पत्रकारिता में शुचिता, नैतिकता और आदर्श के पक्षधर थे दीनदयाल उपाध्याय
दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के रूप में उनका नाम प्रकाशित नहीं हुआ।
‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध’
जो इस मौके पर चुप हैं, समय उनके भी अपराध लिख रहा है। अगर आज अर्नब गोस्वामी पर मौन रहे तो कल आपकी और परसों हमारी बारी भी आ सकती है।
नारद जयंती विशेष : प्रारंभ से पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा हैं देवर्षि नारद
पत्रकारिता क्षेत्र के भारतीय मानस ने तो देवर्षि नारद को सहज स्वीकार कर ही लिया है। जिन्हें देवर्षि नारद के नाम से चिढ़ होती है, उनकी मानसिक अवस्था के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है। उनका आचरण देखकर तो यही प्रतीत होता है कि भारतीय ज्ञान-परंपरा में उनकी आस्था नहीं है। अब तो प्रत्येक वर्ष देवर्षि नारद जयंती के अवसर पर देशभर में अनेक जगह महत्वपूर्ण आयोजन होते हैं। नारदीय पत्रकारिता का स्मरण किया जाता है।
‘पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग है जिसके लिए देश की सब समस्याएँ 2014 के बाद ही पैदा हुई हैं’
किसी भी पत्रकार को अपनी निष्पक्षता या महानता के ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता नहीं होती, यह निर्धारण समाज स्वतः ही कर लेता है। इतना तय है कि पूर्वाग्रह से पीड़ित व्यक्ति कभी निष्पक्ष नहीं हो सकता। वह भी एक प्रकार के एजेंडे पर ही चलता है। जिसके प्रति उंसकी कुंठा होती है, उसमें भूल कर भी उसे कोई अच्छाई दिखाई नहीं देती। ऐसे लोग जब किसी न्यूज़ चैनल से
ये तथ्य बताते हैं कि एनडीटीवी कौन-सी ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता करता है!
एनडीटीवी के सर्वेसर्वा प्रणव रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय पर एक पुराने मामले में सीबीआई की छापेमारी को जिस तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संकट के रूप में कुप्रचारित किया जा रहा है, वो अपने आप में बेहद विचित्र है। ऐसा करने में सबसे आगे खुद ये चैनल और इसके स्वनामधन्य एंकर रवीश कुमार हैं।
सेकुलर पत्रकारों की पाखंडी पत्रकारिता का खोखला चरित्र
बिहार विधानसभा चुनाव के बाद थोड़े दिन शांति रही। लगा कि अब “असहिष्णुता” खत्म हो गई है। लेकिन उत्तर प्रदेश चुनाव नजदीक आते ही एक बार फिर “छदम सेकुलरवादी” सक्रिय हो गए हैं और देश में फिर से असहिष्णुता का हौवा खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में फिर से “लोकतंत्र खतरे में है… आपातकाल से भी बुरी स्थिति हो गई है