महाराणा प्रताप और वीर सावरकर की महानता राजस्थान सरकार के प्रमाणपत्र की मोहताज नहीं है, परन्तु पाठ्यक्रमों में उनके विषय में अनुचित वर्णन करना इस कांग्रेसी सरकार की अभारतीय दृष्टि और राष्ट्र-विमुख वैचारिकता को ही दर्शाता है।
राजस्थान सरकार की दसवीं की सामाजिक विज्ञान की ई-पाठ्यपुस्तक के दूसरे पाठ ‘संघर्षकालीन भारत 1260 AD-1757 AD’ में संशोधन करते हुए लिखा गया है कि ”सेनानायक में प्रतिकूल परिस्थितियों में जिस धैर्य, संयम और योजना की आवश्यकता होनी चाहिए, प्रताप में उसका अभाव था।”
इतना ही नहीं, इसमें आगे कहा गया है कि ‘मुगल सेना पहाड़ी इलाकों में लड़ने के लिए निपुण नहीं थी, जबकि मेवाड़ सेना मैदान में लड़ने के लिए सक्षम नहीं थी।’ यह भी ध्यातव्य रहे कि जहाँ पहले की पुस्तक में महाराणा प्रताप को हल्दी घाटी के युद्ध का विजेता घोषित किया गया था, वहीं अब नई पुस्तक में वे इस युद्ध के विजेता नहीं हैं।
इससे पूर्व भी गत वर्ष राजस्थान सरकार ने दसवीं कक्षा की ‘सामाजिक विज्ञान’ की पाठ्यपुस्तक में विवादित संशोधन किए थे। तब उसने स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर के नाम से पूर्व प्रयुक्त और प्रचलित विशेषण ”वीर” हटा लिया था। उसका कहना था कि ”सावरकर ने अपनी रिहाई के लिए अंग्रेजों से माफ़ी माँगी थी इसलिए उन्हें वीर नहीं कहा जा सकता।”
राजस्थान की वर्तमान सरकार ने महाराणा प्रताप को भी ‘महान’ मानने से इंकार कर दिया था। उसका तर्क था कि ”अकबर और प्रताप के बीच राजनीतिक युद्ध हुआ था। दोनों ने सत्ता के लिए लड़ाई लड़ी थी। इसलिए इन दोनों में से किसी को महान नहीं कहा जा सकता।”
अंग्रेज भी यही तर्क देकर दशकों तक 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-आंदोलन को महज़ चंद राजे-रजवाड़ों या सिपाहियों का विद्रोह बताकर खारिज़ करते रहे। यह कैसा संयोग है कि देश को आज़ादी दिलाने वाली पार्टी आज देश को ग़ुलाम बनाने वालों की भाषा बोल रही है! सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच सावरकर ‘वीर’ और प्रताप ‘महान’ नहीं थे?
वे सावरकर जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए होम कर दिया, जिन्होंने केवल दिया ही दिया, तिनके भर सुख की कामना नहीं की। जिन्होंने देश और दुनिया में क्रांति का बिगुल बजाया, जिन्होंने अपार-अगाध समुद्र को लाँघने का साहस दिखाया, अपनी प्रखर मेधा-शक्ति, जिन्होंने अपने तर्कशुद्ध चिंतन एवं तथ्यपरक विश्लेषण के बल पर 1857 के विद्रोह को ‘प्रथम स्वाधीनता आंदोलन’ की संज्ञा दिलवाई, जिन्होंने कालेपानी की यातनाएँ और प्रताड़नाएँ झेलीं, टाट के पैरहन पहनने के कारण जिनका बदन छिलता रहा और नारियल-जूट की रस्सी बुनने के कारण जिनकी हथेलियों से खून रिसता रहा, ऐसे सावरकर आज़ाद भारत की एक राज्य-सरकार के लिए ‘वीर’ नहीं?
वहीं मातृभूमि की आन-बान-शान व स्वाभिमान की रक्षा के लिए जिस प्रताप ने मुग़लों के आगे कभी सिर नहीं झुकाया, जंगलों-बीहड़ों-गुफाओं की ख़ाक छानी, घास की रोटी खाई, पर स्वतंत्रता की लड़ाई ज़ारी रखी- वे महाराणा प्रताप भी इनके लिए महान और पराक्रमी नहीं, धैर्यवान और संयमी नहीं।
क्या धैर्य व संयम, पराक्रम व पुरुषार्थ, ध्येय व समर्पण की प्रताप से बड़ी मिसाल भी कोई और हो सकता है! महान कौन होता है? वह आक्रांता जो नरसंहार कर भी अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता है अथवा वह जो अपनी स्वतंत्रता व सम्मान की रक्षा के लिए प्राणापण से उससे लड़ रहा है?
प्रताप चाहते तो अपने समकालीन राजाओं की तरह अपमानजनक संधि कर अपने लिए फूलों की सेज चुन सकते थे, पर उन्होंने मातृभूमि के गौरव व स्वाभिमान के लिए काँटों भरा पथ चुना। यह दुर्भाग्य ही है कि सत्ता के लिए तमाम समझौते करने वाले लोग आज महाराणा प्रताप और वीर सावरकर जैसे तेजस्वियों-तपस्वियों का आकलन-मूल्यांकन कर रहे हैं।
भारतीय संस्कृति के नायकों के प्रति उपेक्षा और अपमान की दृष्टि कांग्रेस की वैचारिकता में पहले से शामिल रही है। जो दल हमारी संस्कृति के सनातन देव मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को ही एक समय में काल्पनिक बता चुका हो, उससे और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है।
परन्तु, इतना अवश्य है कि ऐसे दुष्प्रयासों से प्रताप और सावरकर जैसे धवल चरित्रों पर काज़ल की एक रेख भी न लगने पाएगी। लोकमानस अपने महानायकों के साथ न्याय करना खूब जानता है। कुछ सस्ती-स्याह बूँदें अतीत के उज्ज्वल-गौरवशाली चरित्रों को कदापि धूमिल नहीं कर सकतीं। वे लोक की दृष्टि में सदा ‘महान’ और ‘वीर’ थे और सदा ‘महान’ व ‘वीर’ ही रहेंगें।
वस्तुतः महाराणा प्रताप और वीर सावरकर की महानता राजस्थान सरकार के प्रमाणपत्र की मोहताज नहीं है, परन्तु पाठ्यक्रमों में उनके विषय में अनुचित वर्णन करना इस कांग्रेसी सरकार की अभारतीय दृष्टि और राष्ट्र-विमुख वैचारिकता को ही दर्शाता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)