वामपंथ: लाल-आतंक के राष्ट्र-विरोधी आचरण से लोकतंत्र को खतरा

वामपंथ की विचारधारा जिहादी मानसिकता और विचारधारा से भी अधिक घातक है। वामपंथी कुतर्क और अनर्गल प्रलाप के स्वयंभू ठेकेदार हैं। रक्तरंजित क्रांति के नाम पर इसने जितना खून बहाया है, मानवता का जितना गला घोंटा है, उतना शायद ही किसी अन्य विचारधारा ने किया हो। जिन-जिन देशों में वामपंथी शासन है, वहाँ गरीबों-मज़लूमों, सत्यान्वेषियों-विरोधियों आदि की आवाज़ को किस क़दर दबाया-कुचला गया है, उसके स्मरण मात्र से ही सिहरन पैदा होती है। यह भी शोध का विषय है कि रूस और चीन पोषित इस विचारधारा ने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत इसके प्रचार-प्रसार के लिए कितने घिनौने हथकंडे अपनाए ? वामपंथी शासन वाले देशों में न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकार भी जनसामान्य को नहीं दिए गए, परंतु दूसरे देशों में इनके पिछलग्गू लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर जनता को भ्रमित करने की कुचेष्टा करते रहते हैं।

नेहरु के रूप में भारत की जड़ों और संस्कारों से कटा-छँटा व्यक्ति, जो कि दुर्भाग्य से ताकतवर भी था, वामपंथियों को  अपने विचारों के वाहक के रूप में सर्वाधिक उपयुक्त लगा और उनकी इसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर इन्होंने सभी अकादमिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक या अन्य प्रमुख संस्थाओं के शीर्ष पदों पर अपने लोगों को बिठाना शुरू कर दिया, जो उनकी बेटी ‘इंदिरा’ के कार्यकाल तक बदस्तूर ज़ारी रहा। यह अकारण नहीं है कि ज़्यादातर वामपंथी नेहरू और इंदिरा की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते नज़र आते हैं। और तो और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो इंदिरा द्वारा देश पर आपातकाल थोपे जाने का समर्थन तक किया था, वे तत्कालीन सरकार के साझीदार थे।  शोध का विषय तो यह भी है कि दो प्रखर राष्ट्रवादी नेताओं सुभाषचन्द्र बोस और लाल बहादुर शास्त्री की मौत वामपंथी विचारधारा को पोषण देने वाले राष्ट्र रूस में ही क्यों हुई ?

