विकास बनाम जातिवाद की लड़ाई का अखाड़ा बना गुजरात चुनाव
गुजरात में विधानसभा चुनाव इस बार साफ़ तौर पर विकास बनाम जातिवाद के मुद्दे पर केन्द्रित हो गया है। वैसे, आदर्श राजनीतिक व्यवस्था यही होगी कि चुनाव जातिवाद, धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर लड़ें जाएँ। जातिवाद को चुनावी मुद्दा बनाने के लिए हम अक्सर उत्तर प्रदेश और बिहार के नेताओं को बदनाम करते हैं, लेकिन गुजरात में कांग्रेस लगता है ये तय करके बैठी थी कि अबकी जातिवाद और आरक्षण के नाम पर ही
दलित-मुस्लिम गठजोड़ की सियासी चाल को समझना होगा!
कुछ मुस्लिम राजनेताओं ने आजकल दलितों को मुसलमानों के साथ आने का न्योता दिया है। उनका दावा है कि वे जब मुसलमानों के साथ आ जाएंगे तो हिंदुओं की हिम्मत नहीं है कि उनका बाल भी बांका कर सकें। पर जो मुस्लिम नेता इतनी बहबूदी हांकते हुए दलितों को अपने साथ आने के लिए मनुहार कर रहे हैं, उनके अपने समाज में दलितों की क्या कद्र है, इसका नमूना भी वे जान लें तो बेहतर रहे।
संघ दर्शन: समाज में व्याप्त जातिवाद के अंत का मार्ग है हिंदुत्व
साधारणतया मैं हिंदू समाज में व्याप्त जातिगत भेद-भाव या छुआ-छूत की भावनाओं पर कोई टिप्पणी नहीं करता।क्योंकि इस प्रकार की चर्चाओं की परिणति प्रायः “तू-तू,मैं मैं” में ही होती है।भारतीय समाज में जातिगत ग्रन्थियाँ इतने गहरे तक पैठी हैं कि इस पर सार्थक और तार्किक विमर्श की संभावना न्यूनतम होती है। इस प्रकार की चर्चाओं में प्रायः पढ़ा-लिखा समाज भी जातीय पूर्वाग्रहों और पारंपरिक धारणाओं से मुक्त नहीं रह पाता।