नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को हम तीन चरणों में देख सकते हैं। पहला कि इसमें वर्तमान शिक्षा जगत में व्याप्त समस्याओं का आकलन किया गया है। दूसरा, समस्याओं को भारतीय दृष्टि से हल करने के प्रयास किए गए हैं तथा तीसरा यह कि तय किए गये उद्देश्यों को एक निश्चित समय में प्राप्त करने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं।
मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय का नाम सुनने पर यह भान होता है कि यह मंत्रालय मानव को संसाधन मात्र मानकर उसके जीविकोपार्जन से सम्बंधित है। लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। भारत में यह मंत्रालय अकादमिक शिक्षा से सम्बंधित अनेक संस्थाओं के बीच कार्य करता है। यही कारण है कि अब इस मंत्रालय का नाम मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय से बदल कर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है। यह परिवर्तन नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के आने के बाद हुआ है।
इस नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में न सिर्फ व्यावहारिक अपितु शिक्षा जगत में आवश्यक ढांचागत परिवर्तन की भी बात की गई है। वैसे तो इन परिवर्तनों की आवश्यकता बहुत पहले से महसूस की जा रही थी लेकिन 34 वर्षो बाद वर्तमान सरकार ने इसको हरी झंडी दी है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को हम तीन चरणों में देख सकते हैं, पहला कि इसमें वर्तमान शिक्षा जगत में व्याप्त समस्याओं का आकलन किया गया है। दूसरा कि समस्याओं को भारतीय दृष्टि से हल करने के प्रयास किए गए हैं तथा तीसरा यह कि तय किए गये उद्देश्यों को एक निश्चित समय में प्राप्त करने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं।
दरअसल विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का खूब प्रयास किया गया। चाहे वह मुग़ल काल में नालंदा विश्वविद्यालय के ग्रंथालय को जलाना हो अथवा अंग्रेजी हुकूमत के समय में मैकाले की शिक्षा नीति हो। इतना ही नहीं, इसके अलावा भी अनेकानेक प्रयास किए गए। नई राष्ट्रीय नीति इन सब के कारण भारतीय शिक्षा के व्यस्थागत ढांचे में आई खामियों को दूर करने का काम करेगी। इसके कुछ उदाहण हम नई शिक्षा नीति के वर्तमान प्रावधानों से समझ सकते हैं।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा में भारतीय भाषाओं में शिक्षण की अनुशंसा की गई है। इसके साथ ही इसमें कुल जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की बात की गई है। विद्यालयी शिक्षा में ही इंटर्नशिप जैसे कार्यक्रम चलाए जाएँगे। इससे विद्यालयी शिक्षा न सिर्फ रोचक बनेगी अपितु बच्चों को अकादमिक ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान प्राप्ति के अवसर उपलब्ध हो सकेंगे।
एक बात पर विशेष तौर से गौर करने की आवश्यकता है कि पहली बार भारत में औपचारिक शिक्षा के व्यवस्थागत ढांचे में साक्षरता के साथ-साथ आलोचनात्मक चिंतन की बात की गई है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आलोचनात्मक चिंतन से बच्चों में किसी विषय के प्रति गहरी समझ तो बनेगी ही, साथ ही समाज में अनेक समस्याओं के समाधान के रूप में भी हम इसे देख सकते हैं।
उदाहरण के रूप में मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर जिस तरह अधूरा सच दिखाया जाता है और उसे जैसे का तैसा ही प्रेषित क़र दिया जाता है तथा सोशल मीडिया के ज़माने में चंद मिनटों में यह पूरे समाज में फ़ैल जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि मीडिया उपभोक्ता किसी भी माध्यम से सूचना प्राप्त कर रहे तो उसके बारे में पहले आलोचनात्मक चिंतन अवश्य करें।
इस शिक्षा नीति के द्वारा बच्चों को विद्यालयों में पूर्व की भांति निश्चित विषय ही पढ़ने की बाध्यता नहीं होगी, अब वे अपने मन पसंद विषय का अध्ययन अपनी स्वेच्छा से कर सकेंगे। अब विद्यालयी शिक्षा का प्रारूप 10+2 का नहीं अपितु 5+3+3+4 के रूप में होगा।
विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए नई शिक्षा नीति में अनेक प्रावधान किए गए हैं। उसमें से एक यह है कि महाविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान किया जाएगा लेकिन उसके लिए महाविद्यालयों की ग्रेडिंग की जाएगी। यदि वे ग्रेडिंग में मानकों को पूरा कर सकेंगे तभी उन्हें स्वायत्तता दी जाएगी अन्यथा नहीं।
आज देश भर के 45000 महाविद्यालयों में मात्र 8000 महाविद्यालय ही स्वायत्त रूप में कार्य कर रहे हैं। अब इस प्रावधान से महाविद्यालयों में प्रतिस्पर्धी माहौल बनेगा और स्वायत्तता प्राप्त होने पर वे एक तय फ्रेमवर्क में रहते हुए स्थानीयता पर केंद्रित महाविद्यालय बनेंगे और इससे वे आत्मनिर्भरता की तरफ भी बढ़ेंगे। इस प्रक्रिया से महाविद्यालय के बच्चों के साथ साथ स्थानीय समाज का भी लाभ होगा, स्थानीय समाज को कौशलयुक्त ज्ञान मिल सकेगा तथा महाविद्यालयों के बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान भी मिल सकेगा।
