एक साधारण, कम पढ़ा-लिखा, औसत दर्जे का साधारण फेसबुक यूजर भी बेझिझक एकबात बोल देता है कि आजादी के बाद इस देश का इतिहास एक ख़ास विचारधारा के लोगों ने प्रायोजित ढंग से लिखा है और जनता को बरगलाया है। ऐसा बोलने वाले को तथाकथित वामपंथी जमात के बुद्धिजीवियों द्वारा ‘संघी’ मात्र कहे जाने का चलन नहीं है बल्कि सारी पढाई-लिखाई का ठेका अपने सर पर उठाने का अहसान इस देश पर लादने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा यह ‘अफवाह’ भी फैलाई गयी है कि संघी पढ़ते लिखते नहीं हैं।
राहुल गांधी के लिए कोर्ट का यह आदेश एक अदालती आदेश भर नहीं है बल्कि यह एक ऐतिहासिक तथ्य भी बन गया है जिसे इतिहास में दर्ज करते हुए, पुर्व में किये गये इतिहास लेखन के घोटालों में सुधार किया जा सकता है। इस निर्णय के बहाने इस बहस को अब खारिज मान लिया जाय कि ‘गांधी की हत्या संघ ने की थी। इस निर्णय के बाद और तथाकथित इतिहासकारों की लाचारी इस बात का तस्दीक करती है कि इतिहास में तथ्यों के साथ बड़े स्टार पर न सिर्फ छेड़-छाड़ हुई है बल्कि सही तथ्यों को छिपाकर अफवाहों को हवा दी गयी है।
खैर, आज एक मानहानि के मुकदमे के बहाने माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गये निर्देशात्मक निर्णय ने इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों के ज्ञान और पढ़ाई-लिखाई वाली छिछली एवं पाखंडी समझ की पोल खोल दी। राहुल गांधी ने कभी एक बयान में कह दिया था कि ‘गांधी की हत्या संघ ने की है’। हालांकि यह ऐसा बयान है जो कम से इस देश में सर्वाधिक बार दिया गया है और आज भी दिया जाता है। राजनीति से लेकर पढ़ाई-लिखाई के स्वयंभू ठेकेदार बने फिरने वाले तमाम लोगों द्वारा इस बयान को ‘गोयबल्स’ से दो कदम आगे चल कर बोला जाता रहा है। अब भोले-भाले से राहुल गांधी की राजनीतिक समझ भला किससे छिपी है, उन्होंने ने भी सुनी-सुनाई बात बोल दी होगी। संघ की तरफ से किसी ने इस बयान पर मानहानि का मुकदमा दर्ज करा दिया। उस मामले की सुनवाई में सर्वोच्च न्यायलय ने साफ शब्दों में कहा कि अगर संघ ने गांधी हत्या की है, वाले बयान पर राहुल गांधी माफी नहीं मांगते हैं तो उन्हें ट्रायल फेस करना होगा। खैर, यह तो मुकदमे का कानूनी पक्ष है। लेकिन इस निर्णय के बहाने उन लोगों की पोल जरुर खुली है जो इस बयान के भरोसे दशकों से पढाई-लिखाई और बुद्धिजीविता की मठाधीशी कर रहे हैं।
इसी मुद्दे पर एक टीवी बहस के दौरान एक तथाकथित इतिहासकार इरफ़ान हबीब से जब पूछा गया कि आप किस आधार पर ऐसा मानते हैं ? इतिहासकार होने का तमगा लेकर अपनी बुद्धि चमकाने वाले इरफ़ान हबीब का कहना था कि इस बयान का कोई साक्ष्य नहीं है लेकिन इसे ‘पब्लिक परसेप्शन’ के आधार पर हम कहते रहे हैं। एक इतिहासकार के इतिहास बोध की कलई एक मामूली से सवाल पर इस कदर खुलेगी, इसका अंदाजा न था। लेकिन सच्चाई भी तो यही है कि झूठ और अफवाह की रेत पर इन ख़ास वैचारिक आग्रह वाले इतिहासकारों द्वारा जो छत तैयार की गयी है वो आज नहीं कल भरभरा कर गिरनी ही थी, सो आज सरेआम गिरी। पिछले दिनों एक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी अमित शाह को लेकर राणा अयूब की किताब के हवाले से कहानियां गढ़ रहे थे जबकि उसी मामले में कोर्ट के दस्तावेज सबके सामने हैं। लेकिन तथाकथित इतिहासकार गुहा साहब को कोर्ट ट्रायल से ज्यादा भरोसा राणा अयूब के मीडिया ट्रायल में नजर आया। खैर, इनकी अपनी निष्ठा और अपनी आस्था थी सो वही किये जो इनके वैचारिक आग्रह को ठीक लगा। लेकिन ‘संघ और गांधी हत्या’ मामले पर इतिहासकार कहे जाने वाले इरफ़ान हबीब की दलीलें इतनी कमजोर नजर आ रहीं थीं कि मानो कोई ‘पांचवी पास’ छात्र परीक्षा के प्रश्नों में उलझा पड़ा हो!
राहुल गांधी के लिए कोर्ट का यह आदेश एक अदालती आदेश भर नहीं है बल्कि यह एक ऐतिहासिक तथ्य भी बन गया है जिसे इतिहास में दर्ज करते हुए, पुर्व में किये गये इतिहास लेखन के घोटालों में सुधार किया जा सकता है। इस निर्णय के बहाने इस बहस को अब खारिज मान लिया जाय कि ‘गांधी की हत्या संघ ने की थी। इस निर्णय के बाद और तथाकथित इतिहासकारों की लाचारी इस बात का तस्दीक करती है कि इतिहास में तथ्यों के साथ बड़े स्टार पर न सिर्फ छेड़-छाड़ हुई है बल्कि सही तथ्यों को छिपाकर अफवाहों को हवा दी गयी है। हालांकि अब उन अफवाहबाज इतिहासकारों द्वारा ऐसा कर पाना मुश्किल दिख रहा है। संघ के ