वाम विमर्श अपने इर्दगिर्द कुछ ऐसे शब्दों का जाल भी खड़ा करके चलता है जो तथाकथित बौद्धिक वर्ग में बहुत भारी भरकम प्रतीत होते हैं। मसलन ‘कार्पोरेटाइजेशन’ एक ऐसा ही शब्द ईजाद किया गया है नई शिक्षा नीति की आलोचनाओं के लिए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारत का शिक्षा जगत निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा। जबकि सरकार सम्मिलित रूप से शिक्षा क्षेत्र में जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करने की बात कर रही है।
मोदी सरकार द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति को लेकर आलोचक ऐसे पहलू गढ़ रहे हैं जो केवल कल्पनाओं पर आधारित हैं। आरएसएस के प्रति अपनी घृणा और दुश्मनी को अभिव्यक्त करने के मोर्चे पर वे आज भी कायम हैं, लेकिन नई नीति व्यापकता और समावेशी फलक पर अवलंबित है, इसलिए इस वर्ग का विरोध तार्किक नही है।
वाम विमर्श अपने इर्दगिर्द कुछ ऐसे शब्दों का जाल भी खड़ा करके चलता है जो तथाकथित बौद्धिक वर्ग में बहुत भारी भरकम प्रतीत होते हैं। मसलन ‘कार्पोरेटाइजेशन’ एक ऐसा ही शब्द ईजाद किया गया है नई शिक्षा नीति की आलोचनाओं के लिए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारत का शिक्षा जगत निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा। जबकि सरकार सम्मिलित रूप से शिक्षा क्षेत्र में जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करने की बात कर रही है।
शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने नई नीति का नवनीत “भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति” बनाना निरूपित किया है। इस उद्देश्य पर कोई चर्चा न करते हुए तमाम वामपंथी और राजीव शुक्ला जैसे कांग्रेसी विरोध के लिए विरोध की घटिया राजनीति पर उतारू हैं।
शिक्षाविद के चोले में वामपंथी प्रचारक अनिल सदगोपन ने नई नीति पर आरएसएस के हाथों शिक्षा का केन्द्रीयकरण करने का आरोप लगाया है, इसके लिए वह इंडियन एजुकेशन सर्विस, नेशनल रिसर्च फाउंडेशन, एनएचईसीए, एनटीए जैसी संस्थाओं के प्रस्ताव को आधार बनाकर वे दावा कर रहे हैं कि इन संस्थाओं के जरिये केजी से पीजी तक केंद्रीय सरकार का कब्जा होगा और यह काम संघ के स्वयंसेवकों के हाथों में होगा।
इस लिजलिजे तर्क का एक पक्ष यह तो स्पष्ट ही है कि वे कह रहे कि आगामी 15 सालों तक केंद्र में मोदी या बीजेपी सरकार ही रहने वाली है, क्योंकि नई नीति को पूर्णता के साथ अमल में आने में इतना समय तो लगेगा ही।
दूसरा आरोप 12 वीं के बाद हुनरमन्द बच्चों के स्थानीय स्तर पर नियोजन को लेकर है। दावा किया जा रहा है कि गरीब और वंचित तबके के बच्चे दिहाड़ी मजदूरी में झोंक दिये जायेंगे। जबकि अनुभव बताते हैं कि कोविड संकट में आर्थिक परेशानियों से हमारा गरीब और वंचित वर्ग इसी स्किल न्यूनता से जुझता रहा है।
नई नीति स्किल इंडिया मिशन को परिणामोन्मुखी बनाती है। नीति में आरक्षण को लेकर सवाल खड़े किया जाना भी अप्रसांगिक है, क्योंकि स्कूली सिस्टम में आरक्षण का कोई अर्थ ही नहीं। हायर एजुकेशन सिस्टम में आरक्षण पहले से ही विद्यमान है।
नई नीति जब उच्च शिक्षा नामांकन के लिए 50 फीसदी का लक्ष्य घोषित करती है, तब इन आरोपों की मंशा को समझा जा सकता है। सवाल यह है कि शिक्षा का कार्पोरेटाइजेशन किया किसने है? क्या 60 साल तक बीजेपी संघ ने इस देश की शैक्षणिक नीतियाँ निर्मित की हैं? चार साल के यूजी प्रस्ताव को संघ के एजेंडे का हिस्सा बताया जा रहा है जबकि यह कोर्स विदेशों में सफलतापूर्वक चल रहा है। क्या यह प्रयोग भारत को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी नही बनाता है।
