जो युवा राष्ट्र निर्माण के कार्य में सतत संलग्न रहते थे वो मौका मिलने पर गुरूजी से पूछते थे कि यह राष्ट्र निर्माण का कार्य, चरित्र निर्माण का कार्य, संगठन का कार्य कब तक करना होगा ? इसकी कोई मर्यादा है क्या ? गुरूजी की दृष्टि में यह प्रश्न विचित्र थे। वह कहते थे कि जब बीमार होने पर लोग वैद्य के पास जाते हैं और औषधि लेते वक्त वैद्य से पूछते हैं कि कितने दिन औषधि लेनी पड़ेगी ? तो जवाब यही मिलता है वैद्य की तरफ से – स्वस्थ होने तक लो और अगर स्वास्थ्य बार-बार ख़राब होने की आशंका हो तो जन्म भर लो। इसीलिए यह कार्य तो संकल्प लेकर निरंतर, जीवनभर, अंतिम सांस तक करते रहने का है।
अनेक मौकों पर अगर हम समय पर निर्णय नहीं लेते हैं तो जो अभी तक हमारी ताकत के तौर पर हमे दिखाई देता है वही एक विशाल समस्या के तौर पर भी उभर सकता है। इसके अनेक उदाहरण हैं जैसे भारत में पर्याप्त अनाज पैदावार होता है लेकिन उसके सही तरीके से वितरण न करने के कारण वह अनाज ख़राब हो जाता है और सड़ जाता है। जिसके कारण भुखमरी भी बढ़ती है, राष्ट्र को आर्थिक नुकसान भी होता है और एक बड़ी संख्या में किसान की लम्बे समय की महनत अल्प समय में बर्बाद हो जाती है।
इसी प्रकार आज भारत में युवाओं की संख्या जो 25 वर्ष की उम्र के हैं वह 60 करोड़ के आसपास है और अगर 35 वर्ष तक के युवाओं की गणना करे तो वह लगभग 78 करोड़ के पास बैठेगी। लेकिन अगर इस युवा शक्ति को समय पर दिशा नहीं मिली और यह दिग्भ्रमित या भ्रांतिमय हो गया तो वह मात्र उसका व्यक्तिगत दिग्भ्रमित होना नहीं होगा बल्कि हम एक राष्ट्र के तौर पर दिशाहीन हो जाएंगे।
इसी संदर्भ में हमें एक बिंदु पर अधिक महत्व देना होगा और वह यह है कि मात्र उम्र के कारण अगर हम एक मनुष्य को बच्चा, तरुण, युवा या वयस्क कह रहे हैं तो यह सोचने योग्य बात है कि क्या यही एक मात्र परिभाषा ठीक है? युवा तो वह होता है जो शारीरिक तौर पर योग्य हो, मानसिक तौर पर तेज़ हो, भावनात्मक तौर पर संतुलित हो, आध्यात्मिकता की तरफ झुकाव हो और इसके साथ निर्भीक हो, निडर हो, जो जोश में होश न खोए, जो प्रामाणिक हो, जो मात्र अपने समाज अपने राष्ट्र से मांगे नहीं बल्कि देने की भावना रखे।
और सबसे महत्वपूर्ण जिसके जीवन में उद्देश्य हो वह युवा है, क्योंकि अगर उसके जीवन में उद्देश्य नहीं है तो एक मात्र वह दिशाहीन नहीं है बल्कि राष्ट्र भी दिशाहीन हो जायेगा क्योंकि हर व्यक्ति का उद्देश्य राष्ट्र के उद्देश्य से भिन्न नहीं होना चाहिए।
इसमें से अगर सभी नहीं तो कम से कम कुछ बिंदु तो एक युवा के अंदर दिखे, जिसके कारण वह युवा कहलाए। और इस विशाल युवक समुदाय को महान समाज – रचना में योग्य एवं गुणवान नागरिक बनाया जाए।
इन सभी चुनौतियों पर अपने विचार रखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परमपूजनीय माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी ने अनेकों ऐसे करणीय बिंदु दिए जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने उस समय थे।
