कांग्रेस का यह अहंकार आज का नहीं है, इसकी जड़ें उसके पितृपुरुष पं. जवाहर लाल नेहरू के समय की हैं। स्वतंत्रता के पश्चात गांधी के पुण्य-प्रताप से देश भर में एकछत्र राज कर रहे नेहरू के सिर पर भी कुछ ऐसा ही अहंकार चढ़ा हुआ था जिसकी एक बानगी उनके द्वारा जनसंघ पर दिए गए इस तानाशाही वक्तव्य में देखी जा सकती है, ‘मैं जनसंघ को कुचलकर रख दूंगा’। लेकिन नेहरू की इस बात का जवाब देते हुए तब जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जो कहा था, वो लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा को ही दर्शाता है। उनका कथन था, ‘मैं जनसंघ को कुचलने वाली सोच को कुचलकर रख दूंगा’।
कल लोकसभा में तेदेपा द्वारा लाया गया और कांग्रेस आदि कई और विपक्षी दलों द्वारा समर्थित अविश्वास प्रस्ताव प्रत्याशित रूप से गिर गया। अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान में कुल 451 सांसदों ने मतदान किया जिसमें सरकार के पक्ष में 325 और विपक्ष में 126 मत पड़े। इस प्रकार 199 मतों से सरकार ने विजय प्राप्त कर ली। लेकिन इससे पूर्व अविश्वास प्रस्ताव पर हुई चर्चा में पक्ष-विपक्ष के तमाम नेताओं ने अपनी बात रखी।
कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी कुछ बेढब बातों और हरकतों के कारण विशेष रूप से चर्चा के केंद्र में रहे। सरकार पर आरोप लगाते-लगाते अचानक वे जाकर प्रधानमंत्री के गले लिपट गए, फिर जब अपनी सीट पर लौटे तो आँख मार दिए। राहुल की हरकतें ऐसी थीं कि जैसे वे लोकतंत्र का मंदिर कहीं जाने वाली संसद में नहीं, किसी ‘कॉमेडी शो के मंच’ पर बैठे हैं। आखिर उनकी हरकतों से आजिज आकर लोकसभा स्पीकर सुमिता महाजन को उन्हें फटकार भी लगानी पड़ी।
सरकार पर उन्होंने भ्रष्टाचार, उद्योगपतियों से साठ-गाँठ जैसे कई तरह के आरोप लगाए, लेकिन एक भी आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके। सब बातें वायवीय धारणाओं पर ही आधारित थीं। राफेल डील पर बोलते हुए उन्होंने दावा कर दिया कि फ़्रांस से भारत का इस डील को गोपनीय रखने को लेकर कोई समझौता नहीं है, ऐसा फ़्रांस के राष्ट्रपति ने उन्हें बताया है।
लेकिन इसके थोड़ी ही देर बाद फ़्रांस की तरफ से राहुल की इस बात का खण्डन करते हुए कहा गया कि ऐसी कोई बात फ़्रांस के राष्ट्रपति ने नहीं कही है और भारत-फ़्रांस के बीच गोपनीयता का समझौता हुआ है, जिस कारण इस डील को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। ले-देकर इस मुद्दे पर भी राहुल की मिट्टीपलीद हो गयी।
भाजपा की तरफ से राहुल सहित विपक्ष के आरोपों का जवाब रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण, गृहमंत्री राजनाथ सिंह आदि ने तो दिया ही, अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन भी हुआ जिसमें उन्होंने न केवल अपनी सरकार की उपलब्धियों के विषय में बताया बल्कि विपक्ष की भी जमकर क्लास ली।
उन्होंने राहुल गांधी पर तंज किया कि इस अविश्वास प्रस्ताव से वे (राहुल गांधी) यह चेक कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री के रूप में उनके चेहरे पर कितने लोग साथ हैं। मोदी ने कांग्रेस के अहंकार को अविश्वास प्रस्ताव का एक कारण बताया। कुल मिलाकर मोदी का वक्तव्य विपक्ष के प्रति बेहद आक्रामक नजर रहा।
देखा जाए तो कांगेस को जनता द्वारा खारिज होकर सत्ता से वंचित हुए चार साल का वक्त बीत चुका है, लेकिन अबतक वो इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वो इस सत्य को स्वीकारने को तैयार ही नहीं है कि गत लोकसभा में जनता ने उसे इस कदर खारिज कर दिया कि विपक्ष में बैठने लायक सीटें भी नहीं दीं। इसके बाद राज्यों के चुनावों में भी लगातार उसे हार ही मिलती आ रही है, मगर तब भी कांग्रेस को चेत नहीं हुआ बल्कि हर हार के बाद वो कभी ईवीएम तो कभी कुछ और बहाना ढूंढकर पराजय के कड़वे यथार्थ से नजरे चुराने का ही काम करती नजर आ रही है।
दरअसल आजादी के बाद लगभग छः दशकों सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस के सिर पर सत्ता का ऐसा अहंकार चढ़ चुका है कि अब वो अपने खिलाफ आने वाले जनादेश का सम्मान भी नहीं कर पा रही। यह जनादेश का अपमान नहीं तो और क्या है कि अपने पास मात्र 48 सीटें होने के बावजूद कांग्रेस एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में दौड़ पड़ती है। ‘कौन कहता है कि हमारे पास बहुमत नहीं है’ अविश्वास प्रस्ताव पर सोनिया गांधी का यह वक्तव्य कांग्रेस के अहंकार के अलावा और किस बात का सूचक है ?
वैसे कांग्रेस का यह अहंकार आज का नहीं है, इसकी जड़ें उसके पितृपुरुष पं. जवाहर लाल नेहरू के समय की हैं। स्वतंत्रता के पश्चात गांधी के पुण्य-प्रताप से देश भर में एकछत्र राज कर रहे नेहरू के सिर पर भी कुछ ऐसा ही अहंकार चढ़ा हुआ था जिसकी एक बानगी उनके द्वारा जनसंघ पर दिए गए इस तानाशाही वक्तव्य में देखी जा सकती है, ‘मैं जनसंघ को कुचलकर रख दूंगा’। लेकिन नेहरू की इस बात का जवाब देते हुए तब जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जो कहा था, वो लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति उनकी निष्ठा को ही दर्शाता है। उनका कथन था, ‘मैं जनसंघ को कुचलने वाली सोच को कुचलकर रख दूंगा’।
ये दोनों वक्तव्य हमें उस दौर की राजनीति में मौजूद विचारधाराओं के अंतर को ही दिखाते हैं, जो कि परम्परागत रूप से आज की राजनीति में भी विद्यमान है। नेहरू की कांग्रेस आज भी उसी अहंकार से ग्रस्त है, तो डॉ. मुखर्जी की भाजपा लोकतान्त्रिक मार्ग पर चलते हुए संघर्ष से जनादेश अर्जित कर जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए निरंतर प्रयासरत दिख रही है। ऐसे में कहना न होगा कि कांग्रेस के लिए निस्संदेह ये गहन आत्मचिंतन का समय है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)