मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता स्व. श्री सुंदरलाल पटवा जी का जन्म मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के कुकडेश्वर कस्बे में हुआ था। उनका परिवार श्वेतांबर जैन धर्म को मानने वाला था। उनका परिवार धार्मिक तथा राष्ट्रवादी प्रवृत्ति का था। उनके पिता श्री मन्नालाल जैन उस समय के एक प्रतिष्ठित व्यापारी तथा समाजसेवी थे। परिवार की धार्मिक गतिविधियों तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति अथाह अनुराग ही उन्हे राजनीति में लेकर आया। सुंदरलाल पटवा पंडित दीनदयाल उपाध्याय के परंपरा के राजनेता थे। उन्होने पूरा जीवन परहित के लिए समर्पित कर दिया था। 18 वर्ष की आयु में संघ परिवार के सानिध्य में आने के बाद पटवा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सुदर लाल पटवा की इच्छा कभी राजनीतिक जीवन में आने का नहीं था, वो बतौर कार्यकर्ता समाज देश और संगठन की सेवा करना चाहते थे, लेकिन परिस्थिति को कुछ और ही मंजूर था। बात 1956 की है, एक दिन कुशाभाऊ ठाकरे सुंदरलाल पटवा के घर पहुंचे और अगले वर्ष होने वाला विधानसभा चुनाव लड़ने का आग्रह किया, लेकिन पटवा को सत्ता से ज्यादा संगठन प्यारा था, इसलिए वे मना कर दिए। लेकिन कुशाभाऊ ठाकरे पटवा की क्षमता को पहचान गए थे और उन्होने तय कर लिया कि पटवा को किसी भी तरह से विधानसभा में भेजना है, और कुशाभाऊ ठाकरे की सूझ-बूझ और दुरदर्शिता से पटवा जी विधान सभा चुनाव लड़े तथा विजयी भी हुए।
पटवा जी युवा नेतृत्व मे बहुत भरोसा करते थे, उनका विश्वास था कि युवा ही देश और राज्य को विकसित बना सकता है। इसी वजह से 1990 के चुनाव में 22 युवा कार्यकर्ताओं को टिकट दिलवाए जिसमें से बीस को विजय भी हासिल हुई। इन युवा नेताओं में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान, भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, केन्द्रीय इस्पात मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल और उच्च शिक्षा मंत्री प्रेम प्रकाश पांडे शामिल थे। इन नेताओं की प्रगति और संगठन के प्रति इन लोगों के भाव को देखकर ही लगता है कि सुंदरलाल पटवा कितने पारखी व्यक्ति थे।
सुंदरलाल पटवा परिस्थितियों को अपने वश में करना जानते थे। उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे कई मौके आए जब उन्होने अपनी कुशल सांगठनिक क्षमता का परिचय दिया। सत्ता में रहने के दौरान वे अपने लिए एक लकीर खींच लिए थे, जिसको वह खुद भी नहीं लांघना चाहते थे, और न कभी लांघे। उनकी यही कार्यप्रणाली संगठन में भी रहने के दौरान थी। अनुशासन ही उनके लिए सब कुछ था। जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने तब राज्य में तबादला और पोस्टिंग एक उद्योग के रूप् में कार्य करता था, यह पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों के कुकर्मों का परिणाम था। पटवा ने मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहले इस पर रोक लगायी और स्थानांतरण का अधिकार मंत्रियों से लेकर सचिवालय के अधिकारियों के जिम्मे कर दिया। पटवा सरकार के इस कदम ने वर्षों से चल रहे इस नाजायज उद्योग पर विराम लगा।
वह हमेशा संगठन और राज्य के हित के लिए तत्पर रहते थे। वह उन बातो को लेकर अपने वरिष्ठों से भी बहस करने लगते थे, जो विषय संगठन और राज्य के हित में नहीं थे। लेकिन उनकी बहस तर्कों की चाशनी में ऐसी घुली होती थी कि उनके वरिष्ठ भी उनसे असहमत नहीं होते थे। किसी को नाराज किए बिना अपनी बात मनवा लेने की एक अद्भुत क्षमता थी उनके अंदर।