गुरूजी मानते थे कि ”युवाओं को लोकप्रियता दिलाने वाले निरर्थक आंदोलनों से घृणा पैदा होती है। विद्यार्थी बंधुओ का ध्यान आन्दोलनप्रियता की ओर से मोड़कर स्वयं के जीवन में राष्ट्रोपयोगी गुण एवं ज्ञान – संवर्धन करने में लगाया जाये।” आज भी हम देखते हैं कि भेड़चाल के चक्कर में युवा अपना कीमती समय ऐसे निरर्थक आंदोलनों में लगा देते है जिनका उन्हें विषय भी पता नहीं होता।
अपने ही राष्ट्र की संपत्ति को नष्ट और ध्वस्त कर देते हैं। बौद्धिक स्तर पर ऐसा विष नवयुवकों के अंदर भर दिया जाता है कि वह अपने ही राष्ट्र की संपत्ति को बर्बाद करके फक्र महसूस करते हैं। इसीलिए बाल्यकाल से ही राष्ट्र, समाज और परिवार के लिए जीवनयापन करने वाले विचार युवाओं को देना आवश्यक है।
गुरूजी के अनुसार हमे शिक्षा की गुणवत्ता को भी बढ़ाना पड़ेगा और उसके उदेश्यों को भी स्पष्ट करना होगा। 26 जून 1958 , मद्रास में विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए ” शिक्षा ” के विषय में बोलते हुए गुरुजी ने कहा कि ”शिक्षा का अर्थ केवल पढ़ना और लिखना इतना ही नहीं होता। शिक्षा प्राप्ति का स्वाभाविक परिणाम होना चाहिए, राष्ट्र के बारे में श्रद्धा की जागृति और अपने कर्त्तव्य का बोध।”
गुरूजी कहते थे कि ”भारतीय युवाओं को उमंग और सामर्थ्य से भरा हुआ जीवन जीने की तैयारी करनी चाहिए। सुस्ती, ढिलाई यह युवा के जीवन को कमजोर करती है और यह एक युवा के जीवन को शोभा देने वाली बातें भी नहीं है।” उनके अनुसार ”छोटी-छोटी बातों को ठीक करो , तो बड़ी बात कदापि नहीं बिगड़ेगी”।
आज भी हम तमाम युवाओं के जीवन में अनुसाशन की भारी कमी देखते हैं। घर में अनुसाशन ना के बराबर होता है। स्कूल में वह दिखावे तक सीमित रह जाता है तो फिर अनुसाशन आएगा कहाँ से ? वह छोटी-छोटी बातो को ठीक करने से आएगा जैसे सुबह उठने के और रात्रि में सोने के समय को तय करना, भोजन, व्यायाम, ध्यान का समय तय करना, अनावश्यक ना खाना, अपने दिन का अवलोकन करना।
गुरूजी युवाओं द्वारा पूछे गए अनेक महत्वपूर्ण और सूक्ष्म प्रश्नों का बहुत ही सरलता से जवाब देते हुए अनेको बार उनका मार्ग प्रशस्त किया करते थे । जो युवा राष्ट्र निर्माण के कार्य में सतत संलग्न रहते थे वो मौका मिलने पर गुरूजी से पूछते थे कि यह राष्ट्र निर्माण का कार्य, चरित्र निर्माण का कार्य, संगठन का कार्य कब तक करना होगा ? इसकी कोई मर्यादा है क्या ? गुरूजी की दृष्टि में यह प्रश्न विचित्र थे।
वह कहते थे कि जब बीमार होने पर लोग वैद्य के पास जाते हैं और औषधि लेते वक्त वैद्य से पूछते हैं कि कितने दिन औषधि लेनी पड़ेगी ? तो जवाब यही मिलता है वैद्य की तरफ से – स्वस्थ होने तक लो और अगर स्वास्थ्य बार-बार ख़राब होने की आशंका हो तो जन्म भर लो। इसीलिए यह कार्य तो संकल्प लेकर निरंतर, जीवनभर, अंतिम सांस तक करते रहने का है।
गुरूजी का यही मानना था कि जब तक भारत माता के एक-एक पुत्र और पुत्री में अपने राष्ट्र के प्रति श्रद्धा, अपने स्वयं के प्रति विश्वास और सबके लिए सम्मान की भावना नहीं जागृत हो जाती तब तक यह कार्य गंगा के निर्मल प्रवाह की तरह यूँ ही चलता रहना चाहिए।
