तमाम आरोप एवं अपमान का दंश झेलकर भी स्वस्थ परंपरा एवं अप्रतिम उदारता का परिचय देते हुए उप सभापति हरिवंश ने संसद-परिसर में धरने पर बैठे कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और माकपा के निलंबित सांसदों से भेंट कर उन्हें चाय पिलाने की पेशकश की। त्वरित प्रतिक्रिया एवं तल्ख़ टीका-टिप्पणियों वाले इस दौर में सभापति का यह आचरण न केवल प्रशंसनीय है, अपितु अनुकरणीय एवं वरेण्य भी है।
लोकतंत्र में सतत विमर्श अनवरत जारी रहना चाहिए। विरोध और असहमतियों के मध्य संवाद और सहमति की पहल एवं प्रयास भी सतत चलते रहना चाहिए। तमाम आरोप एवं अपमान का दंश झेलकर भी स्वस्थ परंपरा एवं अप्रतिम उदारता का परिचय देते हुए उप सभापति हरिवंश ने संसद-परिसर में धरने पर बैठे कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और माकपा के निलंबित सांसदों से भेंट कर उन्हें चाय पिलाने की पेशकश की।
त्वरित प्रतिक्रिया एवं तल्ख़ टीका-टिप्पणियों वाले इस दौर में उपसभापति हरिवंश का यह आचरण न केवल प्रशंसनीय है, अपितु अनुकरणीय एवं वरेण्य भी है। राजनीतिक जीवन में ऐसा दुर्लभ एवं आदर्श उदाहरण प्रायः कम ही देखने को मिलता है। यह तस्वीर दिल को सुकून और सुख प्रदान करने वाली है। राष्ट्रपति एवं उप राष्ट्रपति को लिखा उनका पत्र भावुक करता है। वह भारत की महान संसदीय परंपरा की सुंदर सुधि एवं स्मृति दिलाता है।
संसदीय परंपरा एवं प्रक्रिया में स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों, मर्यादाओं एवं परंपराओं के निर्वहन के प्रति जन प्रतिनिधियों को विशेष सतर्क एवं सजग रहना पड़ता है। विषम-से-विषम परिस्थितियों में भी उन्हें नियमसम्मत आचरण एवं सार्वजनिक अनुशासन बनाए रखना पड़ता है। इसी में संसद एवं सांसदों की गरिमा एवं प्रतिष्ठा निहित होती है।
इस देश में ऐसे सांसदों की कमी नहीं रही जिन्होंने अपने व्यवहार एवं विद्वत्ता से संसद की गरिमा बढ़ाई है और आदर्श संसदीय मानक एवं प्रतिमान स्थापित किए हैं। परंतु कृषि-विधेयक पर चल रही परिचर्चा एवं उसके पारित होने की प्रक्रिया के दौरान कतिपय सांसदों ने गत रविवार को जिस प्रकार का हल्ला-हंगामा मचाया उससे संसदीय मर्यादा तार-तार हुई। ऐसे हुल्लड़ को कदाचित ‘सड़क’ भी स्वीकार नहीं करे, संसद का उच्च सदन तो एक नीति-निर्धारक, नियामक संस्था है।
उन्होंने न केवल नियम-पुस्तिका फाड़ी, मेजों पर चढ़ अश्लील एवं आपत्तिजनक नारे उछाले, बल्कि माइक तोड़ने, मार्शल से धक्का-मुक्की करने की कोशिशें भी कीं। मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए वे पीठासीन अधिकारी के साथ हाथा-पाई पर उतारू हो आए और उन्हें आपत्तिजनक शब्दों से संबोधित किया। उपसभापति ने उनसे सदन की मर्यादा बनाए रखने व अपने आसन से अपनी बात कहने की बार-बार अपील की।
पर इस अपील को मानने के बजाय उन्होंने कोरोना-काल में समस्त देशवासियों के लिए मान्य, सुरक्षित एवं अनुकरणीय सोशल डिस्टेंसिंग की भी खुलकर धज्जियाँ उड़ाईं। इतना ही नहीं, बल्कि उसके अगले दिन सभापति द्वारा तत्काल प्रभाव से सदन के बाहर किए जाने के बावजूद ढिठाई के साथ उनका वहीं बैठे रहना दुर्भाग्यपूर्ण एवं निंदनीय है। और हद तो तब हो गई जब निलंबित सदस्यगण वहीं नारा लगाते हुए संसद-परिसर में ही धरने पर बैठ गए।
लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधियों को पूरा अधिकार है कि वे जनता के हितों एवं सरोकारों को पुरज़ोर स्वर दें, हर मंच और मौके पर उनके सवालों को मुखरित करें। उन्हें अपने आसन से ही मत-विभाजन की माँग करनी चाहिए थी।
इन विधेयकों को प्रवर-समिति के पास भेजे जाने को लेकर भी उन्हें लोकतांत्रिक पद्धत्ति से आवाज़ उठानी चाहिए थी। मान्य एवं स्वीकृत प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए था। आवश्यकता पड़ने पर उन्हें इस मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाने से भी कोई गुरेज़ नहीं करना चाहिए। परंतु उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए था कि मर्यादाविहीन आचरण समाज को अराजक एवं उच्छृंखल बनाता है।
आज सार्वजनिक जीवन में संतुलित व्यवहार एवं शिष्टाचार के पाठ को सीखने-पढ़ने-जीने की अधिक आवश्यकता है, अराजकता का व्याकरण व शास्त्र रचने-गढ़ने की कम। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि कैमरे पर अधिक-से-अधिक दिखने और सुर्खियाँ बटोरने की अंधी-अनियंत्रित स्पृहा मुख्य मुद्दे को नेपथ्य में धकेल अनर्गल-अनावश्यक मुद्दों को केंद्र में ले आती है। सनद रहे कि लोकतंत्र के प्रहरी एवं पथ-प्रदर्शक ही यदि ऐसा अराजक आचरण करेंगें तो सर्वसाधारण जनता से क्या अपेक्षा की जा सकती है?
इसलिए इन सभी निलंबित सांसदों को उप सभापति के पत्र से उद्धृत इस कथन के आलोक में एक बार अपना-अपना ईमानदार आत्ममूल्यांकन एवं विश्लेषण करना चाहिए- ”…..मेरे जैसे मामूली गाँव और सामान्य पृष्ठभूमि से निकले इंसान आएँगें और जाएँगें। समय और काल के संदर्भ में उनकी न कोई स्मृति होगी, न गणना। पर लोकतंत्र का यह मंदिर ‘सदन’ हमेशा समाज और देश के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा। अँधेरे में रोशनी दिखाने वाला लाइट हॉउस बनकर संस्थाएँ ही देश और समाज की नियति तय करती हैं…….।”
एक ऐसे काल में जबकि कोरोना महामारी एवं उससे उत्पन्न संकटों-चुनौतियों से जूझने के लिए देशवासियों को सभी दलों एवं नेताओं से नीतिसंगत आचरण एवं परिश्रम-पुरुषार्थ से युक्त दूरदर्शी प्रयासों एवं योजनाओं की महती अपेक्षा-आवश्यकता है, विपक्ष द्वारा ऐसा अनावश्यक गतिरोध, व्यवधान एवं व्यतिक्रम सर्वथा अनुचित है। सांसदों की सार्थक सक्रियता एवं दूरदर्शिता ही समाज एवं राष्ट्र को सदी के सबसे बड़े संकट से उबार सकती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)