राहुल गांधी ने पंद्रह विपक्षी दलों के नेताओं के साथ संसद से जंतर मंतर तक पैदल मार्च किया और यह आरोप लगाया कि सरकार संसद में उन्हें बोलने नहीं देती। यह पूरी तरह से ‘एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी’ वाली बात है। ऐसे झूठ राहुल गांधी अक्सर बोलते रहे हैं। संसद से सड़क तक यह सारा नाटक यही दिखाता है कि सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास उचित मुद्दे नहीं हैं, इसलिए नाकामी और बौखलाहट में वो कभी शर्मनाक हंगामे से संसद को बाधित करते हैं तो कभी सड़क पर विरोध करने लगते हैं।
अंततः संसद का मानसून सत्र विपक्ष के हंगामें एवं अराजकता की भेंट चढ़ गया। मानसून सत्र में संसद का कामकाज महज 22 प्रतिशत हुआ। कोरोना संक्रमण की त्रासदी, मंहगाई, कृषि कानून एवं अफगानिस्तान में वर्तमान हालात से उत्पन्न चुनौत जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी विपक्ष ने कोई सार्थक बहस करना उचित नहीं समझा। ओबीसी संविधान संशोधन बिल अवश्य दोनों सदनों से परिचर्चा के साथ बिना एक भी वोट विरोध में पड़े पारित हो गया।
जो विपक्ष बिना पेगासस पर परिचर्चा एवं जाँच के आदेश किसी विषय पर बात करने के लिए तैयार नहीं था, उसने अपने सदस्यों को उपस्थित रहने के लिए व्हिप जारी किया। यह विपक्ष की मजबूरी थी क्योंकि ओबीसी बिल के विरोध या पास होने में अवरोध खड़ा करना उसके चुनाव हितों के लिए नुकसानदेह हो सकता था। इससे विपक्ष का चेहरा उजागर हो गया कि उसके लिए जातीय समीकरण एवं चुनाव हित से बढ़कर देश का कोई मुद्दा महत्वपूर्ण नहीं।
संसद के मानसून सत्र के दौरान पहले दिन से ही विपक्ष का रवैया पूर्णतया नकारात्मक रहा। प्रधानमंत्री द्वारा नए मंत्रियों के परिचय कराने के समय भी विपक्ष का हंगामा एवं नारेबाजी करना यह बताता है कि कांग्रेसनीत विपक्ष को किसी भी संवैधानिक परम्परा की न तो परवाह है और न ही किसी संवैधानिक पद के लिए कोई सम्मान।
यही नहीं, जब सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री ने अपना बयान राज्यसभा में देना चालू किया तो एक विपक्षी सांसद ने उनका कागज छीनकर फाड़ दिया। किसानों पर परिचर्चा के समय राज्यसभा में अध्यक्ष की मेज पर चढ़ जाना, रुलबुक फेंकना एवं नारेबाजी हो हल्ला करना आखिर किस संसदीय गरिमा का अनुपालन है।
सत्र के अन्तिम दिन जिस तरह मार्शल से हाथापाई की तस्वीर आई और एक महिला मार्शल शीशे का दरवाजा टूटने से चोटिल हुई एवं धक्का मुक्की की गई, उसे संसदीय प्रणाली के इतिहास का काला दिन कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी।
यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण है कि जिस पेगासस मुद्दे को तूल देकर मानसून सत्र को हंगामें एवं अवरोध की भेंट चढ़ा दिया गया, वह सर्वदलीय बैठक एवं बिजनेस एडवाइजरी कमेटी में कहीं था ही नहीं। सर्वदलीय बैठक में तीन मुद्दों पर चर्चा की सहमति बनी थी – कोरोना प्रबन्धन, कृषि कानून एवं मंहगाई।
एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट पर आधारित लेख को लेकर पेगासस मुद्दे पर जो हंगामा खड़ा किया गया, उसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगता है कि लेख छपने के दो दिन में ही एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सफाई देकर कहा कि उसने जो लिस्ट दी, वह संभावित टारगेट हैं और उसने किसी की भी जासूसी की बात नहीं कही।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी पेगासस मुद्दे पर जनहित याचिका की सुनवाई करते कहा कि यदि ऐसा हुआ तो मामला गंभीर है परन्तु यह समझ से परे है कि इस मुद्दे पर आज तक कोई एफआईआर दर्ज क्यों नहीं कराई गई।
