यह जनादेश मोदी के नए भारत का जनादेश है, जिसमें जाति-पाति, क्षेत्र, वर्ग, भाषा, परिवारवाद आदि की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं, बल्कि इसके मूल में भारत को सुविकसित विश्वशक्ति बनाने की भावना है। लोगों को मोदी की योजनाओं और नीतियों में भारत-निर्माण की उस अवधारणा के दर्शन हो रहे हैं, जिसमें सब एक समान हैं और किसीके प्रति कोई भेदभाव नहीं है।
महीनों की जद्दोजहद, खींचतान और कयासों के बाद आखिरकार गत 23 मई को सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम सामने आ गए। सत्ता विरोधी रुझान के सभी दावों और विपक्ष के आरोपों को धता बताते हुए जनता ने एकबार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त कर भाजपा को 2014 की 282 से भी अधिक 303 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत प्रदान किया है। वहीं घटक दलों के साथ यह आंकड़ा 352 हो जाता है।
दूसरी तरफ कांग्रेस इसबार भी नेता प्रतिपक्ष लायक सीटें भी अर्जित करने में नाकाम रही है। गत वर्ष जिन तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी, वहाँ भी कांग्रेस के हाथ निराशा ही लगी है। कुल मिलाकर सत्रह ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस अपना खाता तक नहीं खोल सकी है।
सीटों के साथ-साथ भाजपा के मत प्रतिशत में भी उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिली है। अबकी 45 प्रतिशत मतदाताओं ने राजग पर भरोसा व्यक्त किया है, जिसमें से 37 प्रतिशत से अधिक वोट अकेले भाजपा के हिस्से आए हैं। 2014 में भाजपा को 32 प्रतिशत के करीब वोट मिले थे। कहने की जरूरत नहीं कि 2014 में जो मोदी लहर चली थी, वो अब सुनामी का रूप ले चुकी है, जिसमें विपक्ष की जीत के सभी समीकरण बह गए।
कहते हैं कि केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर जाता है। यूपी में अबकी लड़ाई काफी दिलचस्प थी। भाजपा को रोकने के लिए एक तरफ जहां सपा-बसपा का महागठबंधन था, तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने भी प्रियंका गाँधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का दायित्व देकर मैदान में उतार दिया था। गत वर्ष गोरखपुर, फूलपुर जैसी सीटों पर हुए उपचुनावों में जिस तरह सपा-बसपा गठबंधन को कामयाबी मिली थी, उसे देखते हुए बौद्धिक वर्ग का आंकलन था कि लोकसभा चुनाव में ये गठबंधन बड़ी मात्रा में भाजपा की सीटें कम करेगा।
प्रियंका गांधी के आने से कांग्रेस से भी किसी बड़े उलटफेर के अनुमान लगाए जा रहे थे। मगर, परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि इस चुनाव में जनता ने प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर मतदान किया है जिसके आगे और कोई चेहरा टिक नहीं सका। महागठबंधन के हिस्से केवल 15 सीटें ही आईं, वहीं प्रियंका गांधी को उतारने के बावजूद कांग्रेस सोनिया गाँधी की रायबरेली के अलावा कोई सीट नहीं जीत सकी। बिहार में भी चालीस में से 39 सीटें भाजपानीत राजग के खाते में आई हैं, वहीं कांग्रेस को केवल एक किशनगंज की सीट मिली।
देश की जातिवादी राजनीति का केंद्र बिंदु माने जाने वाले यूपी-बिहार के इन चुनाव परिणामों से एक बात तो साफ़ हो गयी कि अबकी जनता ने जातिवादी समीकरणों पर आधारित गठबंधन के जरिये सीटें हासिल करने का ख्वाब देख रहे दलों की राजनीति को पूरी तरह से खारिज कर पुनः मोदी की विकासवादी राजनीति पर मुहर लगाईं है। ये देश में जातिवादी राजनीति के दिन लदने की शुरुआत कही जा सकती है।
बंगाल में भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में दो सीटें मिलने के बाद से ही लगातार संघर्षरत थी। टीएमसी कार्यकर्ताओं की हिंसात्मक राजनीति और खुलेआम गुंडाराज के बावजूद पार्टी की मेहनत रंग लाई और पिछले चुनाव की दो सीटों से लम्बी उछाल लेते हुए वो अबकी 18 सीटें जीतने में कामयाब रही है। ये दिखाता है कि ममता के राज में बंगाल भीतर से किस कदर सुलग रहा है। ये जरा-सी चिंगारी है, बड़ा विस्फोट राज्य के विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है।
