1962 में चीन के आक्रमण के समय वामपंथियों ने खुलेआम चीन का साथ दिया और बीजिंग नजदीक, दिल्ली दूर का नारा लगाया। भारत-चीन युद्ध को वामपंथियों ने युद्ध न मानकर समाजवादी और पूंजीवादी राज्य के बीच का संषर्ष करार दिया। कोलकाता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने चीन का समर्थन करते हुए कहा था – चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता।
भारत और चीन के बीच सीमा पर हिंसक झड़प और सैन्य तैनातियों के बीच एक बार फिर वामपंथियों का असली चेहरा उजागर हुआ। जहां देश भर में चीन के प्रति रोष है और चीन में बने सामानों के बहिष्कार की मुहिम जोर पकड़ चुकी है, वहीं वामपंथी पार्टियां इस संवेदनशील मुद्दे पर मुंह सिले हुए हैं। माकपा द्वारा इस मामले में जो आधिकारिक बयान जारी किया गया उसमें कहीं चीन की निंदा नहीं की गयी थी। यह बयान पढ़कर ऐसा लगता जैसे देश के किसी राजनीतिक दल ने नहीं, अपितु किसी विदेशी संस्था ने भारत-चीन तनाव पर तटस्थ टिप्पणी की हो।
यहाँ तक कि कई वामपंथी नेता तो भारत-चीन के बीच तनाव के लिए अमेरिका और खुद अपने देश की सरकार को दोषी ठहराने में जुटे हैं। यह पहली बार नहीं हुआ जब वामपंथियों का देश विरोधी चेहरा सामने आया हो। 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया और 1959 में दलाई लामा को निष्काषित कर दिया तब भारत के वामंपथी चीन के समर्थन में नारे लगा रहे थे।
1962 में चीन के आक्रमण के समय वामपंथियों ने खुलेआम चीन का साथ दिया और बीजिंग नजदीक, दिल्ली दूर का नारा लगाया। भारत-चीन युद्ध को वामपंथियों ने युद्ध न मानकर समाजवादी और पूंजीवादी राज्य के बीच का संषर्ष करार दिया। कोलकाता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने चीन का समर्थन करते हुए कहा था – चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता।
वामपंथियों का यही चेहरा समय-समय पर उजागर होता रहा है। देश के वाम बौद्धिकों का गढ़ माने वाले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कश्मीर की आजादी, भारत तेरे टुकड़े होंगे, भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी जैसे नारे इनकी देश विरोधी सोच का प्रमाण हैं। वामपंथियों की देशविरोधी सोच को इतिहास के इन कुछेक उदाहरणों से भलीभांति समझा जा सकता है –
- वामपंथियों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए राष्ट्रवादी आंदोलन का पूंजीपतियों और फासीवादी ताकतों के सहयोग के रूप में वर्णन किया और उन्होंने ब्रिटिश प्रयासों का समर्थन किया। इस तरह उन्होंने आजादी के आंदोलन में राष्ट्रवादियों की जगह अंग्रेजों का साथ दिया।
- वामपंथियों ने न सिर्फ जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया बल्कि ब्रिटिश शासन के समक्ष प्रस्ताव रखा कि भारत को कई टुकड़ों में विभाजित कर बहुराष्ट्र वाले सिद्धांत को लागू किया जाए।
- वामपंथी नेताओं ने प्रदर्शनों का आयोजन कर पाकिस्तान के लिए चल रहे आंदोलन को समर्थन दिया। ई एम एस नम्बूदरीपाद और एक के गोपालन ने मुसलमानों के साथ जुलूस का नेतृत्व किया और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए।
- वामपंथियों के लिए रूसी और चीनी राष्ट्रवाद सर्वहारा राष्ट्रवाद था, तो भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने बुर्जुआ राष्ट्रवाद घोषित कर दिया। ये वामपंथियों की ‘जिस थाली में खाएं उसी में छेद करें’ वाली नीति का उदाहरण है।
- भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी तो अपने जन्म से ही सांप्रदायिक अलगाव का विचार फैलाने में जुटी है। उसने भारत के पूर्व-इस्लामी अतीत पर मुसलमानों को भ्रमित किया जिससे मुसलमानों के मन में अलगाववाद की भावना पनपी। इसका अंतिम परिणाम देश विभाजन के रूप में सामने आया। इतना ही नहीं हिंदुओं को आपस में बांटने और राष्ट्रवाद की भावना को कमजोर करने के लिए इन्होंने विवादास्पद आर्यन आक्रमण सिद्धांत को जन्म दिया। इससे उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच वैचारिक खाई पैदा हुई।
- इतिहास की सच्चाइयों को नई पीढ़ी से छिपाने के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने कांग्रेस सरकारों के साथ गठजोड़ बनाकर ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। यही कारण है कि इतिहास की पुस्तकों में मुस्लिम आक्रमणकारियों की बर्बरता के बारे में बहुत कुछ लिखा नहीं मिलेगा। उनकी नजर में मुसलमानों ने मंदिर विध्वंस धार्मिक नहीं बल्कि आर्थिक कारणों से किया था।
समग्रत: वामपंथियों ने चीन के आक्रामक तेवर पर जिस प्रकार खामोशी की चादर ओढ़ी है, उसमें कुछ नया नहीं है बल्कि यही उनका असली चेहरा है। देश विरोधी रूख, सुविधावादी वैचारिक प्रतिबद्धता, कट्टरपंथियों को प्रश्रय, भ्रष्टाचार जैसे कारणों से वामपंथियों की जमीन खिसकती गई है। आज की तारीख में ये विश्वविद्यालयों और मीडिया तक सिमट कर रह गए हैं। यहां से भी इनका बोरिया-बिस्तर जल्दी ही सिमट जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)