हकीकत यह है कि विपक्ष कभी भी किसी देशहित के मुद्दे पर चर्चा के लिए गंभीर नहीं दिखा। किसानों के लिए आंसू बहाने का नाटक करने वाले एक दिन भी कृषि कानूनों पर सार्थक बहस करने की हिम्मत नहीं दिखा सके। शायद राहुल गांधी सहित विपक्ष के नेता जानते थे कि कृषि कानूनों पर बहस में वे स्वतः घिर जायेंगे क्योंकि इन कानूनों का विरोध राजनीतिक दुराग्रह से झूठे दुष्प्रचार के सहारे किया जा रहा। तर्क के आधार पर कृषि कानूनों पर सरकार को घेरना विपक्ष के लिए कठिन था क्योंकि ठेके पर खेती पहले से ही अनेक राज्यों में हो रही है।
नए कानून में किसानों के हितों के लिए नियमों को एकरूप एवं किसानों को शोषण से बचाने के प्रावधान किए गए हैं। भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए आइलो बनाने का काम डा मनमोहन सिंह के समय से चल रहा है तब यह कैसे कहा जाता है कि मोदी सरकार पूंजीपतियों के लिए कानून लायी है। अतः कुल मिलाकर कृषि कानूनों पर यदि बहस होती तो कांग्रेस एवं विपक्ष के इस दुष्प्रचार की पोल खुल जाती कि यह काले कानून हैं एवं किसानों के हित के विरुद्ध हैं।
कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतें दुखद है और इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि दूसरी लहर के दौरान कुछ समय तक स्थितियाँ बहुत भयानक रहीं। इस सबके बावजूद देश में कोरोना से मौतों के मामले में हम अमेरिका एवं यूरोपीय देशों से बहुत बेहतर स्थित में हैं। मगर शायद महाराष्ट्र एवं केरल में कोरोना संक्रमण के हालात देखकर विपक्ष ने इस मुद्दे पर चर्चा से बचना ही बेहतर समझा और हंगामा करता रहा।
अब राहुल गांधी ने पंद्रह विपक्षी दलों के नेताओं के साथ संसद से जंतर मंतर तक पैदल मार्च किया और यह आरोप लगाया कि सरकार संसद में उन्हें बोलने नहीं देती। उन्होंने यह भी कहा कि बाहरी लोगों को बुलाकर सांसदों के साथ मारपीट की गई। उन्हें कृषि कानूनों, कोरोना प्रबन्धन जैसे मुद्दे पर बहस से वंचित रखा गया। यह पूरी तरह से ‘एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी’ वाली बात है।
संसद आपने नहीं चलने दी, मानसून सत्र को हंगामें की भेंट चढ़ा दिया और इल्जाम सरकार पर। ऐसे झूठ राहुल गांधी अक्सर बोलते रहे हैं। संसद से सड़क तक यह सारा नाटक यही दिखाता है कि सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास उचित मुद्दे नहीं हैं, इसलिए नाकामी और बौखलाहट में वो ऐसी हरकतें कर रहा है।
प्रधानमंत्री ने सत्र प्रारम्भ होने के पहले ही कहा था कि मैं चाहता हूँ कि विपक्ष सकारात्मक चर्चा करे और तीखे सवाल पूछे। अब राहुल गांधी और विपक्ष को कौन समझाए कि आप सवाल तो तब करेंगे जब सत्र चलने देंगे और परिचर्चा में शामिल होंगे। सत्र बाधित करके आप भले अपने को जीता समझें लेकिन देश की जनता आपके इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार एवं निर्णय से आहत महसूस कर रही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)