सबसे बड़ी बात यह है कि बिहार में सरकारी कर्मचारियों की कुल संख्या 3.10 लाख है, ऐसे में तेजस्वी यादव पहले हस्ताक्षर से दस लाख सरकारी नौकरियां कहां से देंगे ? इतनी बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियों के लिए वेतन-भत्ते कहां से लाएंगे ?
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में चुनाव जीतने के लिए सभी राजनीतिक दलों में जोर आजमाइश जारी है। जनता को लुभाने के लिए भांति-भांति के चुनावी वादे किए जा रहे हैं। चुनावी वादे लोकतंत्र की पहचान होते हैं लेकिन सबसे विडंबनापूर्ण चुनावी वादे राष्ट्रीय जनता दल के हैं। नीतीश कुमार के शासनकाल को जंगलराज करार देते हुए राष्ट्रीय जनता दल के नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव चुनावी वादों की बरसात कर रहे हैं।
पहली कैबिनेट के पहले हस्ताक्षर से दस लाख युवाओं को सरकारी नौकरी देने, शिक्षा पर कुल बजट का 22 प्रतिशत खर्च करने और किसानों की कर्जमाफी जैसे लोकलुभावन वादे करने वाले राजद नेता अतीत को पूरी तरह भुला बैठे हैं।
आज विकास की बहार लाने के चुनावी वादे करने वाले तेजस्वी यादव को यह बताना चाहिए कि राजद के शासन काल में बिहार बिजली, सड़क, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के वंचित क्यों रहा ? यहां तक कि केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने बिहार के लिए राशन व चीनी जारी करने से इंकार कर दिया था क्योंकि बिहार में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी थी।
सबसे बड़ी बात यह है कि बिहार में सरकारी कर्मचारियों की कुल संख्या 3.10 लाख है, ऐसे में तेजस्वी यादव पहले हस्ताक्षर से दस लाख सरकारी नौकरियां कहां से देंगे ? इतनी बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियों के लिए वेतन-भत्ते कहां से लाएंगे ?
1990 से 2005 तक बिहार में राष्ट्रीय जनता दल किा एकछत्र राज्य था। इस दौरान लालू प्रसाद यादव और उनके जेल जाने पर उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान थीं, लेकिन वास्तविक सत्ता तीन एस अर्थात साधू यादव, सुभाष यादव और शहाबुद्दीन के हाथों में थी।
इन 15 वर्षों में बिहार में एक प्रकार से जंगलराज राज था। अपराध, हत्या, फिरौती, हफ्ता वसूली, रंगदारी चरम पर थी। इस दौरान आम आदमी ही नहीं आइएएस अफसरों की पत्नियां तक सुरक्षित नहीं थीं। अपहरण और फिरौती उद्योग को सत्ता पक्ष का भरपूर समर्थन मिला हुआ था। सत्ता पक्ष से जुड़े अपराधी अपहरण करके रिश्तेदारों को फोन कर पैसे लेते थे। पुलिस या राज्य की कोई भूमिका नहीं रह गई थी।
लूट के लिए हत्या आम बात थी। पुलिस थानों की जर्जर हालत और गिरते मनोबल से अपराधियों में डर बिल्कुल खत्म हो चुका था। अराजकता का यह आलम था कि सूरज ढलने का मतलब होता था सब कुछ बंद हो जाना। सरकार चलाने वालों की निगरानी में ही दिन-दहाड़े डकैती-हत्याएं होती थीं और रंगदारी वसूली जाती थी।
इस दौरान लोग नई गाड़ी नहीं खरीदते थे ताकि राजद के कार्यकर्ताओं को उनकी कमाई का पता न चल जाए। स्थिति इतनी खराब थी कि एक शहर से दूसरे शहर में जाते समय ये पक्का नहीं रहता था कि उसी शहर पहुंचेंगे या बीच में अपहृत हो जाएंगे।
राजद का शासन काल 15 वर्षों तक जारी रहा तो इसमें राजनीतिक फार्मूले एमवाई (मुस्लिम-यादव) के साथ-साथ चुनावी हिंसा, बूथ लूटने, मतपत्रों की मनमानी छपाई जैसे भ्रष्ट तौर-तरीकों का भी योगदान रहा। चुनावी हिंसा के आंकड़े राजद शासन की अराजकता की असलियत उजागर करते हैं।
1990 से 2004 बीच हुए लोकसभा, विधानसभा एवं पंचायत के कुल नौ चुनावों में 641 लोग मारे गए। राजद के दजनों मंत्री व विधायकों पर बूथ लूटने, हिंसा और मतदान में बाधा डालने के मुकदमे दर्ज किए गए। 2004 में छपरा से लालू प्रसाद चुनाव लड़ रहे थे, जहां चुनाव रद्द करना पड़ा था। भला हो केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों की देखरेख और तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की सख्ती का जिन्होंने निष्पक्ष चुनाव कराकर बिहार को चुनावी हिंसा और लालू-राबड़ी के कुशासन से मुक्ति दिलाई।
समग्रत: भले ही तेजस्वी यादव सोचते हों कि बिहार की जनता विशेषकर नई पीढ़ी राजद काल के जंगलराज को भुला चुकी होगी लेकिन जमीनी सच्चाई इसके विपरीत है। ऐसे में बिहार की जनता तेजस्वी यादव के लोकलुभावन चुनावी वादों पर शायद ही विश्वास करे।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)