स्वामीजी कहते हैं- “त्याग के बिना कोई भी महान कार्य होना संभव नहीं है। अपनी सुख सुविधाएं छोड़ कर मनुष्यों का ऐसा सेतु बांधना है, जिस पर चलकर नर-नारी भवसागर को पार कर जाएँ”। इसीलिए हमें अथक परिश्रम करना होगा इस कोरोना महामारी से उत्पन्न परिस्थिति को अवसर और इस अवसर को वास्तविकता में तब्दील करने के लिए। इसीलिए हमें बस कार्य में लगने की जरूरत है, परिणाम बेहतर ही होगा।
कोरोना महामारी ने मनुष्य की जीवन जीने की शैली को ही नहीं बदला बल्कि जीवन के विभिन पहलुओं पर पुनः सोचने पर भी मजबूर किया है। कोरोना के उपरांत क्या परिदृश्य होगा उसपर कयास और अनुमान निरंतर लगाए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई को राष्ट्र के नाम सम्बोधन के दौरान “आत्मनिर्भर भारत” का नारा दिया।
प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार, भारत के पास क्षमता है कि वो इस महामारी से उभर कर वैश्विक शक्ति के रूप में सामने आ सकता है। आत्मनिर्भर भारत के नारे को मीडिया ने हाथों-हाथ लिया और देखते ही देखते इस विषय पर बहस, चर्चाओं और लेखों की बाढ़ सी आ गई, लेकिन मुख्यतः सभी विषयों का केंद्र बिंदु आत्मनिर्भर भारत का आर्थिक पक्ष रहा।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि आज से लगभग 125 वर्ष पहले स्वामी विवेकानंद अमेरिका के अपने प्रवास के दौरान मिशिगन विश्वविद्यालय में पत्रकारों के एक समूह को कहते हैं कि “यह आपकी सदी है, लेकिन इक्कीसवी सदी भारत की होगी”।
प्रधानमंत्री जी ने भी इक्कीसवीं सदी भारत की हो, इसपर अपने भाषण में जोर दिया और यह भी कहा कि इसका मार्ग आत्मनिर्भर भारत होगा। भारत और राज्य सरकारें तो अपना हर संभव प्रयास कर रहे हैं और करती रहेंगी, लेकिन कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनको सम्बोधित करना बहुत जरुरी है। प्रश्न है कि जब तक हर भारतीय आत्मनिर्भर बनने को तैयार नहीं, फिर भी क्या भारत आत्मानिर्भर बन सकता है ?
क्या हम किसी ठोस प्रक्रिया के बिना आत्मनिर्भर बन सकते हैं ?
हमें आत्मनिर्भर भारत की दृष्टि को साकार करने के लिए सचेत रूप से प्रयास करने होंगे। स्वामी विवेकानंद की ”एकता” की अवधारणा अभी के दौर की सबसे बड़ी आवश्यकता है। हम सभी को मन से एक होना पड़ेगा, जैसा कि संगठनों और सफल टीमों में हुआ करता है। आत्मनिर्भर भारत हेतु ये राष्ट्र संगठित और एक मत हो, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। तरीका और प्रक्रिया बिलकुल अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन एक विचार जिसपर सबका एकमत हो, वह है आत्मनिर्भर भारत।
स्वामी विवेकानंद अपने पूरे जीवनकाल में “मनुष्य निर्माण” के कार्य में लगे रहे, उनके अनुसार यह मनुष्य निर्माण का कार्य ही भारत को पुनः जगायेगा और एक बार फिर से हमारी प्राचीन भारत माता नवयौवन प्राप्त करके कहीं अधिक भव्य दीप्ति के साथ अपने सिंहासन पर बैठेगी।
आधुनिक भारत के इतिहास के पन्ने पलटने पर हम देखते हैं कि 1857 के विद्रोह के बाद अगर कोई सबसे महत्वपूर्ण घटना घटी है, तो वो है स्वामी विवेकानंद का 11 सितम्बर, 1893 को शिकागो में हुए विश्व धर्म महासभा में दिया हुआ भाषण। जहां वो भारतीय दर्शन, संस्कृति और सभ्यता को विश्व के सामने रखते हैं।
पश्चिम के अपने प्रथम प्रवास (1893-97) के दौरान स्वामीजी ने पश्चिम का भारत की तरफ देखने का नजरिया ही बदल दिया। भारत को उस समय सपेरों का, दासों का और अंधविश्वासियो का देश माना जाता था जो सालो से विदेशियों द्वारा गुलाम रहा हो।
आत्मनिर्भर भारत की दिशा में पहला कदम यह है कि हमें अपने गौरवशाली इतिहास को स्वीकार करना होगा और इसके परिणामस्वरूप हममें पुनः आत्मविश्वास जागृत होगा एवं भारत के पुनरुत्थान का मार्ग भी प्रशस्त होगा। यदि भारत और भारतीय आत्मनिर्भर होना चाहते हैं, तो हम किसी भी मॉडल का आँख बंद करके अनुसरण नहीं कर सकते। क्या पश्चिम का अंधानुकरण करना उचित होगा?
