दूरगामी राष्ट्रीय हितों की अनदेखी के साथ-साथ नेहरू जबर्दस्त मुस्लिमपरस्त भी थे। हैदराबाद व जूनागढ़ के विलय के मसले पर नेहरू ने इसलिए नरमी दिखाई, क्योंकि इन रियासतों में बड़ी संख्या में मुसलमान रहते थे। 1948 में हैदराबाद राज्य में निजाम की सेना (रजाकरों) ने सत्याग्रहियों के खिलाफ जो जुल्म ढाया इतिहास में उसकी बहुत कम मिसाल मिलेगी। उस समय हैदराबाद में एक भी हिंदू महिला नहीं बची थी, जिसके साथ बलात्कार न हुआ हो। लेकिन, नेहरू चुपचाप देखते रहे, क्योंकि इसमें उनका राजनीतिक हित जुड़ा था।
हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कश्मीर समस्या के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया। देखा जाए तो कश्मीर ही नहीं, देश में जितनी भी समस्याएं हैं उनमें से अधिकांश के लिए नेहरू परिवार की सत्ता लोभी राजनीति जिम्मेदार है। अपने को उदार साबित करने और विश्व में शांतिरक्षक का तमगा पाने के लिए नेहरू ने कई ऐसी भूलें की हैं, जिनका खामियाजा देश को सैकड़ों वर्षों तक भुगतना पड़ेगा। इसका ज्वलंत उदाहरण है ग्वादर बंदरगाह।
1950 के दशक में ओमान के शासक ने ग्वादर बंदरगाह का मालिकाना हक भारत को देने की पेशकश की तो नेहरू ने अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए बंदरगाह का स्वामित्व लेने से इनकार कर दिया। इसके बाद 1958 में ओमान ने ग्वादर बंदरगाह को पाकिस्तान को सौंपा। यदि उस समय नेहरू ग्वादर के दूरगामी महत्व को समझकर उसका विलय भारत में कर लेते तो न सिर्फ मध्य एशिया में पहुंच के लिए भारत के पास एक अहम बंदरगाह होता बल्कि चीन ग्वादर तक पहुंचकर हमें घुड़की न देता।
इसी प्रकार की अदूरदर्शिता का परिचय नेहरू ने अक्साई चिन मामले में दिया। नेहरू ने चीन की ओर से मंडराते खतरे की घोर अनदेखी की। संसद के भीतर और बाहर विपक्षी सदस्यों विशेषकर राम मनोहर लोहिया की चेतावनियों के बावजूद चीन की आक्रामक नीतियों के प्रति नेहरू आंख मूंदे रहे।
चीन द्वारा अक्साई चिन पर कब्जा कर लेने के बाद संसद में नेहरू की विदेश नीति पर सवाल उठने लगे तब उन्होंने बेहद बचकाना जवाब देते हुए कहा “अक्साई चिन का देश के लिए कोई महत्व नहीं है क्योंकि वहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता।” इस उत्तर पर आक्रोशित होते हुए संसद सदस्य महावीर सिंह त्यागी ने अपने गंजे सिर को आगे करके पूछा मेरे सिर पर एक भी बाल नहीं उगे हैं, क्यों न इस काट कर अलग कर दिया जाए। इससे प्रमाणित होता है कि राष्ट्रीय हितों के मामले में बच्चों के चाचा नेहरू बच्चों की तरह ही अदूरदर्शी थे।
नेहरू ने इसी प्रकार की अदूरदर्शिता का परिचय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के मामले में दिया था। 1950 के दशक में मुफ्त में मिल रही इस स्थायी सदस्यता को नेहरू ने सदाशयता दिखाते हुए चीन को दे दिया था। यदि सुरक्षा परिषद में तब भारत को स्थायी सदस्यता मिल गई होती तो आज बात-बात पर चीन हमें आंख न दिखाता और न हमें स्थायी सदस्यता के लिए दुनिया भर में हाथ-पांव मारना पड़ता।