इस चुनाव अमेठी, बेगूसराय, भोपाल जैसी सीटों पर विशेष रूप से लोगों की नजर थी। 2014 के चुनाव में स्मृति ईरानी ने अमेठी में राहुल गांधी को कड़ी टक्कर दी थी। हालांकि तब राहुल गाँधी जस-तस जीत हासिल करने में कामयाब रहे थे, मगर भाजपा ने इस सीट में छिपी भावी संभावना को देख लिया था। इसी कारण स्मृति ईरानी ने अमेठी को छोड़ा नहीं और यथासंभव वहाँ के लोगों के लिए काम करती रहीं।
राहुल गांधी से अधिक स्मृति ने अमेठी के दौरे किए और क्षेत्र में अपनी सक्रियता बनाए रखी। इस मेहनत का ही परिणाम है कि अबकी अमेठी में राहुल गांधी को स्मृति ईरानी के हाथों पचास हजार से अधिक वोटों से हार का सामना करना पड़ा। ये तो गनीमत है कि इस हार को भांप चुकी कांग्रेस ने राहुल गाँधी को केरल के वायनाड से भी चुनावी मैदान में उतार दिया था, अन्यथा ‘पीएम मटेरियल’ के रूप में पेश किए जाने वाले राहुल गांधी ‘एमपी’ तक नहीं रह जाते।
भोपाल में साध्वी प्रज्ञा का मुकाबला कांग्रेस के बड़े नेता दिग्विजय सिंह से था। ये लड़ाई दिग्विजय सिंह आदि कांग्रेसी नेताओं द्वारा गढ़ी गयी कथित हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा के खिलाफ थी, जिसमें साध्वी प्रज्ञा की जीत ने सिद्ध कर दिया कि देश की जनता ‘हिन्दू आतंकवाद’ जैसी किसी बात में यकीन नहीं करती और इसको गढ़ने वालों को माकूल जवाब देना जानती है।
इसी तरह बेगूसराय की सीट भी दो विचारधाराओं की लड़ाई का अखाड़ा थी। यहाँ अक्सर अपने उग्र राष्ट्रवादी बयानों के कारण चर्चा में रहने वाले गिरिराज सिंह के सामने कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से देशविरोधी नारे लगाने के आरोपी कन्हैया कुमार खड़े थे। कन्हैया के प्रचार में वाम विचारधारा से निकटता रखने वाले तमाम फ़िल्मी सितारे सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक खुलेआम उतर पड़े।
कन्हैया कुमार को वायवीय ढंग से बहुत बड़े और योग्य उम्मीदवार के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गयी। लेकिन बावजूद इन सबके गिरिराज सिंह की चार लाख से अधिक मतों से हुई जीत से स्पष्ट हो गया कि देश की जनता बुद्धिजीवी वर्ग से ज्यादा सही-गलत का विवेक रखती है और उसके लिए राष्ट्रवाद का कोई विकल्प नहीं है।
देखा जाए 2014 में जो वोट मोदी को मिले वो उनके नाम पर थे; हिन्दुत्ववादी छवि पर थे; जबकि इसबार के वोट उनके पांच साल के काम पर मिले हैं। मतलब ये कि पिछले पांच सालों में मोदी के काम ने लोगों का ध्यान खींचा है, तभी 2014 की अपेक्षा विपक्ष के अधिक संयुक्त प्रतिरोध के बावजूद भाजपा अधिक बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब रही है।
दूसरे शब्दों में कहें तो यह जनादेश मोदी के नए भारत का जनादेश है, जिसमें जाति-पाति, क्षेत्र, वर्ग, भाषा, परिवारवाद आदि की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं, बल्कि इसके मूल में भारत को सुविकसित विश्वशक्ति बनाने की भावना है। लोगों को मोदी की योजनाओं और नीतियों में भारत-निर्माण की उस अवधारणा के दर्शन हो रहे हैं, जिसमें सब एक समान हैं और किसीके प्रति कोई भेदभाव नहीं है।
मोदी विरोध में संवैधानिक संस्थाओं से लेकर सेना पर तक सवाल उठाने की विपक्ष की नकारात्मक राजनीति को भी इस जनादेश ने माकूल जवाब दिया है। आगे का समय जहां सत्ता पक्ष के लिए जीत के उन्माद से मुक्त विनम्रतापूर्वक कार्य करने का है, वहीं विपक्ष को गहन आत्ममंथन के साथ-साथ अपनी वैचारिक राजनीति में आमूल-चूल बदलाव करने की जरूरत है।