संघ सैनिकों के प्रति कितना सम्मान भाव रखता है, इसका अंजादा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1965 के ही युद्ध में आधी रात को आरएसएस के दिल्ली कार्यालय में युद्ध के दौरान घायल सैनिकों के लिए खून की कमी की जानकारी प्राप्त हुई और सुबह–सुबह पांच सौ की संख्या में संघ के स्वयंसेवक रक्तदान करने के लिए सैनिक अस्पताल पहुँच गए। अतः कहना न होगा कि सेना के प्रति संघ के सम्मान और समर्पण को किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है, उसकी गाथा इतिहास में दर्ज है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर तमाम प्रकार की भ्रांतियां एवं दुष्प्रचार लंबे समय से देश में फैलाए जाते रहे हैं। कांग्रेस एवं वामी बुद्धिजीवियों का खेमा संघ के लिए साम्प्रदायिक एवं राष्ट्र विरोधी संगठन जैसी अफवाहों को हवा देने की जिम्मेदारी अपने कंधो पर लम्बे समय से लिए बैठा है। किंतु, वर्तमान समय में इनका हर दाँव विफ़ल साबित हो रहा है, जिससे तंग आकर इस कबीले के लोगों ने नया ढंग इजाद किया है – वह है संघ से जुड़े पदाधिकारियों के बयानों को अपनी सुविधा के हिसाब से तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना। ताज़ा मामला संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा बिहार के मुजफ्फरपुर में रविवार को दिए भाषण से सम्बंधित है।
संघ प्रमुख ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए संघ के स्वयंसेवकों की क्षमता को उद्घाटित करती एक बात कही, इसमें उन्होंने सेना की तरह कार्य करने के संदर्भ में एक आम आदमी और एक स्वयंसेवक के बीच तुलना की थी। मोहन भागवत के इस साधारण से बयान के आने के बाद देश के राजनीतिक गलियारों से लेकर बुद्धिजीवियों तक के बीच जैसे भूचाल-सा मच गया। देश की छद्म सेकुलर बिरादरी संघ प्रमुख के इस बयान को इस ढंग से प्रस्तुत करने में लग गयी जैसे कि भागवत ने सेना का अपमान किया है, देश में सेना के बरक्स आरएसएस ने एक सेना तैयार कर लिया है, आदि इत्यादि। मीडिया के बड़े हिस्से ने भी ‘कौआ कान ले गया’ वाली पत्रकारिता करने में दिलचस्पी दिखाई और कान पर हाथ फिराने की बजाय कौवे के पीछे दौड़ पड़े। मानों जैसे उनके लिए इस बयान को सुनने-समझने की बजाय संघ और संघ प्रमुख की आलोचना अधिक जरूरी हो।
बात जब ज्यादा बढ़ी तो उक्त बयान के मद्देनजर संघ को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि संघ प्रमुख की बात को गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। यह सेना के साथ तुलना नहीं थी, पर सामान्य समाज और स्वयंसेवकों के बीच में थी। संघ प्रमुख के इस पूरे बयान को समझने का प्रयास करें तो इसमें कहीं भी कोई विवाद की स्थिति नज़र नही आती। हर संगठन का प्रमुख अपने संगठन में उत्साह और ऊर्जा के लिए सकारात्मक तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनाता है।
देश में सैनिक तैयार करने के लिए एक स्थापित व्यवस्था है, जिसमें छह माह से ज्यादा समय ट्रेनिंग का होता है, उसके पश्चात् कोई आम आदमी सैनिक बन पाता है। अब संघ के स्वयंसेवक आम आदमी से कहीं अधिक अनुशासित और विविध कार्यों में प्रशिक्षित होते हैं, इसलिए सेना के कार्यों को करने की स्थिति में उन्हें उतना प्रशिक्षण शायद न देना पड़े। संघ प्रमुख ने कुछ इसी आशय की बात कहने की कोशिश की है। ये आम आदमी से स्वयंसेवकों की तुलना है, सेना से नहीं।
आरएसएस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर तीस सेकेंड के उस वीडियो का लिंक भी सामने आया है, जिसमें मोहन भागवत का यह पूरा बयान उपलब्ध है। जैसे ही वह वीडियो सामने आया, जिसमें संघ प्रमुख की पूरी बात साफ़ एवं स्पष्ट ढंग से सुनाई पड़ रही, अफवाही गिरोह द्वारा बेतुकी दलीलों के साथ व्यर्थ में खड़ा किया गया वितंडा पूरी तरह से ध्वस्त हो गया। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है कि संघ से जुड़े किसी पदाधिकारी के बयान को तोड़–मरोड़कर पेश किया गया हो। इस दुर्भावना की एक लंबी शृंखला है।
बहरहाल, यह ऐतिहासिक तथ्य है कि देश व समाज को जब–जब आरएसएस की जरूरत जिस मोर्चे पर पड़ी है, संघ निःस्वार्थ भाव से उस मोर्चे पर खड़ा मिला है। चाहें वह सीमा सुरक्षा की बात हो, प्राकृतिक आपदा से निपटने की बात हो अथवा आंतरिक सुरक्षा की, संघ हर संकट से बाहर निकालने में समाज की मदद करने के लिए स्वयं आगे आया है।
संघ प्रमुख के इस बयान को लेकर राजनीतिक तापमान भी बढ़ गया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने इस बयान को शर्मनाक बताते हुए इसे सेना और शहीदों का अपमान करार दे डाला। उन्होंने संघ प्रमुख से माफ़ी की मांग की। हालांकि मोहन भागवत पर सेना के अपमान का आरोप लगाने से पूर्व राहुल गांधी को अपने ‘खून की दलाली’ वाले बयान को याद कर लेना चाहिए था, फिर शायद वे संघ प्रमुख पर सेना के अपमान का आरोप लगाने का साहस नहीं कर पाते। साथ ही, जब हमारे जवान सीमा पार जाकर दुश्मनों के बंकरों को तबाह करने वाली सर्जिकल स्ट्राइक किए थे, तो इन्हीं राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस ने उनके पराक्रम पर संशय दिखाते हुए सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत सेना से मांग लिया था। क्या यह सेना का अपमान नहीं था ? इसके लिए कांग्रेस ने अभी तक माफ़ी क्यों नहीं मांगी ?