इसी प्रकार पाक अधिकृत कश्मीर की समस्या और कश्मीर में अलगाववाद-आतंकवाद के बीज वपन में एक बड़ी भूमिका नेहरू की ऐतिहासिक भूलों की रही हैं, जिन्हें आज पूरा देश भुगत रहा है। गौरतलब है कि सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा बनाए रखने के लिए भारत को हर रोज 6.4 करोड़ रूपये खर्च करने पड़ रहे हैं।
1950 के दशक में नेहरू ने भारत का कोको द्वीप समूह बर्मा (अब म्यांमार) को उपहार में दे दिया। यह द्वीप समूह अंडमान द्वीप समूह के उत्तर में है और कलकत्ता से इसकी दूरी 900 किलोमीटर है। बाद में इस द्वीप समूह को म्यांमार ने चीन का उपहार में दे दिया और आज चीन इस द्वीप समूह को भारतीय गतिविधियों पर निगरानी रखने का अड्डा बना रखा है।
दूरगामी राष्ट्रीय हितों की अनदेखी के साथ-साथ नेहरू जबर्दस्त मुस्लिमपरस्त भी थे। हैदराबाद व जूनागढ़ के विलय के मसले पर नेहरू ने इसलिए नरमी दिखाई, क्योंकि इन रियासतों में बड़ी संख्या में मुसलमान रहते थे। 1948 में हैदराबाद राज्य में निजाम की सेना (रजाकरों) ने सत्याग्रहियों के खिलाफ जो जुल्म ढाया इतिहास में उसकी बहुत कम मिसाल मिलेगी। उस समय हैदराबाद में एक भी हिंदू महिला नहीं बची थी, जिसके साथ बलात्कार न हुआ हो। लेकिन, नेहरू चुपचाप देखते रहे, क्योंकि इसमें उनका राजनीतिक हित जुड़ा था।
नेहरू की मुस्लिमपरस्ती को आगे बढ़ाने में उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में लाखों हिंदुओं के कत्लेआम और महिलाओं के चीरहरण की खबर को इंदिरा गांधी ने ब्लैक आउट करा दिया था, ताकि जनसंघ उसका राजनीतिक फायदा न उठा ले। भारतीयों को इस नरंसहार की खबर महीनों बाद विदेशी मीडिया से मिली थी।
कांग्रेस की एक और देन है, दंगों की राजनीति। सत्ता हासिल करने और उसे बनाए रखने के लिए कांग्रेस दंगे कराती और अपने को मुसलमानों की रहनुमा साबित कर उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती। यहां गुजरात के दंगों और नरंसहार का उल्लेख न किया जाए तो बात अधूरी रह जाएगी। आजादी के बाद से ही गुजरात में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। अहमदाबाद की सड़कें तो अक्सर बेगुनाहों के खून से लाल होती रहती थीं लेकिन दंगा पीड़ितों को कभी इंसाफ नहीं मिला। हां, इन दंगों के बल पर राजनीतिक रोटी सेंक कर कांग्रेस ने लंबे समय तक राज जरूर किया।
इन दंगों ने गुजरात के बहुसंख्यक हिंदुओं में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी जिसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस की जमीन हिलने लगी और अंतत: उसके हाथ से राज्य की सत्ता छिन गई। अब लोगों को दंगों की राजनीति करने वाली कांग्रेस की असलियत समझ में आ गई थी। ऐसे में कांग्रेस ने 2002 के गुजरात दंगों का शिगूफा छेड़ कर मुसलमानों का रहनुमा बनने की रणनीति अपनाई।
यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि यदि 2002 में गुजरात में कांग्रेस की सरकार होती तो कांग्रेस इस दंगें को भी उसी प्रकार भुला देती जिस प्रकार उसने हाशिमपुरा, भागलपुर जैसे हजारों दंगों को भुला दिया। उपरोक्त विश्लेषण से यह प्रमाणित हो जाता है कि कश्मीर समस्या के लिए ही नहीं बल्कि आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, जाति-धर्म व दंगों की राजनीति जैसी अनगिनत समस्याओं के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)