1962 के भारत में अरूणाचल प्रदेश (तत्कालीन नेफा) में चल रहे भीषण युद्ध के बीच 4 कोर्प्स के कमांडर बीएम कौल बीमारी का बहाना बनाकर दिल्ली आ गए थे। दूसरी ओर 2020 के भारत में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लद्दाख में तैनात जवानों की हौसला अफजाई के लिए सीमा पर पहुंच गए। इससे साबित होता है कि यह 1962 का भारत नहीं, 2020 का ‘नया भारत ‘है।
15 जून को पूर्वी लद्दाख में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई हिंसक झड़प और इसके बाद सीमा बने तनावपूर्ण माहौल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन को कड़ा संदेश देते हुए अचानक सीधे 11 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित नीमू बेस पर पहुंचे।
उन्होंने सेना और भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के जवानों के साथ मुलाकात की और उनका हौसला बढ़ाया। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी के साथ सीडीएस बिपिन रावत और सेना प्रमुख मनोज मुकुंद नरवणे भी मौजूद थे।
प्रधानमंत्री ने अपने इस दौरे से चीन को यह बता दिया कि वह खुद वास्तविक नियंत्रण रेखा की रक्षा के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने इस दौरे से यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि चीन की इंच-इंच बढ़ने की कुटिल चाल दक्षिण चीन सागर में चल सकती हैं लेकिन भारत में नहीं क्योंकि यह 1962 वाला भारत नहीं है।
प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को साफ संदेश दे दिया कि उसे पूर्वी लद्दाख में 5 मई से पहले वाली स्थिति बहाल करनी ही होगी। इस मुद्दे पर भारत कोई समझौता नहीं करेगा। उन्होंने जवानों को यह भी संदेश दिया कि चीन के साथ जारी टकराव लंबा खिंच सकता है और उन्हें लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा। प्रधानमंत्री ने चीन को यह भी जता दिया है कि भारत, ड्रैगन के साथ बातचीत को तैयार है, लेकिन किसी भी आक्रामक कार्रवाई का करारा जवाब दिया जाएगा।
बात-बात पर धौंस जमाने वाले चीन ने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि भारत इस तरह का आक्रामक रवैया अपनाएगा। दरअसल चीन भारत को अभी भी 1962 वाले आइने से परखता है। गौरतलब है कि 1962 में नेहरू जी की अकर्मण्यता के चलते चीन के हाथों भारत की करारी हार हुई थी और हमें हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन गंवानी पड़ी थी।
यह पराजय भारतीय सेना की नहीं बल्कि अक्षम नेतृत्व की थी क्योंकि 1962 में हमारी सेना के पास अस्त्र–शस्त्र ही नहीं, ऊनी कपड़े तक की कमी थी। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अंबाला बेस से जिन 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखीं थी। उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था। नतीजा सभी सैनिक ठंड से बेमौत मर गए।
सैन्य साजो-सामान के साथ-साथ कमजोर नेतृत्व भी हार का प्रमुख कारण था। एक ओर चीन से युद्ध चल रहा था तो दूसरी ओर पूर्वोत्तर भारत में कमांड कर रहे 4 कोर्प्स के कमांडर बीएम कौल बीमारी का बहाना बनाकर दिल्ली आ गए।
प्रधानमंत्री नेहरू के रिश्तेदार और रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के कृपा पात्र बीएम कौल के परम युद्ध कौशल को देखते हुए उन्हें दिल्ली के मोती लाल नेहरू मार्ग स्थित घर से युद्ध संचालन की अनुमति दे दी गई। विश्व इतिहास में शायद यह दुनिया का पहला युद्ध होगा जहां कमांडर युद्ध क्षेत्र में सैनिकों का नेतृत्व न करके सैकड़ों मील दूर स्थित अपने घर में बैठा था।
जब सेना बिना कमांडर युद्ध लड़ेगी तो नतीजा क्या होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। यही 1962 में भी हुआ। बाद में चीन के हाथों मिली पराजय की जांच के लिए हैंडरसन ब्रुक्स समिति का गठन किया गया जिसकी रिपोर्ट आज तक संसद में पेश नहीं हुई। इस रिपोर्ट में बीएम कौल की अक्षमता सामने आई लेकिन नेहरू जी के रिश्तेदार होने के कारण उन्हें बख्श दिया गया।
1962 के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ सेना को अत्याधुनिक हथियारों व दूसरे साजोसामान से लैस कर रहे हैं बल्कि सैन्य कमांडरों को स्थिति से निपटने के लिए पूरी छूट भी दे रखी है। चीन के खिलाफ डिजिटल स्ट्राइक के बाद प्रधानमंत्री चीन की चौतरफा घेरेबंदी कर रहे हैं।
इसी का नतीजा है कि दुनिया के बड़े व शक्तिशाली देशों का भारत के पक्ष में समर्थन बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अग्रिम मोर्चों पर तैनात जवानों से मिलकर न सिर्फ जवानों का मनोबल बढ़ाया बल्कि चीन को यह भी संदेश दे दिया कि आज के भारत को 1962 का भारत समझने की भूल वह न करे।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)