अगर इस क्रूर हत्या की मानसिकता के खिलाफ पूरा समाज खड़ा नहीं होगा तो समाज के बंटने की संभावना बढ़ जाएगी। दोनों समुदायों के बीच की खाई और चौड़ी होती जाएगी। हालांकि समाज इसपर एकदम चुप नहीं है, सोशल मीडिया पर इस हत्या के बाद से लोगों का आक्रोश देखा जा सकता है। लेकिन, ऐसी घटनाओं से अगर सामाजिक अलगाव पैदा होता है, तो इसके लिए ज़िम्मेदार वैसे लोग होंगे जो इखलाक-जुनैद आदि की हत्या पर हिन्दू आतंकवाद का जुमला गढ़कर अपनी दूकान चलाते रहते हैं, जबकि अंकित, चन्दन और डॉ नारंग आदि लोगों की हत्या पर सन्नाटा मार लेते हैं। ऐसा करने वालों को अपने गिरेबान में ज़रूर झांकना चाहिए।
अंकित सक्सेना की मौत कोई साधारण मौत नहीं है, यह आतंक और हिंसा का शहर के बीचों-बीच नग्न प्रदर्शन है। दुःख इस बात का है कि कल तक हंसने-खेलने वाले लड़के का देश की राजधानी में सबके सामने क़त्ल हुआ, फिर भी इसपर एक खेमा चुप है। अंकित के नाम पर देश भर में कहीं भी कोई कैंडल मार्च नहीं निकला। वे लोग इसपर एकदम चुप हैं, जो पिछले कई मुद्दों पर देश में असहिष्णुता बढ़ने को लेकर अक्सर इंडिया गेट पर मार्च निकालते रहे हैं। यही चुप्पी हमें डराती है, यही चुप्पी हमारे अन्दर खौफ पैदा करती है। यह चुप्पी हमें किसी साजिश की तरह लगती है।
अंकित को किसने मारा हम यह सवाल नहीं कर रहे हैं, वह कोई भी हो सकता था। वह एक भाड़े पर बुलाया गया हत्यारा भी हो सकता था। लेकिन, समाज कोई भी तबका अगर इस मौत पर तमाशबीन बना रहता है या यह कहकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करता है कि यह घटना दो परिवारों के बीच का निजी मामला है, तो इससे समस्या सुलझेगी नहीं, और उलझेगी।
अंकित की हत्या उस मुस्लिम परिवार द्वारा समझ-बूझकर की जाती है, जिसकी बेटी से अंकित सालों से मोहब्बत करता है। वह मोहब्बत का इज़हार ही तो करने गया था, इसमें गलत क्या था? क्या हिन्दू और मुसलमान के परिवारों के बीच में इस तरह की शादियाँ नहीं हुई? लम्बे समय से होती रही हैं। लेकिन, इस रिश्ते की संभावना को लेकर इतनी घृणा, इतना आतंक, ऐसी बर्बरता क्यों। इस हॉरर या ऑनर किलिंग के बाद कम से कम वैसे शहरी युवा जो एक साझी संस्कृति की बात करते रहे हैं, अब धार्मिक और सामाजिक अलगाव का हिस्सा बनने को मजबूर हों तो ये कोई अस्वाभाविक बात नहीं होगी।
अगर इस क्रूर हत्या की मानसिकता के खिलाफ पूरा समाज खड़ा नहीं होगा तो समाज के बंटने की संभावना बढ़ जाएगी। दोनों समुदायों के बीच की खाई और चौड़ी होती जाएगी। हालांकि समाज इसपर एकदम चुप नहीं है, सोशल मीडिया पर इस हत्या के बाद से लोगों का आक्रोश देखा जा सकता है। लेकिन, ऐसी घटनाओं से अगर सामाजिक अलगाव पैदा होता है, तो इसके लिए ज़िम्मेदार सियासत से लेकर समाज तक में फैले वैसे लोग होंगे जो इखलाक-जुनैद आदि की हत्या पर हिन्दू आतंकवाद का जुमला गढ़कर अपनी दूकान चलाते रहते हैं, जबकि अंकित, चन्दन और डॉ नारंग आदि की हत्या पर सन्नाटा मार लेते हैं। ऐसा करने वालों को अपने गिरेबान में ज़रूर झांकना चाहिए।
इस हत्या से ज्यादा इससे लोगों के बीच पैदा होने वाले उस अविश्वास से डर लग रहा है, जो बहुत से लोगों के ज़ेहन में कहीं न कहीं घर कर जाएगा। दिल्ली जैसे महानगर में अलग-अलग विश्वास, अलग अलग धर्म के लोग एक ही सोसाइटी में रहते हैं, एक फ्लोर शेयर करते हैं। कोई किसी का धर्म नहीं पूछता। पर ऐसी हत्याओं के बाद क्या सब इसी तरह सहज रह पाएगा ?
और जिस रघुबीर नगर इलाके में अंकित और वह मुस्लिम लड़की का बचपन साथ खेलते हुए गुजरा, वहां हर घर एकदूसरे से लगा हुआ है। आपके घर में क्या सब्जी पक रही है, यह भी सबको पता होता है। अंकित सभी धर्मों का सम्मान करता था. उसके दिल में तो किसी धर्म को लेकर कोई गलत भावना भी नहीं थी, ऐसे में उसकी हत्या करने वाले मुसलामानों के विषय में इससे अलग और क्या कहा जा सकता है कि वे स्वभाव से ही अपराधी थे।
हिंदुस्तान के बहुत से शहरों में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लोग साथ बैठकर खाते हैं, साथ कारोबार करते हैं, साथ पार्टी करते हैं। लेकिन, इस घटना ने तो उस राक्षस को बेनकाब कर दिया है, जो लोगों के अन्दर छुपा हुआ है। क्या आने वाले दिनों में दो अलग-अलग समुदाय के बच्चे साथ-साथ पार्क में नहीं खेलेंगे, साथ होली और दिवाली नहीं मनाएंगे, साथ-साथ ईद नहीं मनाएंगे? इन सवालों का जवाब हम सबको देना है। लेकिन, ज्यादा जवाब उनको देना है जो फर्जी सेक्युलरिज्म की आड़ में अक्सर हिन्दू विरोध और मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल खेलकर सामाजिक समरसता को नुकसान पहुँचाने में लगे रहते हैं। अंकित की हत्या पर ऐसे लोगों की बेहद चुप्पी डराने वाली है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)