दो घटनाएं जो देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों के चरित्र व चिंतन की कलई खोलती हैं
बीते दिनों ऐसी दो घटनाएँ हुईं जो इस देश के कथित बुद्धिजीवियों की सच्चाई बताने के लिए पर्याप्त हैं। इन घटनाओं के आलोक में इन बुद्धिजीवियों के चरित्र एवं चिंतन का यथार्थ मूल्यांकन किया जा सकता है। पहली घटना बीते कई सप्ताह से देश के शरीर पर फोड़ों की तरह जगह-जगह उभर आई है, जो अब नासूर बनती जा रही है।
वामपंथी मानवाधिकारवादियों के मुँह से नक्सलियों के खिलाफ एक शब्द भी क्यों नहीं सुनाई दे रहा ?
वाम विचारधारा के तथाकथित मानवाधिकारवादी आम नागरिकों से लेकर सुरक्षा बलों के मानवाधिकारों के हनन पर तो खामोश हो जाते हैं; पर अपराधियों, नक्सलियों, पत्थरबाजों के मानवाधिकारों को लेकर बहुत जोर-शोर से आवाज बुलंद करते हैं। अरुंधति राय से लेकर आनंद पटवर्धन समेत दूसरे भांति-भांति के स्वघोषित बुद्धिजीवियों और स्वघोषित मानवाधिकार आंदोलनकारियों के लिए