भारत में तो वामपंथियों का इतिहास वामपंथ के उद्भव-काल से ही देश और संस्कृति विरोधी रहा है, क्योंकि भारत की सनातन समन्वयवादी जीवन-दृष्टि और दर्शन इसके फलने-फूलने के लिए अनुकूल नहीं है। भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन में परस्पर विरोधी विचारों में समन्वय और संतुलन साधने की अद्भुत शक्ति रही है। इसलिए इन्हें लगा कि भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन के प्रभावी चलन के बीच इनकी दाल नहीं गलने वाली, इसलिए इन्होंने बड़े नियोजित ढंग से भारतीय संस्कृति और सनातन जीवन-मूल्यों पर हमले शुरू किए। जब तक राष्ट्रीय राजनीति में, नेतृत्व गाँधी-सुभाष जैसे राष्ट्रवादियों के हाथ रहा, इनकी एक न चली और न ही जनसामान्य ने इन्हें समर्थन दिया। गाँधी धर्म से प्रेरणा ग्रहण करते थे और ये वामपंथी कहने को तो धर्म को अफीम की गोली मानते रहे, पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण में कभी पीछे नहीं रहे। यहाँ तक कि राष्ट्र की इनकी अवधारणा और जिन्ना व मुस्लिम लीग की अवधारणा में कोई ख़ास फ़र्क नहीं रहा, ये भी द्विराष्ट्रवाद का समर्थन करते रहे और कालांतर में तो इन्होंने बहुराष्ट्रवाद का समर्थन करते हुए इस सोच को बल दिया कि भारत अनेक संस्कृति और राष्ट्रों का अस्वाभाविक गठजोड़ भर है। इनकी राष्ट्र-विरोधी सोच के कारण ही नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे प्रखर देशभक्त राष्ट्रनेताओं ने इन्हें कभी महत्व नहीं दिया,  इनकी कुत्सित मानसिकता का सबसे बड़ा उदाहरण तो इनका वह घृणित वक्तव्य है, जिसमें इन्होंने नेताजी को ‘तोजो का कुत्ता’ कहकर संबोधित किया था। जब यह मुल्क आज़ाद हुआ,तब देश में इनका प्रभाव नाम-मात्र का भी नहीं था। आज जबरन इन्होंने शहीदे आज़म भगत सिंह को अपना आइकन बनाने का अभियान छेड़ रखा है। सच तो यह है कि इन्हें भारत में अपना पाँव जमाने का मौका नेहरू के शासन-काल में मिला। नेहरू का वामपंथी झुकाव किसी से छुपा नहीं है। वे दुर्घटनावश स्वयं को हिंदू यानी भारतीय मानते थे। नेहरू की जड़ें भारत से कम और विदेशों से अधिक जुड़ी रहीं, उनकी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा भी पश्चिमी परिवेश में अधिक हुई। भारत की जड़ों और संस्कारों से कटा-छँटा व्यक्ति, जो कि दुर्भाग्य से ताकतवर भी था, इन्हें अपने विचारों के वाहक के रूप में सर्वाधिक उपयुक्त लगा और नेहरु की इसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर इन्होंने सभी अकादमिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक या अन्य प्रमुख संस्थाओं के शीर्ष पदों पर अपने लोगों को बिठाना शुरू कर दिया, जो उनकी बेटी ‘इंदिरा’ के कार्यकाल तक बदस्तूर ज़ारी रहा। यह अकारण नहीं है कि ज़्यादातर वामपंथी नेहरू और इंदिरा की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते नज़र आते हैं। और तो और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो इंदिरा द्वारा देश पर आपातकाल थोपे जाने का समर्थन तक किया था, वे तत्कालीन सरकार के साझीदार थे। यह भी शोध का विषय है कि दो प्रखर राष्ट्रवादी नेताओं सुभाषचन्द्र बोस और लाल बहादुर शास्त्री की मौत इनकी विचारधारा को पोषण देने वाले राष्ट्र रूस में ही क्यों हुई ?

