1956 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने धर्मांतरण और उससे उपजी समस्याओं पर विचार करने के लिए नियोगी कमीशन का गठन किया था। इस कमीशन की रिपोर्ट धर्मांतरण और उसके भयावह दुष्परिणामों पर विस्तार से प्रकाश डालती है। पर तब सरकार ने इस रिपोर्ट से कोई सीख नहीं ली और भारत में धर्मांतरण का धंधा बड़े जोरों से बेरोक-टोक चलने दिया। निहित स्वार्थों और राजनीतिक फ़ायदों के लिए अनेक तथाकथित सेक्युलर दल भी इसका हिस्सा बन गए।
पल-पल सूचनाओं के विस्फोट के दौर में हर चीज बड़ी तेजी से बीत और रीत जाती है। सूचनाओं की दुनिया में पर्दे से मंज़र बदलते वक्त नहीं लगता। किसी की मृत्यु, हिंसक हत्या या नरसंहार भी जनसंचार माध्यमों और अब समाज के लिए भी केवल एक सूचना है।
इसलिए हर मृत्यु, हत्या या संहार के बाद भी हम फ़ौरी तौर पर संवेदनाएँ प्रकट कर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। हम घटनाओं के पीछे के कारणों या परिणामों की मीमांसा नहीं करते, स्थाई समाधान की दिशा में नहीं सोच पाते!
पालघर जैसी घटना क्यों घटती है? क्या यह ऐसी केवल अकेली घटना थी? इस देश का भोला-भाला, निश्छल वनवासी समाज किसी के प्रति अचानक इतना हिंसक और क्रूर क्यों हो उठता है? क्यों पालघर तहसील के दो गाँवों के लोग अपने गाँव की सीमा पर यह शिलालेख लगा देते हैं कि यहाँ भारत का संविधान लागू नहीं है, यहाँ किसी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित है?
इन सबको जानने के लिए हमें धर्मांतरण के कुचक्र व उससे उपजी जटिल एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को विस्तार से समझना पड़ेगा।
1956 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने धर्मांतरण और उससे उपजी समस्याओं पर विचार करने के लिए नियोगी कमीशन का गठन किया था। इस कमीशन की रिपोर्ट धर्मांतरण और उसके भयावह दुष्परिणामों पर विस्तार से प्रकाश डालती है। पर तब सरकार ने इस रिपोर्ट से कोई सीख नहीं ली और भारत में धर्मांतरण का धंधा बड़े जोरों से बेरोक-टोक चलने दिया। निहित स्वार्थों और राजनीतिक फ़ायदों के लिए अनेक तथाकथित सेक्युलर दल भी इसका हिस्सा बन गए।
धर्मांतरण के पीछे कितना बड़ा नेटवर्क काम करता है इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पालघर जैसे छोटे से तहसील में 18 ईसाई प्रार्थनाघर हैं।
इन वनवासी लोगों के बीच ये विघटनकारी शक्तियाँ इस प्रकार के साहित्य वितरित करती हैं, इस प्रकार के विमर्श चलाती हैं कि धीरे-धीरे उनमें अपने ही पुरखे, अपनी ही परंपराओं, अपने ही जीवन-मूल्यों, अपने ही विश्वासों के प्रति घृणा की भावना परिपुष्ट होती चली जाती हैं। उन्हें पारंपरिक प्रतीकों, पारंपरिक पहचानों, यहाँ तक कि अपने अस्तित्व तक से घृणा हो जाती है।
उन्हें यह यक़ीन दिलाया जाता है कि उनकी वर्तमान दुरावस्था और उनके जीवन की सभी समस्याओं के लिए उनकी आस्था, उनकी परंपरा, उनकी पूजा-पद्धत्ति, उनका पुराना धर्म, उनके भगवान जिम्मेदार हैं। और उन सबका समूल नाश ही उनके अभ्युत्थान का एकमात्र उपाय है।
उन्हें उनकी दुरावस्थाओं से उनका नया ईश्वर, उनकी नई पूजा पद्धत्ति ही उबार सकती है। ग़लत ईश्वर जिसकी वे अब तक पूजा करते आए थे का विरोध उनका नैतिक-धार्मिक दायित्व है। यह उन्हें उनके नए ईश्वर का कृपा-पात्र बनाएगा।
कभी सेवा के माध्यम से, कभी शिक्षा के माध्यम से, कभी साहित्य के माध्यम से, कभी आर्य-अनार्य के कल्पित ऐतिहासिक सिद्धांतों के माध्यम से उनके रक्त में इतना विष उतार दिया जाता है कि सनातन परंपराओं के प्रतीक और पहचान भगवा से उन्हें आत्यंतिक घृणा हो जाती है। यह घृणा कई बार इस सीमा तक बढ़ जाती है कि वे निरीह साधु-संतों और उनके सहयोगियों के प्राण तक ले लेते हैं।
कलकत्ता में आनंदमार्गी साधुओं की हत्या, त्रिपुरा में शांति काली महाराज की हत्या, उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या, गुजरात में स्वामी असीमानंद जी पर हुए हमले और अप्रैल में पालघर में स्वामी कल्पवृक्ष गिरि महाराज व सुशील गिरि महाराज की हत्या के पीछे केवल एक ही कारण था- धर्मांतरण और उससे उपजी घृणा।
यों ही नहीं स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा था कि ”धर्मांतरण मानवता के विरुद्ध क्रूरतम हिंसा है।” स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि ”हरेक धर्मांतरण के बाद न केवल एक हिंदू कम होता है, बल्कि देश और धर्म का एक शत्रु बढ़ जाता है।”
आज आवश्यकता इस बात की है कि धर्मांतरण की आड़ में चलने वाले राष्ट्रांतरण के घिनौने खेल पर अविलंब रोक लगे और सभी धर्मों के मध्य सामाजिक सौहार्द एवं एकता के संबंध स्थापित किए जाएँ। इसके लिए सबसे अधिक जरूरी अपनी परम्पराओं, प्रतीकों और आस्था के प्रति भारतीय समाज का सजग व जागरूक होना है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)