भारतीय राजनीति में परिवारवाद थोपने का श्रेय नेहरू-गांधी परिवार को जाता है!

भारतीय राजनीति पर परिवारवाद थोपने का श्रेय नेहरू-गांधी परिवार को जाता है। सबसे बड़ी समस्‍या यह हुई कि कांग्रेस में जिस परिवारवाद का बीज गांधी परिवार ने बोया था, वह बीज कांग्रेस का जगह लेनी वाली तमाम क्षेत्रीय पार्टियों में वटवृक्ष बन गया। इस प्रकार परिवारवाद ने योग्‍यता और आंतरिक लोकतंत्र का अपहरण कर लिया। स्‍पष्‍ट है कि पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाने की जो शुरूआत नेहरू-गांधी परिवार ने की, वह आज भी जारी है।

अपने बयानों को लेकर सुर्खियां बटोरने वाले कांग्रेस नेता शशि थरूर ने इस बार नेहरू-गांधी परिवार की चाटुकारिता के बहाने भारतीय राजनीति में परिवारवाद पर एक नई बहस को जन्‍म दे दिया। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की जयंती पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान शशि थरूर ने कहा कि आज अगर एक चायवाला देश का प्रधानमंत्री है, तो इसका श्रेय नेहरू जी द्वारा संवैधानिक संस्‍थानों को मजबूत बनाने को जाता है।  

इंदिरा गांधी और पं जवाहर लाल नेहरू (साभार : इंडिया फैक्ट्स)

यहां सबसे अहम सवाल यह है कि यदि नेहरू के सांस्‍थानिक उपायों से एक चायवाला प्रधानमंत्री बन गया तो 1978 में इंदिरा कांग्रेस के गठन के बाद से एक ही परिवार के चार सदस्‍य पार्टी का नेतृत्‍व क्‍यों कर रहे हैं? यहां नेहरू के लोकतांत्रिक उपाय फेल क्‍यों हो गए? इस दौरान पीवी नरसिंह राव और सीता राम केसरी कुछ समय के लिए भले ही कांग्रेस अध्‍यक्ष के पद तक पहुंचे लेकिन परिवारवादी राजनीति के कारण उन्‍हें बेआबरू होकर तख्‍त छोड़ना पड़ा।

गौरतलब है कि कांग्रेसी चाटुकारों ने नेहरू-गांधी परिवार से बाहर होने के कारण ही पांच साल तक देश के प्रधानमंत्री रहने वाले नरसिंह राव का अंतिम संस्‍कार दिल्‍ली में नहीं करने देने के लिए एड़ी-चोटी को जोर लगा दिया। इसी तरह 1996 में सोनिया गांधी के इंकार के बाद सीता राम केसरी को कांग्रेस अध्‍यक्ष बनाया गया। जब उन्‍होंने पार्टी में नेहरू-गांधी परिवार के हस्‍तक्षेप को रोकने की कोशिश की तो उन्‍हें किनारे लगा दिया गया।

यहां तक कि 1998 के आम चुनाव में उन्हें चुनाव प्रचार से दूर रखा गया। इस चुनाव में कांग्रेस को 142 सीट मिली और उसके कई दिग्‍गज नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा। इस हार के लिए कांग्रेस पार्टी ने उस समय के कांग्रेस अध्‍यक्ष सीता राम केसरी को जिम्‍मेदार माना जिन्‍हें चुनाव प्रचार में उतरने ही नहीं दिया गया था। इस प्रकार कांग्रेस अध्‍यक्ष पद से सीता राम केसरी को बेदखल कर सोनिया गांधी की ताजपोशी करा दी गई। यह कौन सा लोकतंत्र था जिसमें महज दो साल पहले पार्टी की प्राथमिक सदस्‍यता लेने वाले व्‍यक्‍ति को अध्‍यक्ष बना दिया गया।

स्‍पष्‍ट है कि कांग्रेस के नेताओं ने सत्‍ता में रहने के दौरान एक ही परिवार के गीत गाने में समय बिताया जिसका नतीजा यह हुआ कि देश का विकास प्रभावित हुआ। आजादी के 70 साल बाद देश में साक्षरता कार्यक्रम चल रहा है तो इसका श्रेय इसी चाटुकारी राजनीति को है। इसी तरह शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, पेयजल, सड़क, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं आम आदमी की पहुंच से दूर बनी रहीं।

नरेंद्र मोदी (साभार मनीकण्ट्रोल)

चूंकि नरेद्र मोदी के नेतृत्‍व में चाटुकारी राजनीति के बदले विकास की राजनीति हो रही है, इसलिए कांग्रेसी परेशान हो गए हैं। उन्‍हें लगने लगा है कि यदि एक बार विकास का पहिया पूरे देश में घूम गया तब उनकी वोट बैंक की राजनीति इतिहास के पन्‍नों में दफन हो जाएगी। स्‍वच्‍छ ईंधन, शौचालय, पेयजल, बिजली, सड़क, बैंक व बीमा जैसी तमाम मूलभूत सुविधाएं आज करोड़ों गरीबों तक पहुंची हैं तो इसका श्रेय नरेंद्र मोदी के सुशासन को ही जाता है।  

परिवारवाद की राजनीति का नतीजा यह हुआ हुआ कि कभी देश के हर गांव-कस्‍बा-तहसील से नुमाइंगी दर्ज कराने वाली पार्टी का जनाधार घटता गया। इसका अपवाद 2004 और 2009 के आम चुनाव रहे। इन दो वर्षों को छोड़ दिया जाए तो उसका मत प्रतिशत लगातार गिर रहा है।

यदि प्रमुख राज्‍यों के मत प्रतिशत में आए बदलाव को देखा जाए तो स्‍थिति और स्‍पष्‍ट हो जाएगी। कांग्रेस की स्‍थिति में गिरावट के समानांतर ही भाजपा तथा क्षेत्रीय दलों के प्रदर्शन में सुधार हो रहा है। दूसरी महत्‍वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस ने जब भी अपना मत प्रतिशत किसी के हाथ गंवाया वह दुबारा हासिल नहीं कर पाई।

सबसे बड़ी समस्‍या यह हुई कि कांग्रेस में जिस परिवारवाद का बीज गांधी परिवार ने बोया था वह बीज कांग्रेस का जगह लेनी वाली पार्टियों में वटवृक्ष बन गया। दूसरे शब्‍दों में कांग्रेसी परिवारवाद और कुशासन की प्रतिक्रिया में उपजे क्षेत्रीय दल परिवारवाद के आगे नतमस्‍तक होते गए। इस प्रकार परिवारवाद ने योग्‍यता और आंतरिक लोकतंत्र का अपहरण कर लिया।

उदाहरण के लिए उत्‍तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का मतलब मुलायम सिंह यादव का कुनबा है तो बहुजन समाज पार्टी में मायावती ही सर्वेसर्वा हैं। राष्‍ट्रीय जनता दल तो लालू प्रसाद यादव परिवार की निजी जागीर ही है। कमोबेश यही हालत उड़ीसा में बीजू जनता दल और पश्‍चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की है। यहां परिवार ही पार्टी का संविधान है।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)