पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बीच एक बेहद अहम खबर दब सी गई । चुनाव आयोग ने देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को अपने आतंरिक चुनाव तीस जून तक करवाने का आदेश दिए हैं । चुनाव आयोग ने साफ तौर पर कहा है कि अब इसको और टालने की अनुमति नहीं दी जा सकती है । दरअसल 2015 के सितंबर से लेकर अब तक कांग्रेस पार्टी अपने आंतरिक चुनावों को टालने का अनुरोध दो बार चुनाव आयोग से कर चुकी है जिसको आयोग ने मान लिया था । लेकिन अब आयोग ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए कांग्रेस को तीस जून तक संगठन के अध्यक्ष समेत सभी स्तरों के चुनाव संपन्न करवाने का हुक्म दिया है और साथ ही यह भी कहा है कि अब संगठन के चुनाव को टालने की और छूट नहीं दी जा सकती है । दरअसल कांग्रेस में सभी स्तरों पर सांगठनिक चुनाव 2010 में ही हुए थे और 2013 में राहुल गांधी को उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया था । सोनिया गांधी 1998 से कांग्रेस की अध्यक्ष बनी हुई हैं और नियमित अंतराल पर इस बात की चर्चा होती रहती है कि अब कांग्रेस की कमान राहुल गांधी को सौंपी जानेवाली है ।
आज अगर कांग्रेस की हालत पतली है और एक के बाद एक राज्य में वो सत्ता से वंचित हो रही है या जनता उसको नकार रही है तो उसके पीछे पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का नहीं होना एक प्रमुख कारण है । आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर पार्टी में जिस तरह का छलावा होता है, वो जगज़ाहिर है । लोकतंत्र में विपक्ष की अहम भूमिका होती है और अगर विपक्ष कमजोर होता है तो प्रकरांतर से लोकतंत्र भी कमजोर होता है । आज अगर कांग्रेस को खुद को मजबूत करना है, तो उसको पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बहाल करना होगा और आलाकमान को अधिकृत करने की राजनीति से दूर जाना होगा । लेकिन, इसके आसार नज़र नहीं आ रहे हैं ।
अब कांग्रेस चुनाव आयोग के इस निर्देश का विरोध कर रही है और कह रही है कि दिसंबर के पहले चुनाव करवाना संभव नहीं है । कांग्रेस के प्रवक्ता अब यह दलील दे रहे हैं कि चुनाव आयोग को किसी भी राजनीतिक दल के आंतरिक चुनावों की तारीख तय करने का हक नहीं है । कांग्रेस की दलील है कि उनकी पार्टी की सर्वोच्च नीति-निर्धारक कार्यसमिति ने चुनावों की तारीखें तय की है और उसके हिसाब से ही चुनाव करवाए जाएंगे । कांग्रेस के इस रुख के बाद पार्टी और चुनाव आयोग में टकराव की आशंका पैदा हो गई है । दरअसल देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में आजादी के बाद से आंतरिक लोकतंत्र धीरे धीरे खत्म होता चला गया । पहले नेहरू, फिर इंदिरा जी और उसके बाद राजीव गांधी और सोनिया गांधी के दौर में पार्टी पर एक परिवार का वर्चस्व बढ़ता चला गया । राजीव गांधी की हत्या के बाद जब सोनिया गांधी ने राजनीति में आने से मना कर दिया था, उस दौर में 1997 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुए थे । उस वक्त पार्टी के लंबे समय तक कोषाध्यक्ष रहे सीताराम केसरी ने शरद पवार और राजेश पायलट को मात दी थी, लेकिन उनका भी कार्यकाल ज्यादा लंबा नहीं चल पाया था ।
लगभग सात साल से राजनीति से दूर रहनेवाली सोनिया गांधी ने एलान कर दिया कि वो 1998 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रचार करेंगी । सोनिया के चुनाव प्रचार से कांग्रेस को कोई खास फायदा नहीं हुआ, लेकिन बगैर किसी सदन की सदस्य बने सोनिया गांधी को कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी की चेयरपर्सन चुन लिया गया । ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में यह पहली बार हुआ था । 1970 में इंदिरा गांधी भी इसी तरह से कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी की चेयरपर्सन चुनी गई थीं । सोनिया के राजनीति में आने के बाद पार्टी में सत्ता के दो केंद्र बनने लगे थे जिसकी परिणति सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाना । दो साल बाद यानी 2010 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हुआ जिसमें सोनिया गांधी ने जितेन्द्र प्रसाद को भारी बहुमत से हरा दिया था । 7771 वोट में से जितिन प्रसाद को सिर्फ चौरानवे वोट मिले थे । यह पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए आखिरी चुनाव था । इसके बाद से सोनिया गांधी के नेतृत्व को कभी चुनौती नहीं मिली और वो सर्वसम्मति से पार्टी की अध्यक्ष बनती रहीं । सोनिया गांधी कांग्रेस की सबसे लंबे समय तक रहनेवाली अध्यक्ष हैं । कभी-कभार निचले स्तर पर चुनाव हुए भी तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए किसी ने सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई । जितेन्द्र प्रसाद का हश्र सबके सामने था । राहुल गांधी जब पार्टी के मामलों को देखने लगे तो उन्होंने ब्लाक, जिला और राज्य स्तर के चुनावों को करवाने का बीड़ा उठाया । कई राज्यों में चुनाव हुए भी और अध्यक्ष भी चुने गए ।
दरअसल कांग्रेस में जो प्रवृति इंदिरा गांधी के वक्त मजबूत हुई उसने इस पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को कमज़ोर किया या कह सकते हैं कि बाधित किया । जब से काग्रेस पार्टी में एक व्यक्ति को राज्य का अध्यक्ष नियुक्त करने का अधिकार दिया जाने लगा तब से आंतरिक लोकतंत्र कमजोर होने लगा । हर तरह के फैसले लेने का अधिकार आलाकमान को मिल गया, चाहे वो प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति हो, प्रदेश कार्यकारिणी का गठन हो, मुख्यमंत्री का चुनाव हो या फिर बाद में प्रधानमंत्री का भी । कांग्रेस के नेता आलाकमान को खुश करने के लिए हर तरह के अहम फैसलों के लिए उनको अधिकृत करने लगे । इससे चमचागिरी की राजनीति को बढ़ावा मिलने लगा और मजबूत स्थानीय नेतृत्व पनप नहीं सका । इसके दूरगामी परिणाम को कांग्रेस का नेतृत्व भांप नहीं सका । आज अगर कांग्रेस की हालत पतली है और एक के बाद एक राज्य में वो सत्ता से वंचित हो रही है या जनता उसको नकार रही है तो उसके पीछे पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का नहीं होना एक प्रमुख कारण है । आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर पार्टी में जिस तरह का छलावा होता है, वो जगज़ाहिर है । लोकतंत्र में विपक्ष की अहम भूमिका होती है और अगर विपक्ष कमजोर होता है तो प्रकरांतर से लोकतंत्र भी कमजोर होता है । आज अगर कांग्रेस को खुद को मजबूत करना है, तो उसको पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बहाल करना होगा और आलाकमान को अधिकृत करने की राजनीति से दूर जाना होगा । लेकिन, इसके आसार नज़र नहीं आ रहे हैं । राहुल गांधी की ताजपोशी भी बगैर चुनाव के ही होती नजर आती है, क्योंकि वो निर्विरोध अध्यक्ष बनेंगे ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)