प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के साथ ही बलूचिस्तान का भी नाम लिया तो उन्होंने एक ही तीर से तीन शिकार कर दिए। पहला तो निस्संदेह पाकिस्तान है। भारत विरोधी बयानबाजी कम करते ही जिस पाकिस्तान के वजूद पर खतरा मंडराने लगेगा, उसके लिए बलूचिस्तान वाकई बहुत सालने वाला मुद्दा है। पाकिस्तान में सरकार की ओर से काम करने वाली दो प्रमुख ताकतों आईएसआई और पाकिस्तानी सेना द्वारा बलूचिस्तान की जनता पर किए जा रहे अत्याचार, बलात्कार और हत्याओं का पूरा ब्योरा मौजूद है और उसे दोहराने की जरूरत नहीं है। महत्वपूर्ण यह समझना है कि नवाज शरीफ की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार ने किस तरह खुद को बचाए रखने के लिए आईएसआई और सेना के सामने घुटने टेक दिए हैं और सीमा पार घुसपैठ बढ़ाने तथा जम्मू-कश्मीर में भारत-विरोधी तत्वों को सक्रिय सहायता देने के उनके संयुक्त अभियान को सहमति दे दी है। उन्हें लगता है कि इस तरह वे पूरी दुनिया का ध्यान उस समस्या से हटा लेंगे, जो उन्हीं के घर में सुलग रही है।
“बलूचिस्तान” का नाम लिए जाने का विरोध करते समय वामपंथियों की तीन प्रमुख दलीलें होती हैं। पहली, उन्हें लगता है कि इससे भड़ककर पाकिस्तान कश्मीर की बात करेगा। वे यह भी कहते हैं कि पाकिस्तान (और दूसरे देश) पूर्वोत्तर की तरह देश के दूसरे हिस्सों में अशांति भड़काएंगे। दोनों दलीलों के पीछे धारणा यही है कि अगर हम “बलूचिस्तान” की बात नहीं करेंगे तो ये ताकतें कश्मीर तथा पूर्वोत्तर की बात करना बंद कर देंगी, लेकिन यह धारणा पूरी तरह गलत है।
दूसरी मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है। बलूचिस्तान के मसले पर कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब है क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के बीच शर्म-अल-शेख संयुक्त बयान उसी का किया धरा है। संसद में लगातार कम होती संख्या, पीओके तथा बलूचिस्तान के मुद्दे और कर्नाटक में राजद्रोह कानून के तहत उसकी ही सरकार द्वारा एमनेस्टी इंटरनेशनल के खिलाफ दर्ज की गई प्राथमिकी के तिहरे झटकों ने उसकी दुर्दशा कर दी है। आजकल कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला का असली काम सरकार पर हमला करना नहीं रह गया है बल्कि दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, पी चिदंबरम और कपिल सिब्बल जैसों के बयानों से पार्टी को अलग करना ही उनके जिम्मे रह गया है। संप्रग के शासन में इसी मंडली ने 2जी घोटाले में “शून्य घाटे का सिद्धांत” दिया, 26 नवंबर के मुंबई हमलों का दोष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऊपर मढ़ा और बाटला हाउस में छिपे हुए आतंकियों पर कार्रवाई करने पर सुरक्षा बलों की अलोचना की। आज इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है। कांग्रेस के प्रवक्ताओं की कुल संख्या से ज्यादा संख्या में स्वर इन मसलों पर कांग्रेस के भीतर से उठ रहे हैं। फिर भी किसी को नहीं पता कि कांग्रेस का आधिकारिक रुख क्या है। हर कोई अपनी बात साबित करने के लिए “मैं हूं ना” का राग अलाप रहा है। समस्या तब और बढ़ गई, जब कर्नाटक में कांग्रेस की ही सरकार ने “आजादी” के नारे लगाने वालों पर राजद्रोह का आरोप मढ़कर उन्हें भौचक्का कर दिया, लेकिन वह अलग मामला है।
कांग्रेस पार्टी की दयनीय हालत का अंदाजा लगाने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त है। पार्टी के संचार विभाग के प्रमुख सुरजेवाला ने सलमान खुर्शीद के बयान से पार्टी को अलग किया तो अगले ही दिन खुर्शीद ने कहा, “लेकिन यह पार्टी का विचार नहीं है। जब तक मुझे कांग्रेस से निकाला नहीं जाता तब तक मैं वरिष्ठ प्रवक्ता रहूंगा। और मैं बता रहा हूं कि यह पार्टी का विचार नहीं है।” जिस पार्टी का विदेश मंत्री किसी संयुक्त राष्ट्र के मंच पर किसी और देश के प्रतिनिधि का भाषण पढ़ डालता है, ऐसी पार्टी से और क्या अपेक्षा की जा सकती है। लेकिन सलमान खुर्शीद की पीड़ा समझी जानी चाहिए। संप्रग के “थिंक टैंक” में शामिल उनके सभी अन्य साथियों सिब्बल, चिदंबरम, जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह को राज्यसभा में सीटें मिल गई हैं, लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला। इसलिए अगर वह निकाले जाने की बात कर रहे हैं तो अचरज कैसा। ऐसी परिस्थितियों में तो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री मोदी के बजाय अपने ही साथियों को “ओम शांति, शांति, शांति” का पाठ पढ़ाना चाहिए।
