जबसे केंद्र सरकार ने पांच सौ और हजार के नोटों को बंद किया है, देश में एक विमर्श चल पड़ा है कि यह फैसला किसके हक में है ? सबसे पहले एक बात स्पष्ट होनी चाहिए कि इस फैसले से आम जनता को कुछेक दिन की थोड़ी दिक्कत है, जोकि सरकार भी मान रही है, लेकिन काले कारोबारियों, हवाला कारोबारियों, आतंकवाद के पोषकों के लिए यह फैसला त्रासदी लेकर आया है। सभी भ्रष्टाचार के अड्डो पर सन्नाटा पसरा हुआ है। यकायक इस फैसले ने सभी दो नंबर के धंधे करने वालों की कमर तोड़ के रख दी है। सवाल पर गौर करें तो इस फैसले में किसका हित छुपा है, इसपर व्यापक विमर्श की जरूरत है। यह एक राष्ट्रहित से जुड़ा महत्वपूर्ण फैसला है, जिसमें न केवल आगामी भविष्य में भारत की आर्थिक स्थिति और मजबूत होगी बल्कि भ्रष्टाचार, आतंकवाद पर भी अंकुश लगाने में यह सहायक साबित होगा। यही कारण है कि मोदी सरकार इस फैसले के बाद आम जनता को हो रही परेशानियों को लेकर सजग तो है ही, परन्तु इसके परिणाम राष्ट्र को नई दिशा देने वाले होंगें।
गौर करें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार के इस बड़े अभियान में सहयोग करने की बजाय आम जनता की आड़ लेकर विपक्षी दल अपने ‘विरोध के लिए विरोध’ के एजेंडे को अंजाम दे रहे हैं। यह वो राजनेता हैं, जिनको इस फैसले से करारा झटका लगा है। अरविन्द केजरीवाल और ममता बेनर्जी ने दिल्ली के आजादपुर मंडी में आयोजित एक रैली में इस फैसले को लेकर सरकार पर फिजूल का निशाना साधते हुए इसकी तुलना आपातकाल से कर दी और इसे वापस न लेने पर आंदोलन की धमकी दे डाली। हालांकि जनता ने उनके इस पूरे वितंडे में बिलकुल भी साथ नहीं दिया बल्कि उनके धरने में ही मोदी-मोदी के नारे लगाकर उन्हें उनके विरोध के खोखलेपन का एहसास दिला दिया।
प्रधानमंत्री खुद देशवासियों से बार-बार यह अपील कर रहें हैं कि ‘देशहित के लिए थोड़ी कठिनाई उठनी पड़े तो उठाइये’। सरकार की इस अपील को आम लोगों ने भी माना है और देश के लिए थोड़ी कठिनाई उठाने में कोई परहेज़ नहीं कर रहे है। परन्तु इस फैसले के बाद से देश के काले कारोबारियों, सीमापार आतंकवाद के जनको की नींद हराम हो गई है। कश्मीर से पत्थरबाजी भी रुक चुकी है। लेकिन, इन सबसे इतर विडंबना यह है कि समूचा विपक्ष इस मसले पर बेहद अतार्किक और अकारण रूप से सरकार के खिलाफ लामबंद नज़र आ रहा है। संसद से सड़क तक विपक्षी दलों का फिजूल का ड्रामा जारी है। संसद ठप है और विपक्ष अपनी फिजूल की राजनीति करने में व्यस्त है।
गौर करें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार के इस बड़े अभियान में सहयोग करने की बजाय आम जनता की आड़ लेकर विपक्षी दल अपने ‘विरोध के लिए विरोध’ के एजेंडे को अंजाम दे रहे हैं। यह वो राजनेता हैं, जिनको इस फैसले से करारा झटका लगा है। अरविन्द केजरीवाल और ममता बेनर्जी ने दिल्ली के आजादपुर मंडी में आयोजित एक रैली में इस फैसले को लेकर सरकार पर फिजूल का निशाना साधते हुए इसकी तुलना आपातकाल से कर दी और इसे वापस न लेने पर आंदोलन की धमकी दे डाली। हालांकि जनता ने उनके इस पूरे वितंडे में बिलकुल भी साथ नहीं दिया बल्कि उनके धरने में ही मोदी-मोदी के नारे लग गए। अब सवाल यह उठता है कि यह आंदोलन किस लिए ? नोटबंदी के फैसले को वापस लेने की मांग क्यों ? क्या भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस लड़ाई में अपनी छिछली राजनीति के लिए विपक्ष भ्रष्टाचार पर अपनी सहमति प्रदान कर रहा ? अगर विपक्ष को आम लोगों की इतनी ही चिंता है तो सरकार को ऐसे सुझाव अभी तक क्यों नही दिए जिससे इस फैसले को और अच्छे-से आगे बढ़ाया जाय ? आखिर एक रचनात्मक विपक्ष की यही भूमिका न होती है! आम जनता के नाम पर रुदन कर रहा विपक्ष केवल निजी स्वार्थ से भरा हुआ है। आमजनता की दुहाई देकर यह लोग अपनी राजनीतिक रोंटियाँ सेंकने में लगे हुए हैं। मगर यह विपक्षी दल नहीं समझ रहे कि इनका यह व्यवहार निश्चित और कुछ नहीं, सिर्फ जनता के बीच इनकी छवि को संदिग्ध बना रहा है।
सरकार लोगों की समस्याओं के प्रति एकदम सजग बनी हुई है और हर समस्या को दूर करने के लिए नियम ला रही है, ताकि आम जनता को जल्द राहत मिले तथा बैंकिग व्यवस्था सुचारू रूप से चले। किन्तु, इन सब में विपक्ष बांधा डालने का काम कर रहा है, जो निंदनीय है। बहरहाल, कहीं न कहीं यह बात आर्थिक विश्लेषक भी मानतें है कि यह फैसला भ्रष्टाचार और आतंकवाद की कमर तोड़ने वाला है। ऐसे फैसले पर विपक्ष का यह अड़ियल रवैया निहायत ही निराशाजनक है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)