जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा के होने का मतलब है इस विश्वविद्यालय के हर छात्र का भारतीयता के रंग में रंग जाना, भारत के प्रति, भारतीय संस्कृति के प्रति स्नेह, सम्मान, प्रेम, लगाव का प्रतिबिंबित होना। निस्वार्थ भाव से कार्य करने की प्रेरणा स्वामीजी से लेना। संघर्ष से ना डरना, सकारात्मक, रचनात्मक कार्य में लगे रहना, अपने दायित्व के प्रति जवाबदेह होना। अनीति से लड़ना, दुर्गुणों से दूर रहना, होश के साथ जोश भी रहना, राष्ट्र के लिए बलिदान की आस्था रखना, सबसे ऊपर भारत माता जिसने हमे सबकुछ दिया है उसको पुनः विश्व गुरु बनाने के कार्य में लगना क्योंकि इस कार्य में शिक्षकों और युवाओं की, विद्यार्थियों की सबसे बड़ी भूमिका रहेगी।
देश की राजधानी दिल्ली में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अब विवेकानन्दमय हो गया है। 12 नवंबर 2020 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जेएनयू. परिसर में बनी स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया। स्वामी विवेकानंद भारत की ही नहीं विश्व भर के युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं। उनको युवा पीढ़ी की क्षमता और परिवर्तनकारी शक्ति में बहुत विश्वास था। उन्होंने कहा था कि “मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में है, आधुनिक पीढ़ी में है। उनमें से मेरे कार्यकर्ता आएंगे। वे शेरों की तरह पूरी समस्या का समाधान करेंगे।“
स्वामीजी के शिक्षा पर रखे हुए विचार आज के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने की तब थे वह कहते थे – “वह शिक्षा जो आम लोगों को जीवन के संघर्ष के लिए खुद को तैयार करने में मदद नहीं करती है, जो चरित्र की ताकत, परोपकार की भावना, और एक शेर की हिम्मत को बाहर नहीं लाती है – क्या वह लायक है? वास्तविक शिक्षा वह है जो किसी को अपने दम पर खड़ा करने में सक्षम बनाती है।”
अपने चिंतन में स्वामीजी युवाओं और शिक्षा को हमेशा स्थान देते थे व अब उन्हें 19वीं शताब्दी के कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में हुआ है। जेएनयू. में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा स्थापित होने की खबर सुनते ही विचारशून्य विचारधारा की लड़ाई करने वाले लोग कई कयास लगा रहे हैं, लेकिन अगर हम राजनैतिक दृष्टि वाले चश्मे को निकल पर देखे तो हमे प्रतिमा के अनावरण में सकारात्मकता, हर्ष और उत्साह ही दिखेगा।
पंडित जवाहरलाल नेहरू जिनके नाम से यह विश्वविद्यालय बना है वह स्वामी विवेकानंद जी के बड़े प्रशंसक थे और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे। पंडित नेहरू द्वारा लिखी गई पुस्तकें ‘दी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ और ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में उन्होंने अनेक बार स्वामीजी का सन्दर्भ दिया है।
पिछले साल इस प्रतिमा को कुछ असामाजिक तत्वों ने नुकसान पहुंचाया था। स्वाभाविक है, वह छात्र और युवा तो हो ही नहीं सकते क्योकि कोई छात्र, कोई युवा उन स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा को क्यों नुकसान पहुचायेगा जिन्होंने अपना पूरा जीवन मनुष्य निर्माण और भारत के पुनरुत्थान के कार्य में लगा दिया हो।
जो उत्कृष्ट चरित्र, निर्भीकता, निडरता, साहस के पर्यायवाची हैं। जिन्होंने भारत को पैर-पैर चलकर जाना, कभी घोड़ा गाड़ी में सफर किया तो कभी कोई ट्रैन की टिकट करवा देता तो उसमें। दिनों-दिनों तक भूखे रहे, कभी पेड़ के नीचे सोये तो कभी बक्से में।
भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी का सामना तो किया ही साथ ही साथ जब विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने गए तो रंग भेद का सामना भी करना पड़ा। लेकिन भारत माता के लिए स्वामीजी ने यह सब कुछ हँसते-हँसते सह लिया और 11 सितम्बर, 1893 को अमेरिका के शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सभा में भारत को विश्व विजयी बना दिया था।
यह उन्हीं स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा को नुकसान पहुंचाया गया था जिनके बारे में बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था कि – ”हाल की शताब्दियों में भारत में जन्मे सबसे महान आदमी, गांधी नहीं, बल्कि विवेकानंद हैं।“ बाबा साहब का स्वामी विवेकानंद को सबसे महान बताना उनके स्वामीजी के प्रति सकारात्मक भाव को बताता है। यह वही स्वामी विवेकानंद हैं जिनके बारे में महात्मा गाँधी ने कहा था कि – उनके हृदय में दिवंगत स्वामी विवेकानंद के लिए बहुत सम्मान है। उन्होंने उनकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं। स्वामीजी को पढ़कर उनका भारत के प्रति और प्रेम बढ़ गया।
यह वही स्वामी विवेकानंद हैं, जिनसे बाल गंगाधर तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बिपिन चंद्र पाल, योगी अरविन्द और पता नहीं कितने स्वतंत्रता सेनानी प्रभावित थे। यह वही स्वामी विवेकानंद हैं, जिनके प्रशंसक विनोबा भावे, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन रहे हैं। यह वही स्वामी विवेकानंद हैं, जिनसे प्रेरणा पाकर जमशेद टाटा ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस की स्थापना की।
पता नहीं कितने लेख स्वामी विवेकानंद के मात्र प्रभाव पर ही लिखे जा सकते हैं। और जब ऐसे महान त्यागी, कर्म योगी सन्यासी की प्रतिमा को कोई नुकसान पहुंचाता है, तो स्वाभाविक ही रोष तो पनपता ही है हर भारतीय में, लेकिन फिर स्वामीजी का जीवन याद आ जाता है, जिन्होंने अपने पूरे जीवन भर हजारों परेशानियों का सामना किया लेकिन लाख परेशानियों का सामना करने के बाद भी किसीको घृणा का शब्द कहना तो दूर की बात कभी किसीसे शिकायत तक नहीं की। उन्होंने तो पूरा जीवन महुष्य निर्माण के कार्य में लगा दिया निस्वार्थ भाव से।
स्वामी विवेकानंद की जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रतिमा के होने का मतलब है इस विश्वविद्यालय के हर छात्र का भारतीयता के रंग में रंग जाना, भारत के प्रति, भारतीय संस्कृति के प्रति स्नेह, सम्मान, प्रेम, लगाव का प्रतिबिंबित होना। निस्वार्थ भाव से कार्य करने की प्रेरणा स्वामीजी से लेना।
संघर्ष से ना डरना, सकारात्मक, रचनात्मक कार्य में लगे रहना, अपने दायित्व के प्रति जवाबदेह होना। अनीति से लड़ना, दुर्गुणों से दूर रहना, राष्ट्र के लिए बलिदान की आस्था रखना, सबसे ऊपर भारत माता जिसने हमे सबकुछ दिया है उसको पुनः विश्व गुरु बनाने के कार्य में लगना क्योंकि इस कार्य में शिक्षकों और युवाओं की, विद्यार्थियों की सबसे बड़ी भूमिका रहेगी।
(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैंI प्रस्तुत विचार उनके निजी हैंI)