केजरीवाल उस छोटे बच्चे, जो पहले खुद की ही बदमाशी से खुद को चोट पहुँचाता है और फिर रोना-धोना मचाकर पूरे घर को परेशान भी करता है, की तरह बर्ताव कर रहे हैं। अपने पद के प्रति उनमें दूर-दूर तक कोई दायित्व-बोध नजर ही नहीं आता। ऐसे दायित्व-बोध से हीन नेता को कितने भी अधिकार मिल जाएं, उसके जनता के हित में काम करने की संभावना कम ही होती है।
नयी तरह की राजनीति के वादे के साथ सत्ता में आए अरविंद केजरीवाल ने अपने तीन सालों से अधिक के कार्यकाल में दिखा दिया है कि ‘नयी राजनीति’ से उनका क्या मतलब था। लोग समझ चुके हैं कि ‘नयी राजनीति’ के नाम पर उन्हें केवल ठगा गया। वास्तव में ‘नयी राजनीति’ से केजरीवाल का इशारा राजनीति की पुरानी व्यवस्थाओं में परिवर्तन की तरफ नहीं बल्कि नए तरह के राजनीतिक हथकंडो की तरफ था।
अबतक के अपने कार्यकाल में केजरीवाल ने इस दावे पर खरा उतरते हुए आए दिन एक नया राजनीति हथकंडा दिल्ली की जनता के सामने रखा है। इन दिनों वे दिल्ली के राजनिवास में उपराज्यपाल अनिल बैजल के खिलाफ पिछले छः दिन से काम-काज छोड़ अपने मंत्रियों सहित धरने पर बैठकर अपनी ‘नयी तरह की राजनीति’ में एक नया अध्याय जोड़ने में लगे हैं।
केजरीवाल सरकार ‘डोर टू डोर राशन योजना’ को मंजूरी देने, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और अधिकारियों की हड़ताल खत्म करवाने की मांग लेकर धरने पर बैठी है। इन मांगों की पड़ताल करें तो राशन योजना केजरीवाल सरकारी की एक महत्वाकांक्षी योजना है, जिसके तहत घर-घर राशन पहुँचाने की व्यवस्था है।
केजरीवाल का आरोप है कि उपराज्यपाल ने इस योजना को मंजूरी नहीं दी है, जबकि विपक्षी भाजपा का कहना है कि इस योजना की फाइल सम्बंधित मंत्री के पास ही लंबित है, ऐसे में केजरीवाल उपराज्यपाल पर फिजूल में आरोप लगा रहे हैं। बहरहाल इस मामले की सच्चाई जो भी हो, मगर केजरीवाल की कार्य-संस्कृति क इतिहास बताता है कि वे प्रक्रियाओं का मखौल बनाने और अपनी गलती दूसरे के सिर मढ़ने में कितने माहिर हैं। संभव है कि इस मामले में भी यही किया जा रहा हो।
दूसरी मांग यानी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का जहाँ तक सवाल है, तो ये किसी भी स्थिति में उचित प्रतीत नहीं होता। दिल्ली देश की राजधानी है, ये दुनिया में देश की प्रतिष्ठा और पहचान का प्रतिनिधित्व करती है। अतः इसकी सुरक्षा व्यवस्था से लेकर विकास तक पर अन्य राज्यों से अलग एक विशेष रकम खर्च होती है, जो केंद्र वहन करता है। यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य बना दिया गया, तो इस खर्च के लिए रकम का बंदोबस्त राज्य सरकार कहाँ से करेगी ? क्या दिल्ली इस लायक रह पाएगी कि वो विश्व में भारत की राजधानी के रूप में पहचानी जाए ?
अभी जितने अधिकार और दायित्व केजरीवाल के पास हैं, उनका तो वे सम्यक प्रकार से निर्वहन कर नहीं पा रहे और अपने महकमों में हर तरफ अव्यवस्था का वातावरण कायम किए हुए हैं। ऐसे में पूर्ण राज्य की अवस्था में दिल्ली की क्या दशा होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। केजरीवाल से पूर्व में भी दिल्ली में मुख्यमंत्री हुए हैं, जिन्होंने केंद्र से तालमेल बिठाकर बेहतर काम भी किया है, लेकिन उन्होंने तो कभी पूर्ण राज्य जैसी कोई मांग नहीं उठाई। फिर सब समस्याएँ केजरीवाल को ही क्यों हो रही हैं ?
तीसरी मांग तो अजीब ही है कि अधिकारियों की हड़ताल ख़त्म करवाई जाए। दरअसल दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव से केजरीवाल के साथ एक मीटिंग में हुई मारपीट की घटना के बाद अधिकारियों ने हड़ताल का ऐलान किया था। केजरीवाल का कष्ट है कि अधिकारी कामकाज में सहयोग नहीं कर रहे, अतः उपराज्यपाल उनकी हड़ताल ख़त्म करवाएं, जबकि उपराज्यपाल का कहना है कि अधिकारी किसी हड़ताल पर हैं ही नहीं।
वैसे यदि एकबार के लिए मान भी लें कि अधिकारी हड़ताल पर हैं, तो इसके लिए दोषी भी तो केजरीवाल ही हैं। मुख्य सचिव संग मारपीट का आरोप आखिर उनकी ही सरकार के लोगों पर है, ऐसे में अधिकारियों को मनाने का काम भी केजरीवाल को खुद करना चाहिए। लेकिन, वे तो किसी छोटे बच्चे, जो पहले खुद की ही बदमाशी से खुद को चोट पहुँचाता है और फिर रोना-धोना मचाकर पूरे घर को परेशान भी करता है, की तरह बर्ताव कर रहे हैं।
अपने पद के प्रति उनमें दूर-दूर तक कोई दायित्व-बोध नजर ही नहीं आ रहा। अगर उनमें दायित्व-बोध होता तो ऐसे कामकाज छोड़कर छः दिन से धरना जमाकर नहीं बैठे होते। ऐसे दायित्व-बोध से हीन नेता को कितने भी अधिकार मिल जाएं, उसके जनता के हित में काम करने की संभावना कम ही होती है।
दरअसल केजरीवाल अबतक के कार्यकाल में दिल्ली की जनता से किए लम्बे-चौड़े वादों को पूरा करने में नाकाम ही साबित हुए हैं, ऐसे में जवाबदेही और काम से बचने के लिए उन्होंने उपराज्यपाल और केंद्र के अड़ंगे का एक बहाना इजाद कर लिया है। अपनी हर नाकामयाबी का ठीकरा वे केंद्र के सिर फोड़ देते हैं। इस वक़्त भी वे यही कर रहे हैं। हालांकि केजरीवाल भले न समझें, मगर दिल्ली की जनता सब देख-समझ रही है और एक-एक बात का हिसाब चुनाव में जरूर लेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)