जब कोई शासक अंधी महत्त्वाकांक्षा और सस्ती लोकप्रियता का शिकार हो जाए तो जनता के हित साधने और विधायी ज़िम्मेदारी निभाने की बजाय ‘जुमले’ गढ़ने लगता है। संघ एक विचार है और विचार कभी मरता नहीं। यह एक सांस्कृतिक आंदोलन है, समाज के भीतर कोई संगठन नहीं, बल्कि समाज का संगठन है, भारत, भारतीयता और राष्ट्रवाद में यकीन रखने वाला संगठन, एक ऐसा संगठन जिसके असंख्य कार्यकर्त्ता देश के किसी भी हिस्से, किसी भी कोने में आयी आफत-मुसीबत में मदद के लिए सबसे पहले पहुँचते हैं ।चाहे हिमालय की दुर्गम चोटियाँ हों या थार का मरुस्थल, चाहे सुनामी हो या उत्तराखंड की त्रासदी संघ के स्वयंसेवक निःस्वार्थ-भाव से वहाँ भी सेवारत दिख जाएँगे। फिर भी संघ को लेकर तरह-तरह के आरोप मढ़े जाते हैं, निराधार भ्रांतियाँ पाली जाती हैं। एजेंडा के तहत अनर्गल प्रचार करने वाले लोग कुछ अर्थों में अपनी योजना में सफल रहे हैं। पर धीरे-धीरे उनके तिलिस्म टूटने लगे हैं, बड़े-बड़े मठों और मठाधीशों की सत्ता डाँवाडोल होने लगी हैं। इसलिए हमले और प्रबल हुए हैं, अभी और होंगे। सावधानी अपेक्षित है। हाँ, यह सच है कि संघ हिंदुत्व को राष्ट्रवाद का पर्याय मानता आया है और उसके पास इसके प्रबल तर्क और सुगठित विचार-दर्शन हैं!
जो संगठन पूरी प्रामाणिकता और ईमानदारी से समाज के वंचित तबकों को मुख्यधारा में शामिल कराने के लिए अहर्निश रूप से सेवारत है, उसे केवल नारों-जुमलों-साजिशों से मिटाया नहीं जा सकता! वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, विद्या भारती से लेकर संघ के तमाम ऐसे आनुषांगिक संगठन हैं जो सुदूरवर्त्ती गाँवों-कूलों-कछारों, वन्य-क्षेत्रों आदि में कार्यरत हैं, उनकी साधना से उत्पन्न सिद्धि को यों ही नष्ट करना किसी के बूते की बात नहीं; वह भी खाये-पिये-अघाए लोगों और कुल-खानदानों द्वारा तो असंभव है! संस्कृति के सूर्य को आप चाहे जितना रोकें, जितने अवरोध पैदा करें, वह तो घने अंधकार का सीना चीरकर भी निकलेगा।
ज़रा सोचिए, अपने उद्भव-काल से ही संघ विरोधियों की आलोचनाओं का प्रमुख केंद्रबिंदु रहा। अनेक बार सत्ताधारी ताकतों के प्रतिबंधों का कोपभाजन बना। भारत में वामपंथी दुष्प्रचार का एकरफा शिकार रहा। फिर भी, क्या कारण है कि संघ की शक्ति दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ती रही, क्या कारण है कि इसके पचासों आनुषांगिक संगठन अपने-अपने क्षेत्र के शीर्षतम संगठन हैं? कोई कह सकता है कि इसका राष्ट्र-व्यापी संगठन-तंत्र, समर्पित एवं कुशल सङ्गठनकर्त्ताओं और प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ताओं की विशाल सेना, परंतु मैं इन्हें संघ की बढ़ती शक्ति का प्रमुख कारण नहीं मानता!
मेरी निगाहों में संघ की बढ़ती ताकत का मूल उत्स भारत और भारतीयता में है, जब तक भारत के लोगों के मन में अपनी माटी, अपनी संस्कृति, अपनी परंपराओं, अपनी मान्यताओं और जीवन-मूल्यों के प्रति किंचित मात्र स्नेह शेष है, संघ उनकी आत्मा से पोषण पाता रहेगा और निरंतर आगे बढ़ता रहेगा। चाहे कोई किसी विचारधारा से, किसी राजनीतिक पार्टी से संबद्ध हो वह संघ के किसी-न-किसी काम का कभी-न-कभी प्रशंसक रहा होता है। यह भारतीय मन या लोक-मानस ही संघ की असली ताकत है। क्या देशभक्ति, देशप्रेम, स्वधर्म और स्वराष्ट्र से किसी को मुक्त किया जा सकता है, कोई स्वप्रेरणा से कर्त्तव्यों का पालन करना चाहे तो कौन-सी बाधा उसके मार्ग की अवरोधक बन सकती है ? लोहे की जंजीरें और कैद की काल-कोठरियाँ जब संघ का हौसला न तोड़ पाईं तो सत्ता के लिए अस्वाभाविक और अनैतिक समझौते करने वाले राजनीतिज्ञ उसका क्या बिगाड़ पायेंगे! संघ सरकारी संरक्षण में फला-फूला संगठन होता तो और बात थी, वह तो भारत के करोड़ों लोगों की भावनाओं, कार्यकर्त्ताओं के अहर्निश परिश्रम, सेवा-भावना, उत्कट देशभक्ति से आगे बढ़ा संगठन है, प्रबल झंझावात जिसके बढ़ते कदम पर विराम न लगा सके, उससे मुक्ति की बात बड़बोलापन है, अहंकार और अज्ञानता है, राष्ट्रीय मीडिया और संघ-विरोध की दुकान चलाने वाले छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित कर रातों-रात प्रचार पाने की बचकानी हरकत है! जब किसी शासक की महत्त्वाकांक्षा पूरित होने के आसार दूर-दूर तक न दिख रहे हों तो उसकी कुंठा ऐसे ही जुमलों, नारों और मुहावरों में अभिव्यक्ति पाती है! कहीं आने वाले वक्त में यह मुहावरा न प्रचलित हो कि जब बिहार अपराध और अपराधियों की भेंट चढ़ रहा था तो एक शासक घूम-घूमकर -“अपनी अंधी महत्त्वाकांक्षाओं और अतृप्त कुंठाओं को स्वर दे रहा था!”
विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि अभी कुछ दिन पूर्व ही धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित ठेकेदारों ने हिंदू समाज को तोड़ने और संघ पर वंचित समाज के साथ भेदभाव के आरोप लगाने की रणनीति बनायी है। पर उन्हें नहीं मालूम कि विनाश चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो सृजन-शक्ति के सामने उसका कोई अस्तित्व नहीं! जो संगठन पूरी प्रामाणिकता और ईमानदारी से समाज के वंचित तबकों को मुख्यधारा में शामिल कराने के लिए अहर्निश रूप से सेवारत है, उसे केवल नारों-जुमलों-साजिशों से मिटाया नहीं जा सकता! वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, विद्या भारती से लेकर संघ के तमाम ऐसे आनुषांगिक संगठन हैं जो सुदूरवर्त्ती गाँवों-कूलों-कछारों, वन्य-क्षेत्रों आदि में कार्यरत हैं, उनकी साधना से उत्पन्न सिद्धि को यों ही नष्ट करना किसी के बूते की बात नहीं; वह भी खाये-पिये-अघाए लोगों और कुल-खानदानों द्वारा तो असंभव है! संस्कृति के सूर्य को आप चाहे जितना रोकें, जितने अवरोध पैदा करें, वह तो घने अंधकार का सीना चीरकर भी निकलेगा।
ये लेखक के निजी विचार हैं।