तीसरे वाम-उदारवादी बुद्धिजीवी हैं। “बलूचिस्तान” का नाम लिए जाने का विरोध करते समय उनकी तीन प्रमुख दलीलें होती हैं। पहली, उन्हें लगता है कि इससे भड़ककर पाकिस्तान कश्मीर की बात करेगा। वे यह भी कहते हैं कि पाकिस्तान (और दूसरे देश) पूर्वोत्तर की तरह देश के दूसरे हिस्सों में अशांति भड़काएंगे। दोनों दलीलों के पीछे धारणा यही है कि अगर हम “बलूचिस्तान” की बात नहीं करेंगे तो ये ताकतें कश्मीर तथा पूर्वोत्तर की बात करना बंद कर देंगी, लेकिन यह धारणा पूरी तरह गलत है।
जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता रोकना, कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए आतंकवाद को सरकारी उपाय के तौर पर प्रयोग करने से बाज आना और पीओके तथा बलूचिस्तान में मानवाधिकार उल्लंघन रोकना तीन ऐसी बातें हैं, जिनसे पाकिस्तान स्वयं को विश्वसनीय लोकतांत्रिक देश साबित कर सकता है। अब यह पाकिस्तान पर निर्भर करता है कि वैश्विक समुदाय की इन अपेक्षाओं का वह कैसा उत्तर देता है। प्रधानमंत्री द्वारा पीओके और बलूचिस्तान के जिक्र ने इन आवाजों को मजबूती ही दी है। दुर्भाग्य से हमारे देश में कुछ तबकों को इतना “मोदीफोबिया” (मोदी का डर) है कि वे व्यापक राष्ट्रीय हितों को भी दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं। समय आ गया है कि ऐसे तत्वों की असली मंशा का पर्दाफाश कर दिया जाए।
अगली दलील यह है कि इन मसलों पर “अंतरराष्ट्रीय समुदाय” अर्थात् अमेरिका और नाटो देश से समर्थन प्राप्त नहीं है, तो अमेरिकी विदेश विभाग के आधिकारिक प्रवक्ता मार्क टोनर का ताजा बयान इस धारणा को भी धता बताता है, जिसमें कहा गया है कि पीओके और बलूचिस्तान में मानवाधिकारों की स्थिति से अमेरिका चिंतित है। इसी तरह ‘उच्च नैतिक आधार’ का सिद्धांत देने वालों को यह बताने की जरूरत है कि नैतिक आधार के नाम पर अपनी हीलाहवाली और कमजोरी को छिपाया नहीं जा सकता और हमारे नैतिक आधार का सम्मान तभी होगा, जब हमारे पास ताकत होगी।
जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी तत्वों को सीमा पार से मिल रही मदद को ये बुद्धिजीवी अनदेखा कर देते हैं। उसके बजाय उनका तर्क होता है कि भारत सरकार की सफलता का पैमाना केवल और केवल “कश्मीर” है चाहे उसके लिए जिहादियों के दबाव के आगे झुकना ही क्यों न पड़े। दिग्विजय सिंह पहले ही “भारत के कब्जे वाला कश्मीर” कह चुके हैं। 10 जनपथ के करीब होने के कारण मिले ऊंचे ओहदे गंवाने के बाद अपना प्रभाव खो रही इस जमात से इससे ज्यादा उम्मीद की भी नहीं जा सकती।
बलूचिस्तान के मामले में यह बिल्कुल सच है कि पाकिस्तानी सेना द्वारा बलूच नागरिकों पर अत्याचार का लंबा-चौड़ा ब्योरा है, जिसमें सामूहिक हत्या, अपहरण और बलात्कार शामिल हैं। दुनिया में बहुत कम सरकारें हुई हैं, जिन्होंने अपने ही नागरिकों पर इस तरह के अत्याचार किए हैं। यह मसला उठाकर तथा पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर खींचकर भारत ने ठीक ही किया है।
अंत में हमारे भू-राजनीतिक हित की सुरक्ष करने तथा उन्हें बढ़ावा देने के प्रति हमारी दृढ़ता इस सरकार की विदेश नीति का अटूट हिस्सा है। पाकिस्तान के साथ शांति से रहना वांछनीय लक्ष्य है किंतु यह इस बात पर निर्भर करता है कि पाकिस्तान बदले में सद्भावना के उपाय करना चाहता है या नहीं करना चाहता। जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता रोकना, कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए आतंकवाद को सरकारी उपाय के तौर पर प्रयोग करने से बाज आना और पीओके तथा बलूचिस्तान में मानवाधिकार उल्लंघन रोकना तीन ऐसी बातें हैं, जिनसे पाकिस्तान स्वयं को विश्वसनीय लोकतांत्रिक देश साबित कर सकता है। अब यह पाकिस्तान पर निर्भर करता है कि वैश्विक समुदाय की इन अपेक्षाओं का वह कैसा उत्तर देता है। प्रधानमंत्री द्वारा पीओके और बलूचिस्तान के जिक्र ने इन आवाजों को मजबूती ही दी है। दुर्भाग्य से हमारे देश में कुछ तबकों को इतना “मोदीफोबिया” (मोदी का डर) है कि वे व्यापक राष्ट्रीय हितों को भी दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं। समय आ गया है कि ऐसे तत्वों की असली मंशा का पर्दाफाश कर दिया जाए।
(लेखक भाजपा के विदेश विभाग के प्रमुख हैं )