गौरतलब है कि कई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं, जो इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त हैं कि जब-जब देश पर संकट आया है, आरएसएस ने पूरी लगन एवं निष्ठा के साथ सेना की सहायता की है। मसलन, सन 1947 के अक्टूबर महीने के अंत में जम्मू–कश्मीर पर पाकिस्तान द्वारा हुए अचानक हमले के समय राष्ट्रीय स्वयं संघ के स्वयंसेवकों ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए श्रीनगर हवाई अड्डा जो हिमपात के कारण बर्फ की सिल्लियों से भरा हुआ था, को महज 48 घंटे के अंदर साफ़ कर दिया था। इसके बाद ही वहाँ भारतीय सैनिकों का विमान उतर सका।
इसी तरह कई और मामले हैं, जिसमें संघ सेना का सहयोगी बनकर खड़ा रहा है। संघ के पराक्रम और सेवा-भाव का ही परिणाम था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के धुर-विरोधी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू भी संघ की राष्ट्र सेवा का सम्मान करने से खुद को रोक नहीं सके। 1962 के युद्ध में जिस तरह से संघ के स्वयंसेवकों ने देश भर की जनता को एकजुट कर देश का मनोबल बढ़ाते हुए सेना के लिए जनसमर्थन जुटाया, वो यह दिखाता है कि संकटकाल के समय संघ बिना किसी वैचारिक भेदभाव के राष्ट्र को प्रथम मानते हुए मजबूती से खड़ा रहा है।
संघ के इस सेवाभाव से नेहरू इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 26 जनवरी, 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में संघ को ससम्मान आमंत्रित किया। उससे भी ज्यादा हैरान कर देने वाली बात यह है कि आरएसएस को इसकी सूचना महज तीन दिन पहले प्राप्त हुई थी, लेकिन अनुशासित संगठन के लिए यह तीन दिन ही बहुत थे। लिहाज़ा तीन हजार पूर्ण गणवेशधारी स्वयं सेवकों ने पूरी तैयारी से पद संचलन किया। तीन दिन में ऐसी तैयारी कर लेना संघ के उसी अनुशासन को दिखाता है, जिसकी बात अपने ताजा बयान में संघ प्रमुख ने की है।
इसी तरह 1965 के युद्ध में भी संघ अपनी भूमिका से पीछे नहीं हटा। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर पाकिस्तान से चल रहे युद्ध में संघ के स्वयंसेवक लगातार सेना को भोजन एवं अन्य जरूरी वस्तुओं को अपनी जान की परवाह किये बगैर सैनिकों तक पहुँचाते रहे। संघ सैनिकों के प्रति कितना सम्मान भाव रखता है, इसका अंजादा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1965 के ही युद्ध में आधी रात को आरएसएस के दिल्ली कार्यालय में युद्ध के दौरान घायल सैनिकों के लिए खून की कमी की जानकारी प्राप्त हुई और सुबह–सुबह पांच सौ की संख्या में संघ के स्वयंसेवक रक्तदान करने के लिए सैनिक अस्पताल पहुँच गए।
इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों एवं प्रमाणों के आलोक में यह कहना किसी भद्दे मज़ाक की तरह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सैनिकों एवं शहीदों का कभी भी अपमान किया है या कर सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को संघ पर इस तरह के हमले से पहले यह सोच लेना चाहिए था कि उनकी टिप्पणी के मायने क्या होंगे ? संघ सेना का सम्मान केवल बातों तक सीमित नहीं रखता है, बल्कि उसको सदैव चरितार्थ भी करता आया है। आज संघ निरंतर अपने सेवा-भाव और राष्ट्र प्रेम की भावना को लेकर आगे बढ़ रहा है। पंरतु, सवाल आज भी कायम है कि क्या किसी गैर-राजनीतिक संगठन को लेकर इस प्रकार का दुष्प्रचार वाज़िब है ? क्या संघ के सेवा कार्यों का मूल्यांकन ईमानदारी से नहीं होना चाहिए ?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)