किसानों के प्रति उनके मन में हमेशा से विशेष स्नेह रहा। 1990 में जब वे भाजापा की ओर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बनाए गए तब उनकी पहली घोषणा किसानों के कर्ज माफी की थी। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे लगातार इस प्रयास में लगे रहे कि कैसे किसानों का कर्ज माफ करवाया जाए, इसके लिए वे कई बार नाबार्ड और केन्द्र सरकार से सीधे टकराए भी, इसीका परिणाम था कि कर्ज माफी के लिए 640 करोड़ रुपए की स्वीकृति मिल पायी जो उस समय किसी अन्य राज्य को नहीं मिल पायी थी।
पटवा जी युवा नेतृत्व मे बहुत भरोसा करते थे, उनका विश्वास था कि युवा ही देश और राज्य को विकसित बना सकता है। इसी वजह से 1990 के चुनाव में 22 युवा कार्यकर्ताओं को टिकट दिलवाए जिसमें से बीस को विजय भी हासिल हुई। इन युवा नेताओं में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान, भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, केन्द्रीय इस्पात मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल और उच्च शिक्षा मंत्री प्रेम प्रकाश पांडे शामिल थे। इन नेताओं की प्रगति और संगठन के प्रति इन लोगों के भाव को देखकर ही लगता है कि सुंदरलाल पटवा कितने पारखी व्यक्ति थे।
युवाओं को तरजीह और किसानों की कर्ज माफी के अलावा अपने मुख्यमंत्रित्व काल में कई ऐसे भी फैसले लिए जिनके लिए उनको हमेशा से याद किया जाएगा। उनके इन निर्णयों में बंबई बाजार का आपरेशन भी प्रमुख है। बात सितंबर 1991 की है, बंबई बाजार में बाला बेग नामक एक अपराधी का आतंक था, तत्कालीन एसपी अनिल धस्माना जब बालाबेग के अवैध ठिकाने पर छापा मारने गए तब उन पर प्राणघातक हमले हुए इस हमले में एसपी धस्माना बाल-बाल बंचे लेकिन उनका अंगरक्षक छेदीलाल दुबे मारा गया। इस घटना ने सुंदरलाल पटवा के अंतर को झंकझोर दिया और उन्होंने परिस्थिति से सख्ती से निपटने का आदेश दे दिया इसका परिणाम यह हुआ कि बाला बेग पकड़ा गया और इंदौर का वातावरण शांत हुआ।
जिस समय पटवा मुख्यमंत्री थे, उस समय देश के अधिकांश पत्रकार या तो वामपंथ की विचारधारा से प्रेरित थे या फिर कांग्रेसी चाटुकार। यह बात पटवा जी को अंदर से सालती थी। भारतीय पत्रकारिता मे वामियों के एकछत्र राज को चुनौती देने और राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों को पत्रकारित में लाने के उद्देश्य से भोपाल में पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा इस संस्थान का नामकरण राष्ट्रकवि माखन लाल चतुर्वेदी के नाम पर किया।
अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय उन्होंने 1997 के उपचुनाव मे छिंदवाड़ा से कमलनाथ जैसे दिग्गज को हराकर दिया। अपने जनकल्याकारी निर्णय और सख्त फैसले के लिए उनको हमेशा याद किया जाएगा, अपने पूरे जीवन में वह संगठन के अनुशासन को जिए, गांव गरीब और किसानों की व्यथा को समझे और उनके दुःखों को अनुभव करने की कोशिश करते रहे। वह पंडित दीनदयाल उपाध्याय के परंपरा के नेता थे, राजनीति उनके लिए साध्य था, ऐसा साध्य जिससे गरीबों का कल्याण हो, देश की प्रगति हो और समाज में समरसता का वातावरण हो। वह राजनीति को कभी साधन नहीं समझे। उनके ऊपर जो भी जिम्मेदारी आयी उसे पूरे मनोयोग से पूरा किया। अपने कार्यशैली में पारदर्शिता स्थापित की तथा समाज, सरकार और संगठन के प्रति अपनी जवाबदेही तय किये।
(स्त्रोत: क्षितिज का विस्तार (राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल), मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ (वसंत कुमार तिवारी),मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश (मायाराम सुरजन), न दैन्यं न पालायनम्(अटल बिहारी बाजपेयी), मुल्य परक राजनीति के महासंत का महाप्रयाण (उमेश त्रिवेदी), राजनीति नामा मध्यप्रदेश – 1956 से 2003 (दीपक तिवारी))