भारतीय राजनीति का इतिहास जिस प्रकार से तिलक को प्रखर राष्ट्रवादी रूप में स्थापित करता है, सुभाषचंद्र बोस को कुशल संगठक के रूप में स्थापित करता है, भगत सिंह की छवि को बतौर क्रांतिकारी उभारता है, उसी प्रकार से निराला के काव्य में भी राष्ट्रवाद के विविध स्वरूपों का दर्शन कराता है, उसी में से एक रूप है प्रखर क्रांतिकारी का जो इनकी कविताओं के मूल में है। कुकुरमुत्ता, वह तोड़ती पत्थर और चतुरी चमार से जहां निराला की क्रांतिकारी छवि चिन्हित होती है, उसी प्रकार से तुलसीदास और ‘शिवाजी का पत्र’ से उनकी छवि प्रखर राष्ट्रवादी और सनातन समर्थक की बनती है।
भारतीय साहित्य में जब भी निराला की चर्चा होती है तब उनकी छवि एक ऐसे लेखक और कवि की बनती है जो पूरे समाज से विद्रोह करने पर आतुर है, वह व्यवस्था के खिलाफ है, लोकतंत्र के विरुद्ध है और वह सबके साथ एक बार युद्ध छेड़ने का प्रयास करता है, लेकिन निराला की वास्तविकता इससे परे है। निराला की यह छवि देश के तथाकथित वामपंथी जो वैचारिक और तार्किक रूप से दरिद्र हो चुके हैं, उन्ही के दिमाग की उपज है। यह वामपंथी साहित्यकार और आलोचक निराला की चंद पंक्तियों को आधार बनाकर उन्हे विद्राही घोषित कर उनकी नैतिक पवित्रता का चीरहरण करने लगते हैं। लेकिन, उन पंक्तियों की गहराई और उसके पीछे छुपे हुए भाव को कभी आम पाठक के सामने प्रस्तुत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।
निराला एक क्रांतिकारी कवि थे, लेकिन उनकी कविताओं में राष्ट्रवाद का जो स्वर मुखर होता है, वही बहुत है इस बात को साबित करने के लिए कि निराला वामपंथी नहीं अपितु सर्वसमाज की चिंता करने वाले थे। निराला ने राष्ट्र को हमेशा से एक राजनैतिक इकाई से ऊपर स्थापित करने की कोशिश की। उनके अनुसार राष्ट्र सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नयन का केन्द्र हैं, जहां पर भावनाएं विकसित होती हैं, वह भावनाएं जो व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़कर समरस समाज का निर्माण करती हैं। निराला के मन में राष्ट्रवाद की प्रबल भावनाएं थीं, वो राष्ट्र और धर्म को जोड़ कर देखते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि राष्ट्र तभी सबल होगा जब धर्म उसके पीछे चट्टान की तरह खड़ा रहे। वे कहते थे कि राष्ट्र कोई भौतिकतावादी तुच्छ अवधारणा नहीं है, अपितु यह सत्य सनातन है जो आने वाली पीढ़ी को संवारता है और संस्कृति को परिभाषित करता है।
स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवाद की धुरी भी धर्म पर टिकी थी और इस मामले में निराला स्वामी जी के काफी करीब हैं। गांधी का स्वराज्य रामराज्य के चिंतन पर अधारित था, जिसका संबंध भारत के वैदिक संस्कृति से था। जबकि स्वामी जी का राष्ट्रवाद भारतीय पंरपरा, संस्कृति और सनातन महत्ता से ओतप्रोत था। गांधी जी के स्वराज की कल्पना भी बहुत हद तक तुलसी दास, कबीर दास और संत ज्ञानेश्वर जैसे धार्मिक कवियों के दर्शन से प्रभावित थी। लेकिन, निराला का राष्ट्रवाद उन चिंताओं को स्वर प्रदान करता था, जहां पहुंच पाना किसी कवि की कल्पनाओं के लिए भी असंभव है। जीवन भर निराला जिन परिस्थितियों से लड़ते रहे उनमें कहीं ना कहीं राष्ट्र के पुनर्निर्माण की भावना ही निहित थी।
निराला की कविताएं तत्कालीन समाज में पसरी अव्यवस्था और द्वेष की भावनाओं पर कटाक्ष करती हैं, लेकिन इसको किसी राजनीतिक विचारधारा से जोड़ देना वैचारिक दरिद्रता का ही परिचायक है। अगर वह ‘तोड़ती पत्थर’ में गरीबी और तिरस्कार से पीड़ित किसी एक समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, तो मातृवंदना में मां भारती के चरणों में अपना सर समर्पित करने की प्रतिबद्धता भी दोहराते हैं। मां भारती के प्रति निराला की यही प्रतिबद्धता उन्हे राष्ट्रवाद की ओर लेकर जाती है।
भारतीय राजनीति का इतिहास जिस प्रकार से तिलक को प्रखर राष्ट्रवादी रूप में स्थापित करता है, सुभाषचंद्र बोस को कुशल संगठक के रूप में स्थापित करता है, भगत सिंह की छवि को बतौर क्रांतिकारी उभारता है, उसी प्रकार से निराला के काव्य में भी राष्ट्रवाद के विविध स्वरूपों का दर्शन कराता है, उसी में से एक रूप है प्रखर क्रांतिकारी का जो इनकी कविताओं के मूल में है। कुकुरमुत्ता, वह तोड़ती पत्थर और चतुरी चमार से जहां निराला की क्रांतिकारी छवि चिन्हित होती है, उसी प्रकार से तुलसीदास और ‘शिवाजी का पत्र’ से उनकी छवि प्रखर राष्ट्रवादी और सनातन समर्थक की बनती है।
यह भारतीय समाज के साथ-साथ हिंदी साहित्य का भी दुर्भाग्य रहा कि आजादी के बाद से एक दल-विशेष के लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए जिस प्रकार से महात्मा गांधी की महिमा का दोहन किया, उसी प्रकार भारत के वामपंथी संगठनों जो साहित्य और समाज को केवल अपने अधिकार की वस्तु मानते हैं, ने निराला की प्रतिभा का दोहन अपने स्वार्थ के लिए किया। निराला की रचनाओं के भावार्थ का चीरहरण जिस प्रकार से वामियों ने किया, उसे देखकर एक बार खुद निराला भी खिन्न हो जाते। बहरहाल, वास्तविकता यह है कि निराला आज भी भारत के कण-कण में हैं, एक सफल राष्ट्र की कल्पना कर रहे हैं, देश की उन्नति के लिए प्रयासरत है और माॅ शारदे के आगे अपनी उसी कालजयी प्रर्थना की पुनरावृत्ति कर रहे हैं कि वर दे, वीणावादिनी वर दे!
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी शोध प्रतिष्ठान में रिसर्च एसोसिएट हैं।)