एक तरफ संघ को रिग्रेसिव कहा जाता है, दूसरी तरफ इस निर्णय को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विदेशी विश्विद्यालयों के कैंपस की अनुमति सामाजिक विज्ञान के लिए नहीं होगी, केवल तकनीकी, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन, साइंस स्ट्रीम में ही विदेशी कैंपस खोले जाने का प्रस्ताव है। यानी भारतीय समाज विज्ञान की मौलिकता को कायम रखने की प्रतिबद्धता स्पष्ट है।
जिस नई नीति को प्रस्तुत किया गया है उसके जमीनी क्रियान्वयन में ईमानदारी सभी स्तरों पर सुनिश्चित हो जाये तो भारत अगले कुछ दशकों बाद उन सभी लक्ष्य को हांसिल कर सकता है जो उसके लिए स्वाभाविक हैं, लेकिन गलत नीतियों के चलते अभी भी कठिन बने हुए हैं।
नई नीति शालेय शिक्षा को मातृभाषा और प्रादेशिक भाषाओं में देने की वकालत करती है साथ ही उच्च शिक्षा को व्यवहारिक बनाने पर जोर भी देती है। मौजूदा नीति केवल रट्टा लगाकर विहित परीक्षा पास करने का अनुसरण करती है, यह केवल अंक सूची संधारित्र करती है। कोई निपुणता नही देती। न ही कौशल उन्नयन को छूती है। सीखने का कोई तत्व इसमें नही है। जबकि इसके उलट नई नीति जिज्ञासा केंद्रित है। सब कुछ किताबी लिखा पढ़ने की जगह जीवन भर सीखने की बात करती है।
अलग अलग संकायों में बंटी पॉलिसी की जगह पाठ्यक्रम से बाहर हर रुचिकर ज्ञान और कौशल को सीखने का तत्व ही असल में वास्तविक रूप से शिक्षा का उद्देश्य होता है। इसी तत्व पर यह नई नीति अवलंबित है। प्लेटो ने अपनी शिक्षा नीति में कहा है कि उच्च शिक्षा सभी के लिए एक जैसी नहीं हो सकती, इसके वर्गीकरण को उन्होंने कौशल और रुचि के आधार पर आगे बढ़ाने की बात कही है।
वे कहते हैं कि संगीत भी शिक्षा का अभिन्न हिस्सा होना चाहिये क्योंकि अच्छा संगीत मन की भावनाओं को परिष्कृत करता है। जाहिर है, बीएससी या बीकॉम करने वाला कोई विद्यार्थी अगर अच्छा संगीतज्ञ या चित्रकार बनना चाहता है, तो उसे उसकी विहित स्नातक शिक्षा इसकी इजाजत नही देती है। कोई खेल में कैरियर बनाना चाहता है, तो उसे अलग से बीपीएड की पढ़ाई करनी होगी जो उसकी खिलाड़ी बनने की उम्र को खत्म कर देती है। नई नीति इस बन्धन को खत्म करती है, क्योंकि यह बहुविषयक पढ़ाई की बात करती है।
दिल्ली विवि में ही 30 फीसदी बच्चे अपनी पढ़ाई बीच मे छोड़ देते हैं, इसके पीछे आर्थिक कारण भी होते हैं। दो साल या इससे कम-अधिक की गई उसकी पढ़ाई नियत समय तक वापसी के अभाव में व्यर्थ हो जाती है। जबकि हम सैद्धान्तिक रूप से कहते हैं कि पढ़ाई जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। नई नीति इसे दुरुस्त करती है और स्नातक डिग्री को डिप्लोमा, सर्टिफिकेट ओर डिग्री में बदलती है। यह नागरिक को उसकी आजादी और अधिकार की बेहतरीन गारंटी है।
असल में हमारी डिग्रियाँ केवल नौकरियों के लिए एक कागजी पुर्जा भर हैं, इसीलिए इन्हें इस तरह बनाया गया है जबकि उच्च शिक्षा का ढांचा स्थानीय उद्योगों, स्टार्टअप की जरूरतों से सयुंक्त होना चाहिए। भारत की प्राचीन आर्थिकी में जिन 64 स्थानीय कलाओं को प्रतिष्ठित किया गया था, वे श्रम और कौशल को आत्मनिर्भरता से जोड़ती थीं, लेकिन औपनिवेशिक शासन ने इस सशक्त आर्थिकी को खत्म कर व्हाइट कॉलर बाबू का जो आदर्श स्थापित किया उसने भारत के स्वत्व को ही खत्म करने का काम किया।
