स्वामी विवेकानंद ने अपना पूरा जीवन चरित्र-निर्माण और एक स्वावलम्बी समाज को गढ़ने में लगा दिया। उनको पता था कि बिना आत्मविश्वास के आत्मनिर्भर समाज नहीं बन सकता है। भारत उस समय पराधीन था और उसे स्वाधीन होने के लिए अगर कोई सबसे मुख्य आवश्यकता थी तो वो थी पुनः हर भारतीय में आत्मविश्वास जगाना, जो कार्य स्वामी विवेकानंद जी ने जीवन भर किया।
जीवन में प्रेरणा और उत्साह अर्जित करने के अनेक माध्यम होते हैं। कभी हमे किसी की वाणी से प्रेरणा मिलती है तो कभी लिखे हुए अक्षरों से कभी व्यक्तित्व से तो कभी जीवन चरित्र से। लेकिन जिनके नाम मात्र से युवाओं में प्रेरणा और उत्साह की उमंग दौड़ जाती है तो वो हैं – 19 वी शताब्दी में जन्मे महान कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद।
12 जनवरी 1863 को बंगाल के कलकत्ता में माता भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त के घर जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त, जो बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, मात्र 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन के जीवन में अगर उन्हीके शब्दों में कहु तो 1500 वर्ष का कार्य कर गए। उनकी योजना स्पष्ट थी कि उनको मनुष्य निर्माण का कार्य करना था। उनको राष्ट्र के पुनरुत्थान का कार्य करना था।
इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने अपना पूरा जीवन चरित्र-निर्माण और एक स्वावलम्बी समाज को गढ़ने में लगा दिया। उनको पता था कि बिना आत्मविश्वास के आत्मनिर्भर समाज नहीं बन सकता है। भारत उस समय पराधीन था और उसे स्वाधीन होने के लिए अगर कोई सबसे मुख्य आवश्यकता थी तो वो थी पुनः हर भारतीय में आत्मविश्वास जगाना, जो कार्य स्वामी विवेकानंद जी ने जीवन भर किया।
लेकिन यह कार्य इतना आसान कहा था, इसीलिए स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि ” जब भी मैं कोई महान कार्य करता तब मुझे मौत की घाटी से गुजरना पड़ता था। ” लेकिन स्वामी विवेकानंद तो ”अभय” थे जिन्होंने इस मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया।
स्वामी विवेकानंद ने भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में भारतीय संस्कृति को पहचान और सम्मान दिलाया जिसकी शुरुआत प्रसिद्ध विश्व धर्म महासभा, जो की अमेरिका के शिकागो शहर में 1893 में आयोजित हुई थी, के उद्घाटन भाषण से हुई। 17 दिनों (11 से 27 सितम्बर, 1893 ) तक चलने वाली विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगो के सामने रखा था।
भारत जो उस समय अंग्रेजों द्वारा शासित था, जिसको सांप-सपेरों का देश माना जाता था, उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है, यह विदेशियों को पहली बार पता चला।
विश्व धर्म महासभा में अपने 11 सितम्बर 1893 को दिए गए ऐतिहासिक भाषण के बाद स्वामीजी पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध हो गए। लेकिन उस रात स्वामीजी को पूरी रात नींद नहीं आई और वह रोते रहे। और यह नींद ना आने का कारण प्रसिद्धि, शोहरत या चकाचौंध नहीं थी। स्वामीजी कहते हैं कि ”इस नाम और यश का मैं क्या करूँगा।” मुझे तो अपने भारतवासियों के बारे मैं सोच कर रोना आ रहा है जो आज भी गरीबी में रहते हैं।
अपने 4 वर्ष के पश्चिम देशों के प्रवास के बाद जब स्वामीजी भारत वापस आ रहे थे तब उनके मित्र ने उनसे पूछा था कि ”इतने वर्ष समृद्ध पश्चिम में जीवनयापन करने के बाद आपको अपनी मातृभूमि कैसी लगती है ? स्वामीजी की आँखें ख़ुशी से चमकने लगी थीं और उन्होंने भावुकता में भरे हुए गले से उत्तर दिया, ”जब मैं वहां से दूर आया तो मैं भारत से प्रेम ही करता था। अब उस देश की धूल मेरे लिए पावन हो गयी है। वहां की वायु मेरे लिए पावन है। अब वह पावन भूमि है, तीर्थक्षेत्र है।”
15 जनवरी, 1898 को भारत वापस आये तो वह सबसे पहले श्रीलंका के कोलम्बो उतरे और वहां हिन्दू समाज ने उनका बड़ा शानदार स्वागत किया था। उसके बाद स्वामीजी ने पूरे भारतवर्ष में अपने व्याख्यानों और संगठन कार्य से एक नवीन ऊर्जा भर दी। उनके भारत में दिए हुए व्याख्यान जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं – वेदांत का उद्देश्य, हमारा प्रस्तुत कार्य, भारत का भविष्य, हिन्दू धर्म के सामान्य आधार, भारत के महापुरुष, मेरी क्रन्तिकारी योजना आज भी हर युवा के लिए मार्गदर्शन का कार्य करते हैं।
उन्होंने युवाओं को सन्देश दिया कि “एक विचार उठाओ, उस एक विचार को अपना जीवन बना लो – उसके बारे में सोचो, उसके सपने देखो, उस विचार पर जियो। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, और शरीर के प्रत्येक भाग को उस विचार से भरा होने दो, और बस हर दूसरे विचार को अकेला छोड़ दो, यह सफलता का मार्ग है।“
अब समय आगया है कि हर भारतीय स्वामीजी के सपनों का आत्मनिर्भर भारत बनाने में अपना योगदान दे। लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं है, इसके लिए लाखों युवाओं को निस्वार्थ भाव से अपने राष्ट्र के लिए कार्य करना होगा। राष्ट्रनिर्माण के कार्य के लिए अपने को न्यौछावर होना होगा। स्वामीजी कहते हैं- ”त्याग के बिना कोई भी महान कार्य होना संभव नहीं है। अपनी सुख सुविधाएं छोड़ कर मनुष्यों का ऐसा सेतु बांधना है, जिस पर चलकर नर-नारी भवसागर को पार कर जाएँ”।
(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैंI प्रस्तुत विचार उनके निजी हैंI)