेत्रीय उपक्रम बना देने का नतीजा रेलवे की कंगाली के रूप में सामने आया। दरअसल इस दौरान रेलवे को वोट बैंक की राजनीति से इस तरह जोड़ दिया गया है कि कोई भी क्षेत्रीय पार्टी नहीं चाहती कि किरायों में बढ़ोत्तरी का तमगा उसके सिर लगे। इससे रेलवे का घाटा तेजी से बढ़ा जिसकी भरपाई के लिए “क्रास सब्सिडी” की शुरूआत की गई जिससे देश में माल भाड़ा तेजी से बढ़ा। इसका नतीजा महंगाई में बढ़ोत्तरी और औद्योगिक विकास में बाधा के रूप में सामने आया। रेलवे एक उदाहरण है, इसके अलावा भी अनेक क्षेत्र हैं जिनपर गठबंधन सरकारों का बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
समग्रत: अल्पमत और गठबंधन सरकारों की पूरी उर्जा सहयोगी दलों की महत्वाकांक्षाओं और निजी हितों को पूरा करने में खर्च हो जाती है। ये सरकारें दूरगामी महत्व के ठोस फैसले लेने के बजाए कामचलाऊं फैसलें ही लेती हैं। ऐसे में, देश को सैनिक और आर्थिक दृष्टि से सशक्त बनाने का काम मजबूत और स्थिर सरकार ही कर सकती है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)