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साभार: deshbandhu

भारत के विकास की गाथा जब भी लिखी जाएगी उसमें सबसे बड़े अवरोधक के रूप में वामपंथी आंदोलनकारियों का नाम सुस्पष्ट अक्षरों में लिखा जाएगा। बंगाल को इन्होंने एक विकसित राज्य से बीमारू राज्य में तब्दील कर दिया, केरल को अपने राजनीतिक विरोधियों की हत्या का अखाड़ा बनाकर रख दिया, त्रिपुरा को धर्मांतरण की प्रयोगशाला बनाने में इन्होंने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। आप सर्वेक्षण और शोध करके देख लीजिए, इन्होंने कभी पर्यावरण तो कभी मानवाधिकार के नाम पर विकास के कार्यक्रम में केवल अड़ंगे  लगाए हैं और आम करदाताओं के पैसे से चलने वाली समयबद्ध योजनाओं को अधर में लटकाया है या उसकी प्रस्तावित लागत में वृद्धि करवाई है। इनके मजदूर संगठनों ने तमाम  फैक्ट्रियों पर ताले जड़वा दिए, रातों-रात लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर दिया। भोले-भाले मासूम आदिवासियों, वनवासियों और वंचितों को बरगलाकर इन्होंने उनके हाथों में बंदूकें थमा उगाही और फ़िरौती की दुकानें खोल लीं।अपने प्रभाव-क्षेत्र के इलाकों को स्कूल, शिक्षा, चिकित्सा, सेवा के विभिन्न  योजनाओं और प्रकल्पों के लाभ से वंचित कर दिया। यह भी देखिये कि ये अपना शिकार किसे बनाते हैं, साधारण पुलिसवाले को, सेना में नौकरी कर देश की रक्षा करने और अपनी आजीविका चलाने वाले कर्तव्यपरायण जवानों को तथा शिक्षकों को। स्पष्ट है कि जो भी राष्ट्र की सुरक्षा, समृद्धि और विकास की दिशा में कर्मठता और सच्ची निष्ठा के साथ कार्यरत है, वो इनके निशाने पर सबसे पहले आता है।
कांग्रेसी शासन के दौरान शिक्षा और पाठ्यक्रम में इन्होंने ऐसे-ऐसे वैचारिक प्रयोग किए कि आज वह कचरे के ढेर में तब्दील हो गया है। आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अपनी ही परंपराओं, जीवन-मूल्यों, आदर्शों और मान-बिंदुओं से बुरी तरह कटा है, उदासीन है, कुंठित है। वह अपने ही देश और मान्यताओं के प्रति विद्रोही हो चुका है। इन्होंने उन्हें ऐसे विदेशी रंग में रंग दिया है कि वे आक्रमणकारियों के प्रति गौरव-बोध और अपने प्रति हीनता-ग्रन्थि से भर उठे हैं। गौर करें तो भारत माता की जय बोलने पर इन्हें आपत्ति है; वंदे मातरम् बोलने से इनकी धर्मनिरपेक्षता ख़तरे में पड़ जाती है; गेरुआ तो इन्हें ढोंगी-बलात्कारी ही नज़र आता है; शिष्टाचार और विनम्रता इनके लिए ओढ़ा हुआ व्यवहार है; छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, वीर सावरकर जैसे महापुरुष इनके लिए अस्पृश्य हैं; राम-कृष्ण मिथक हैं और पूजा-प्रार्थना बाह्याडंबर है; देशभक्ति उन्माद है और सांस्कृतिक अखण्डता कपोल-कल्पना है; वेद गड़ेरियों द्वारा गाया जाने वाला गीत है और पुराण गल्प हैं एवं उपनिषद जटिल दर्शन भर हैं; परंपराएँ रूढ़ियाँ हैं; परिवार शोषण का अड्डा है; सभी धनी अपराधी हैं; भारतीय शौर्य गाथाएँ चारणों और भाटों की गायीं विरुदावलियाँ हैं; यहाँ सदियों से रचा-बसा बहुसंख्यक समाज असली आक्रांता है; देश भिन्न-भिन्न अस्मिताओं का गठजोड़ है; गरीबी भी इनके यहाँ जातियों के साँचे में ढली है; हिंदू दर्शन, कला, स्थापत्य इनके लिए कोई मायने नहीं रखते, उन्हें ये पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं, पर इस्लाम जरूर इनके अमन और भाईचारे का सन्देश देना वाला मजहब है; हिंदू स्त्रियाँ इन्हें भयानक शोषण की शिकार नज़र आती हैं, पर मुस्लिम स्त्रियों के भीषण कष्ट और शोषण पर ये अंधे हो जाते हैं; इनके लिए प्रगतिशीलता मतलब अपने शास्त्रों-पुरखों को गरियाना है आदि-इत्यादि जो-जो चिंतन और मान्यताएँ देश को बाँट और कमज़ोर कर सकती हैं, ये उसे ही प्रचारित-प्रसारित करते हैं। इस तरह के भ्रमजाल बुनने और झूठ फ़ैलाने में इन्हें महारत हासिल है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि राष्ट्र के गौरव, यश और समृद्धि का प्रचार-प्रसार करने वाली बातें इन्हें स्वीकार्य नहीं हैं। राष्ट्र-विरोध इनकी विचारधारा के मूल में निहित तत्व है और इसको पूरा करने के लिए तरह-तरह के प्रपंचों और भ्रमजालों का सृजन करना ही इन वामपंथियों का परमलक्ष्य है। ये आजतक यही करते आए हैं और अब भी कर रहे हैं। लेकिन, देश इनकी कुत्सित चालों को अच्छे से समझता है और इसीलिए इनको लगातार खारिज करता रहा है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)