लेकिन गुरूजी ने एक महत्वपूर्ण चिंता भी व्यक्त की थी। उनके अनुसार आजकल मन का नियंत्रण कम हो जाने के कारण, लगातार एक काम करने की प्रवृति कम हो गई है। कोई काम चार दिन करके छोड़ देंगें, फिर दूसरा कुछ करेंगें। आज भी हमारे युवाओं के सामने यही चुनौती है।
वह एक कार्य हाथ में लेते हैं और अकस्मात सफलता की इच्छा रखते हैं और जैसे ही मार्ग में कुछ बाधाओं से सामना होता है वह मार्ग बदलने का सोचने लगते हैं। धारणा शक्ति अत्यंत कमजोर हो गयी है जिसके कारण जीवन में अनेकों भटकाव आते हैं। इसलिए आज जरुरत है, एक विचार को धारण करने की और फिर उस विचार से ओत-प्रोत होने की, साथ ही साथ अन्य सभी विचारों से दूर रहने की जो आपके भटकाव का कारण बने। जिसके लिए मेहनत और परिश्रम अत्यंत आवश्यक है।
गुरूजी कहते थे कि ”शिखर पर जाने के लिए शॉर्टकट नहीं हुआ करता। एक-एक कदम मजबूती से रखना पड़ता है। परिश्रम करना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है, तब शिखर पर पहुंचा जाता है। हाँ, शिखर से नीचे आने के लिए शार्टकट हो सकता है, ऊपर जाकर नीचे गिरना सरल है। ”
गुरूजी युवाओं को उनके समाज के प्रति कर्त्तव्य का हमेशा स्मरण कराते रहते थे। वह कहते थे कि प्रत्येक मनुष्य को समाज के ऋण को कभी नहीं भूलना चाहिए। उनके अनुसार ”समाज के कारण ही व्यक्ति को प्रतिष्ठा, सुविधा व संरक्षण प्राप्त होता है। इसीलिए समाज का ऋण चुकाना अत्यंत आवश्यक है।
और यह राष्ट्र, समाज और संगठन का कार्य इसलिए नहीं करना कि यह करने से इनका भला होगा बल्कि इस भाव से करना है कि ” यह कार्य मातृभूमि के पूजन का कार्य है, विशुद्ध देशभक्ति का काम है, वह अपना सर्वस्व लगाकर करने में हमारे हिन्दू के नाते जीने की सार्थकता है, ऐसा सोचना अधिक योग्य है।” जैसे हम जब भगवान की पूजा करते हैं, तो उसकी आवश्यकता भगवान को नहीं है, आवश्यकता तो हमारी है।
इसीलिए आज भारत के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वह अपनी युवा जनसंख्या को दिशा प्रदान करना और उद्देश्यपूर्ण जीवन की तरफ ले जाना है। वह उद्देश्य जो राष्ट्र के उद्देश्य से भिन्न न हो। अगर गुरूजी के जीवन चरित्र का युवा कुछ प्रतिशत भी अध्ययन करें और जीवन में अंगीकार करने की कोशिश करें तो उनके देह में शक्ति होगी, मन में उत्साह होगा, मातृभूमि के लिए प्रेम होगा, आत्मविश्वास दिन ब दिन बढ़ेगा, इच्छाशक्ति प्रबल होगी और जीवन में नियम और मूल्यों की स्थापना होगी। जिससे आत्मविश्वास से भरा हुआ, राष्ट्र से स्नेह करने वाला और सेवा के लिए तत्पर युवाओं का निर्माण होगा जो चाहे किसी भी विभाग में जाये वहां सर्वश्रेष्ठ देगा और मात्र सफल ही नहीं बल्कि एक सार्थक जीवन जीयेगा।
(लेखक विवेकानंद केंद्र, उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधकर्ता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)