भारत हाल ही में बीते पृथ्वी दिवस पर पूरी पृथ्वी कि चिंता करने वाले जिम्मेदार भागीदार के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। इस देश ने त्याग और सेवा को सदैव प्रतिष्ठा दी है। पूरी वसुधा को कुटुंब बनाने के आदर्श को प्राप्त करने के लिए हमारी परंपरा ने साथ-साथ चलने (सहनाववतु…) का निर्देश दिया है। साथ-साथ चलने को सुगम बनाने के लिए त्याग कर-करके भोग (तेन त्यक्तेन भुंजीथा…) के व्यवहार की प्रेरणा दी है। इसलिए यू ट्यूब चैनल के दर्शकों के मत की तरह ही भारत के आम जनता की भी धारणा त्याग और सेवा के विरुद्ध नहीं हो सकती है।
यूट्यूब चैनल ‘ओनली आई ए एस’ के सात लाख सब्सक्राइबर में से एक मैं भी हूँ । यह चैनल संपादकीय समीक्षा के लिए लोकप्रिय है। इस चैनल पर ‘द हिन्दू’ पत्र में विवेक काटजू’ द्वारा प्रकाशित लेख ‘वैक्सीन डिप्लोमेसी दैट नीड स्पेसिफिक क्लासीफिकेशन’ की समीक्षा देख रहा था। लेखक का दृष्टिकोण टीके के दान के विरुद्ध था, इसके बावजूद समीक्षक ने एक पोल कराया कि जिसे सरकार का कदम पसंद हो वो विडियो को लाइक करे जिसे नापसंद हो वह डिसलाइक करे।
मैंने जिज्ञासावश इसका परिणाम देखना चाहा। आश्चर्यजनक रूप से 2.1 हजार लाइक थे तो 718 डिसलाइक थे। इस समय कोविड 19 की दूसरी लहर का कोहराम मचा हुआ है, इसके बावजूद सरकार को विरोध की तुलना में तीन गुना अधिक युवा समर्थन कर रहे हैं यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। इसी दौरान पृथ्वी दिवस के बारे में पढ़ते-पढ़ते पर्यावरणीय आंदोलनों के उत्स में उतरने लगा जिसे समझते हुए भारतीय चेतना का यह अचंभा शमित होता गया।
22 अप्रैल 1970 को जब पृथ्वी को बचाने के लिए पहली बार 20 मिलियन अमेरीकन एकत्रित हुए होंगे तो उन्होने भी नहीं सोचा होगा कि वास्तविक संकट इतना निकट है। इस एकत्रीकरण को पर्यावरणीय आंदोलनों का आरम्भ बिन्दु माना जाता है। पश्चिम के देश समुद्री सतह पर तेल फैलने से सागरीय जीवों को होने वाली समस्या के लिए आंदोलन करने को बहुत गर्व से याद करते हैं। मानव चेतना के विस्तार की इस घटना को इतिहास के मील का पत्थर माना जाता हैं, जो सही भी है।
‘सर्वत्र संभावनाएं हैं और मनुष्य इन संभावनाओं का स्वामी है’ मंत्र का जाप करने वाले समाज द्वारा पूरी पृथ्वी की चिंता करना एकदम नयी बात थी। स्वार्थ के दायरे से बाहर सोचने के लिए अमेरिका का समाज स्वयं को यूरोप के समाज से श्रेष्ठ मानता भी है। परंतु उदारता, प्रगतिशीलता और सभ्यता को परिस्थितियों के निकष पर कसना पड़ता है। कोविड19 की आपदाकारी परिस्थिति ने तो सभी समाजों के मूल चरित्र की परीक्षा ले ली।
हाल के दिनों मे संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी घरेलू प्राथमिकताओं का तर्क देकर दुनिया के अन्य देशों को टीके के कच्चे माल को देने से इंकार कर दिया। एक व्यवहारिक कूटनीति के स्तर पर इसे गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन उसी देश को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के लिए भारत के सामने हाथ फैलाते हुए देखेंगे और उसपर भारत की सकारात्मक प्रतिक्रिया को याद करेंगे तब एक जिम्मेदार वैश्विक भागीदार का महत्व समझ आएगा।
भारत की विदेश नीति को अपनी आदर्शवादी कूटनीति के लिए हमेशा से आलोचना का सामना करना पड़ा है। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की गुट निरपेक्षता, राजीव गांधी की शांति सेना,अटल बिहारी बाजपेयी की लाहौर यात्रा की ही तरह मोदी सरकार के टीका-दान को भी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
पश्चिम के पर्यावरण बोध का विकास सौंदर्य चेतना से हुआ है। ऊपर जिस आंदोलन का जिक्र किया गया है उसमे स्टोव दंपति को तेल रिसाव के कारण उदविलाव के मृत देह से बैंकूवर के तट कुरूप लगे, इस कुरूपता के विरुद्ध आंदोलन का प्रारम्भ हुआ। वहीं भारत का पर्यावरण बोध साहचर्यचेतना से विकसित हुआ है। उत्तरी अमेरिका के इस आंदोलन के लगभग तीन साल बाद ही 1973 में भारत के तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जनपद के चिपको नामक स्थान पर वन अपरोपण के विरुद्ध एक आंदोलन हुआ। इस आंदोलन का प्रसिद्ध नारा था–
“क्या है जंगल के उपकार
मिट्टी पानी और बयार
मिट्टी पानी और बयार
जिंदा रहने के आधार”
या
“आज हिमालय जागेगा
क्रूर हथौड़ा भागेगा”।
ये नारे लगाते हुए महिलाएं व अन्य गांववासी पेड़ों से चिपक जाते थे। पेड़ों से चिपकने की प्रेरणा भले 1731 के अमृता देवी विश्नोई के आंदोलन से मिली हो जिसमें पेड़ों को बचाने के लिए उनके साथ 363 साथी शहीद हो गए थे लेकिन उनकी चेतना शाश्वत रही है। आखिर जिस समय पूरी दुनिया में वातावरण को मात्र मानव के उपयोग की वस्तु समझा जाता था उस समय ‘जंगल के उपकार’ मानने के लिए कौन से संस्कार प्रेरित कर रहे थे?