स्वामीजी कहते हैं कि, “एक ओर, नया भारत कहता है, पाश्चात्य भाव, पाश्चात्य भाषा, पाश्चात्य खान-पान और पाश्चात्य आचार को अपनाकर ही हम पाश्चात्य राष्ट्रों के समान शक्तिशाली हो सकेंगे,” दूसरी ओर पुराना भारत कहता है, ”हे मूर्ख! कहीं नकल करने से भी दूसरों का भाव अपना हुआ है ? इसीलिए हमें अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के साथ भारतीय मार्ग पर ही आगे बढ़ना होगा। हमें पश्चिम से सीखना जरूर चाहिए लेकिन हम उनका अंधानुकरण नहीं कर सकते।‘ हमें दुनिया भर में सबके विचारों को देखना होगा किन्तु उन्हें अपने तरीके से अवशोषित करना होगा।
स्वामीजी किसी भी विचार को ऊपरी तौर पर नहीं देखते थे, अपितु वो सत्य जानने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। पश्चिम के प्रवास के दौरान उन्होंने देखा कि शिक्षा ने कैसे हर मनुष्य के अंदर आत्मविश्वास पैदा किया है। इसलिए उनका मानना था कि भारत में बुनियादी शिक्षा आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए युवाओं और संन्यासियों को दिन रात काम करना होगा।
स्वामीजी के लिए शिक्षा कोई नौकरी पाने का साधन नहीं थी, वो तो शिक्षा को ”मनुष्य निर्माण ” का भाग मानते थे। “भारत का भविष्य” नामक अपने व्याख्यान में वे कहते हैं – “शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूस दी जाएं कि अंतर्द्वंद होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके।
जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-गठन कर सकें और विचारो का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पांच ही भावों को पचा कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है”।
यह शिक्षा राष्ट्र के चरित्र का निर्माण करेगी जहां व्यक्तिगत श्रेष्ठता राष्ट्र और समाज के काम आए ना कि व्यक्तिगत प्रसिद्धि और सफलता तक सीमित रह जाए। अगर ऐसा वातावरण विकसित होता है, तो भारत के विश्वविद्यालयों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IITs), भारतीय प्रबंधन संस्थानों (IIMs) से सब्सिडी पर पढ़ कर विदेशों मे सेवा देने वाले भारतीय वहां नहीं जाएंगे। भारत को उनकी ज़रूरत है, इसी राष्ट्र ने उनको बनाया है, इसीलिए उनको भारत की सेवा करनी होगी, लेकिन यह तभी संभव है जब राष्ट्र के चरित्र का निर्माण हो ना कि व्यक्तिगत लाभ और हानियों को देख कर आगे बढ़ा जाये।
1917 के “बाल्फोर डिक्लेरेशन” के बाद दुनिया भर से यहूदी वापस अपने राष्ट्र इजराइल आ जाते हैं। वो स्वेम और उनके पूर्वजो द्वारा यहूदी राष्ट्र इजराइल के स्वप्न को मूर्तरूप देने में लग जाते हैं और आने वाले कुछ दशकों मे अपने राष्ट्र को पुनः विश्व में एक ताकतवर राष्ट्र के तौर पर स्थापित कर देते हैं।
दूसरी तरफ हमें अपनी सभी व्यवस्थाओं में ”क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ” वाला रवैया अपनाना पड़ेगा। जिस दिन हम हृदय से अपने देशवासियो के बारे में महसूस करने लगेंगे, हमारा राष्ट्र प्रगति के पथ पर और गति पकड़ लेगा।
लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है, हममें से कुछ को इस कार्य के लिए न्यौछावर होना पड़ेगा। स्वामीजी कहते हैं- ”त्याग के बिना कोई भी महान कार्य होना संभव नहीं है। अपनी सुख सुविधाएं छोड़ कर मनुष्यों का ऐसा सेतु बांधना है, जिस पर चलकर नर-नारी भवसागर को पार कर जाएँ”।
इसीलिए हमें अथक परिश्रम करना होगा इस कोरोना महामारी से उत्पन्न परिस्थिति को अवसर और इस अवसर को वास्तविकता में तब्दील करने के लिए। इसीलिए कार्य में लगने की जरूरत है, परिणाम बेहतर ही होगा।
जैसा स्वामीजी कहते है ”प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है”, इसीलिए हमे अपने ऊपर पूर्ण विश्वास करना होगा। ”इस विश्व में प्रत्येक राष्ट्र का लक्ष्य निर्धारित है, संसार को देने के लिए सन्देश है, इसीलिए भारत जागो और आध्यात्मिकता से पूरे विश्व को जीत लो। आत्मनिर्भर होने के लिए हमे अपनी ताकत को जानना होगा और फिर कार्य में अपने आप को झोंकना पड़ेगा।” आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की तरफ बढ़ते हुए स्वामी विवेकानंद का यह सन्देश हमे हर स्तर पर काम आएगा और प्रेरणा देने का काम करेगा।
(लेखक निखिल यादव स्वामी विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रांत के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)