अनेक अध्ययन यह प्रमाणित कर चुके हैं कि विश्व में सीखने के लिहाज से भारतीय बच्चे किसी भी विकसित देश से जन्मना बेहतर हैं। अमेरिका में सर्वाधिक कुशाग्र “भारतीय अमेरिकियों” को गिना जाता है। क्या भारत के इस डीएनए का हम 70 साल में बेहतरी के लिए उपयोग कर पाएं हैं? पीसा जो यूरोपियन मानक है, उसके द्वारा किये गए एक अध्ययन में भारतीय स्कूलों की गुणवत्ता को 110 देशो में नीचे से दूसरे स्थान पर रैंकिंग दी गई है। जाहिर है, हमारी शालेय शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह चौपट है। नई नीति में इसके शमन की सोच नजर आती है।
यह लर्निग आउटपुट के साथ सम्पूर्ण विकास की बात करती है। अरली चाइल्डहुड केयर एजुकेशन को लेकर सरकार की प्राथमिकता शिक्षा के बुनियादी बदलाव को सशक्त बनाने की है। छठी कक्षा से ही वोकेशनल स्किल को पकड़ने का प्रावधान असल में उस बड़े लक्ष्य को पकड़ने के लिए ही है जिसके जरिये चीन और साउथ कोरिया जैसे मुल्कों ने दुनिया में अपनी आर्थिक हैसियत को कम समय मे हासिल किया है।
भारत की नई नीति चीन और कोरियाई मॉडल की तरह ही कौशल उन्नयन को सुनिश्चित करती है। दोनों देशों में “स्टीम”सिस्टम (यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, आर्ट्स और मैथ्स) के तहत शालेय शिक्षा दी जाती है। जाहिर है, स्कूलों के लिए यह मॉडल स्किल डेवलपमेंट के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है।
उच्च शिक्षा को शोध एवं विकास (आर एंड डी) उन्मुख बनाने के लिए नई नीति में जो बुनियादी प्रावधान हैं, वह असल में भारत की जन्मना प्रतिभा को निखारने का संकल्प ही है। चार वर्षीय डिग्री कोर्स उन प्रतिभासंपन्न बच्चों को इस राष्ट्रीय योगदान के लिए चिन्हित करेगा।
वैसे भी भारत विश्व की तीसरी बड़ी वैज्ञानिक एवं तकनीकी जनशक्ति वाला देश है। सुपर कम्प्यूटर से लेकर नैनो तकनीकी और सॉफ्टवेयर क्षेत्र में भारत की प्रतिभा को दुनिया ने अधिमान्यता दी है। सीएसआई, डीआरडीओ, आईसीएआर, इसरो, आईसीएमआर, सीडेक, एनडीआरआई, आईआईएस, आईआईटीज जैसे संस्थानों ने शोध और नवोन्मेष में बहुत ही बेहतरीन काम किया है, लेकिन यह भी तथ्य है कि इन संस्थानों तक आम भारतीय की पहुँच बिरली है। इन संस्थानों का स्वरूप आज भी एलीट क्लास का प्रतिनिधित्व अधिक करता है।
देश के शेष विश्वविद्यालय आर एंड डी के मामले में शून्यवत हैं, क्योंकि वे उसी डिग्रीमूलक ढर्रे पर चल रहे हैं। यही कारण है कि 1930 में सीवी रमन के बाद कोई शोध हमें नोबेल की लाइन में नजर नही आया है। नई नीति भारत के बिखरे हुए शोधार्थियों को समेकित करने का काम कर सकती है। जिस कोरिया के सफल एजुकेशन मॉडल की हम बात करते हैं, वहां आर एन्ड डी पर जीडीपी का 4.2 फीसदी खर्च होता है, चीन में यह आंकड़ा 2.01,इजरायल में 4.2,और अमेरिका में 2.8 है। भारत मे यह केवल 0.6 फीसदी ही है।
नई नीति अमेरिका की तर्ज पर नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना का प्रावधान करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान के संग जय अनुसन्धान की बात भी शोधकर्ताओं से कही थी। यह आह्वान जमीन पर उतारने की ईमानदार कोशिश इस नीति में नजर आती है। उच्च शिक्षा के ढांचे से प्रशासनिक उलझाव खत्म कर एकीकृत स्वरूप देने का प्रावधान बहुत लंबे समय से प्रतीक्षित था।
कुल मिलाकर शिक्षा के जरिये भारत को सांगोपांग महाशक्ति बनाने की प्रबल इच्छा को उद्घाटित करती इस नीति को लेकर देश भर में स्वागत का माहौल है। यह सही अर्थों में शिक्षा को औपनिवेशिक चंगुल से मुक्ति की संकल्पना भी है। यह भारत के स्वत्व और स्वाभाविक सामर्थ्य को साकार करने का भी प्रयास है। आवश्यकता इस बात की है कि इसे ईमानदारी के साथ जमीन पर उतारने के लिए भी उसी उदारता और समावेशी सोच से काम किया जाए जैसा इसे बनाने में किया गया है।
(लेखक बाल कल्याण समिति शिवपुरी के अध्यक्ष हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)