भारतीय परंपरा ‘अखंड मण्डल’ के सिद्धान्त पर चलती है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति-परिवार-समाज-देश-विश्व-ब्रह्मांड एक स्पाइरलनुमा संरचना में एक दूसरे से जुड़े हुए, अंतर्संबंधित हैं। कोई भी क्रिया-कारण सम्पूर्ण संरचना को प्रभावित करती है। जब पूरी दुनिया विकास के मॉडल के रूप में पूंजीवाद और साम्यवाद को चुनने के लिए द्वंद्व में थी तब भारत के दो विचारक महात्मा गांधी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय इसी संस्कार से प्रेरित होकर राम राज्य और धर्म राज्य की कामना कर रहे थे जिसके अंतर्गत बाघ-बकरी के एक घाट पर पानी पीने की कल्पना थी।
इस चिरंतन चेतना का दबाव हो या प्रभाव, कोविड-19 के चुनौतीपूर्ण समय मे जब पूरी दुनिया के देश अपने खोल मे सिमट गए तब भारत ने केवल टीका दान ही नहीं किया बल्कि ‘वंदे भारत’ और ‘समुद्र सेतु’ जैसे निकासी अभियान से पूरी दुनिया के नागरिकों को राहत भी पहुंचाया। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के सहयोग के लिए ‘सार्क कोविड फ़ंड’ बनाया। सरकार के इन सहायता कार्यक्रमों को नागरिकों का पूरा समर्थन और विश्व की प्रशंसा भी मिली।
भारत हाल ही में बीते पृथ्वी दिवस पर पूरी पृथ्वी की चिंता करने वाले जिम्मेदार भागीदार के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। इस देश ने त्याग और सेवा को सदैव प्रतिष्ठा दी है। पूरी वसुधा को कुटुंब बनाने के आदर्श को प्राप्त करने के लिए हमारी परंपरा ने साथ-साथ चलने (सहनाववतु…) का निर्देश दिया है। साथ-साथ चलने को सुगम बनाने के लिए त्याग कर-करके भोग (तेन त्यक्तेन भुंजीथा…) के व्यवहार की प्रेरणा दी है। इसलिए यू ट्यूब चैनल के दर्शकों के मत की तरह ही भारत के आम जनता की भी धारणा त्याग और सेवा के विरुद्ध नहीं हो सकती है।
आज हमारी पृथ्वी क्रांतिकारी ऐतिहासिक संकट से गुजर रही है। इस समय जो भी रास्ता अपनाया जाएगा वह सदियों तक अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार को निर्धारित करेगा। यदि पृथ्वी को स्वस्थ्य रखना है और मानव सुरक्षा को बढ़ावा देना है तो वैश्विक प्रयासों के जरिये जनसंख्या, पर्यावरण, तकनीकी नीति और जीवन शैली की वरीयताओं की पहेली को एक साथ सुलझाना होगा।
एक राष्ट्र के रूप में भारत की जीवन शैली पृथ्वी की सुरक्षा की कामना करने वाले दिन का एक आदर्श है। और आदर्श को प्रोत्साहित करना चाहिए न कि हतोत्साहित। हमें भारतीय परंपरा के मोतियों को पिरोने का प्रयास करना चाहिए क्योकि इनको इतने गहरे पानी में पैठ कर चुना गया है कि संकीर्णता अपने आप तिरोहित हो जाती है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज में वरिष्ठ शोध अध्येता हैं और विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के कार्यकर्ता हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)