केरल के कन्नूर में वामपंथी हिंसा का इतिहास सन् 1960 से शुरू हुआ और पहली हत्या 1969 में हुई। कम्युनिस्ट गुंडों और इस्लामी कट्टरपंथियों के घातक गठबंधन के चलते सैकड़ों परिवारों ने अपने बच्चों का नृशंस नरसंहार देखा, विशेषकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की नृशंस हत्याएं हुईं। केरल का अर्थ है भगवान का देश और दुर्भाग्य तो देखिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के तीन सौ से अधिक युवा कार्यकर्ताओं को भगवान के अपने देश में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
कम्युनिस्ट देशों में असहमति जताने का अर्थ है देशद्रोह। सोवियत संघ ने कैसे अपने नागरिकों के मन में भय और घुटन को जन्म दिया, इसे इतिहास के विद्यार्थी भलीभांति जानते हैं और उसी की अंतिम परिणति सोवियत संघ के विभाजन में हुई। युद्ध और रक्तपात ही साम्यवाद की पहचान है और उसी का परिचायक है, उनका बहुचर्चित नारा ‘लाल सलाम’। भले ही भारत के अधिकांश हिस्से में साम्यवाद की कोई प्रासंगिकता नहीं है, किन्तु दुर्भाग्य से हमारी राष्ट्रीय मीडिया पर उनका कब्जा बरकरार है और केरल की राजनीति में इनका दुष्प्रभाव अपने मूल स्वरुप, अर्थात् खून-खराबे और आतंक का दिग्दर्शन करा रहा है।
केरल के कन्नूर में वामपंथी हिंसा का इतिहास सन् 1960 से शुरू हुआ और पहली हत्या 1969 में हुई। कम्युनिस्ट गुंडों और इस्लामी कट्टरपंथियों के घातक गठबंधन के चलते सैकड़ों परिवारों ने अपने बच्चों का नृशंस नरसंहार देखा, विशेषकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की नृशंस हत्याएं हुईं। केरल का अर्थ है भगवान का देश और दुर्भाग्य तो देखिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के तीन सौ से अधिक युवा कार्यकर्ताओं को भगवान के अपने देश में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
वास्तव मेंआजादी के बाद से ही निर्दोष संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने भाकपा के गुंडों के प्रकोप का सामना किया और अपने विचार स्वातंत्र्य के लिए सर्वोच्च आत्म बलिदान दिया है। यह कैसी पत्रकारिता है कि केरल में आए दिन होने वाली इन राजनीतिक हत्याओं को लेकर देश की मीडिया ज्यादातर चुप्पी साधे दिखती है और सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी कोई उच्चस्तरीय जांच भी नहीं कराती।
जरा साम्यवाद का इतिहास तो देखें, जिसकी नींव ही अराजकता, तख्तापलट, अधिनायकवाद और तानाशाही पर रखी गई है! क्या किसी भी कम्युनिस्ट देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? जब दुनियाभर में उनकी यही प्रवृत्ति है, तो भारत में अपवाद कैसे हो सकता है? विडंबना यह है कि कैसे लोकतांत्रिक भारत में ये वैचारिक पाखंडी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के नाम पर भाषण झाड़ते हैं, अवार्ड वापस करने का नाटक करते हैं, वर्ग विद्वेष बढ़ाने के लिए निरर्थक मामले गढ़ते हैं, तिल का ताड़ बनाते हैं। जैसा कि रोहित वेमुला मामले में किया, एक पिछड़े वर्ग के नौजवान को दलित बताकर पूरे भारत में शोर मचाया, उद्देश्य केवल एक था, जातीय नफरत बढ़ाना।
दूसरी ओर जिन्होंने भी कम्युनिस्ट विचारधारा के खिलाफ थोड़ा भी मुखर होने का प्रयास किया, उनकी सीपीआई(एम) कार्यकर्ताओं ने अमानवीय हत्या कर दी, उनकी आवाज हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर दी। इस वामपंथी विचारधारा की ही एक शाखा तथाकथित उदारवादी और प्रगतिशील जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं, उस पर सबसे अधिक प्रहार तो केरल में हो रहा है। फिर आप किस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का रोना रोते हुए आकाश-पाताल एक कर रहे हो? आक्रोश में भी इतना भेदभाव क्यों? स्पष्ट है कि वामपंथी विचारधारा के मूल में हिंसा और दमन की भावना निहित है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)