इसके अतिरिक्त उच्च शिक्षा में अब बच्चों को मल्टिपल एंट्री व मल्टीपल एग्जिट की व्यवस्था का लाभ भी मिल सकेगा, इससे उच्च शिक्षा में पंजीयन की दर बढ़ेगी। इसमें उच्च शिक्षा में 50 फीसदी तक पंजीयन का उद्देश्य भी तय किया गया है। लॉ और मेडिकल की पढ़ाई के अतिरिक्त अन्य धाराओं में उच्च शिक्षा के लिए अब एकल नियामक का प्रावधान रखा गया है। शोध की गुणवत्ता में सुधार के लिए विशेष नियामक तय किए जाएँगे।
भारत में इसके पहले भी शिक्षा नीति को लाया गया है। चाहे वह 1968 की इंदिरा गाँधी सरकार की शिक्षा नीति हो या 1986 में राजीव गाँधी के सरकार की शिक्षा नीति हो या 1992 में उसका संशोधन हो, प्रत्येक में शिक्षाविदों ने तत्कालीन शिक्षा जगत की समस्याओं के समाधान के लिए कागज पर तो नीतियाँ अवश्य बनाई, लेकिन किसी भी नीति की उपादेयता तभी है जब वह सफलतापूर्वक क्रियान्वित की जा सके।
उस समय की तत्कालीन सरकारों की अनदेखी के कारण आज भी हम कोठारी आयोग के अनेक सिफारिशों को जमीन पर लागू नहीं कर सकें हैं। इसलिए वर्तमान सरकार ने निश्चित रूप से शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि को अपनाते हुए अनेक बहुप्रतीक्षित आमूलचूल परिवर्तन किए है लेकिन उन सभी की सफलता तभी है, जब इसको सही तरीके से क्रियान्वित किया जाए और क्रियान्वयन के समय जो भी समस्याएँ आएं, उनका समाधान भी किया जाएँ।
हम सभी अपने जीवन में छोटे-छोटे उद्देश्य तय करते है और धीरे-धीरे उनको प्राप्त करते हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी कुछ ऐसा ही है, इसमें एक समयावधि के अन्दर छोटे-छोटे लक्ष्यों को प्राप्त करने की बात की गई है।
पिछली कुछ सरकारों के समय से ही भारत में शिक्षा जगत भी राजनीति का शिकार हुआ है और इसके लिए राजनेताओं के साथ-साथ नौकरशाह भी जिम्मेदार हैं। यही कारण है कि अकादमिक संस्थाओं में नियुक्तिओं में इन दोनों का खूब हस्तक्षेप देखने को मिलता है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति शिक्षा जगत में इस प्रकार के गैरवाजिब हस्तक्षेप को कम करने का काम करेगी और शैक्षणिक संस्थानों को उनकी गुणवत्ता के आधार पर अच्छा-खराब बताएगी। साथ ही जैसे ही उनकी ग्रेडिंग अच्छी होगी उनको स्वायत्त संस्था के रूप में विकसित करेगी।
अब सेवानिवृत्ति के बाद भी समायोजन की बाट जोहने वाले तथाकथित बौद्धिक वर्ग की दाल नहीं गलेगी और यही कारण है कि वे आज सोशल मीडिया पर इस नीति का विरोध कर रहे हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति शिक्षा जगत को सेवानिवृत्ति के बाद भी समायोजन का लाभ खोजने वाले लोगों की गन्दी राजनीति से शिक्षा जगत को दूर करेगी और स्वायत्ता प्रदान करेगी।
जब शिक्षा जगत में राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेप कम होगा तो निश्चित रूप से हमारे विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की गुणवत्ता में सुधार होगा। किसी भी नीति के क्रियान्वयन के बाद निश्चित रूप से कुछ समस्याएँ आती हैं, लेकिन उन समस्याओं के कारण उस नीति का विरोध करने के बजाय हमें क्रियान्वयन में आ रही उस समस्या का समाधान करने की आवश्यकता है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में एक विशेष प्रावधान किया गया है, जिसे मल्टीपल एंट्री व मल्टीपल एग्जिट का नाम दिया गया है। इसके द्वारा उच्च शिक्षा का कोई शिक्षार्थी यदि अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़ना चाहता है तो पूर्व में की गई पढ़ाई व्यर्थ नहीं होगी, इसके साथ ही वह शिक्षार्थी आगे की कक्षा में पुनः अपनी पढ़ाई ज्वाइन कर सकता है। इसका सबसे बड़ा लाभ सामाजिक और आर्थिक तौर से पिछड़े उन सभी लोगों को मिल सकेगा जिन्हें किसी वजह से अपनी पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ती थी।
स्नातक में एक वर्ष की पढ़ाई पूरी करने पर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत सर्टिफिकेट कोर्स का प्रमाण-पत्र, दो वर्ष की पढ़ाई पूरी करने पर डिप्लोमा का प्रमाण-पत्र तथा तीन या चार वर्ष की पढ़ाई पूरी करने पर स्नातक की डिग्री शिक्षार्थी प्राप्त कर सकेगा। इसके अतिरिक्त नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अनेक परिवर्तन किए गए हैं। पूर्व की शिक्षा नीति में की गई अनेक अनुशंसाओं को भी पूरा करने का प्रयास इस नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के द्वारा किया जा सकता है।
इसके क्रियान्वयन के लिए शैक्षणिक संस्थानों में बैठे लोगों को अपने राजनीतिक आकाओं के प्रभाव में न आकर तथा अतिरिक्त लाभ (सेवानिवृत्ति के बाद समायोजन इत्यादि) के उद्देश्य से बिना प्रभावित हुए सभी को साथ लेकर देश और समाजहित की भावना के साथ कार्य करने की आवश्यकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)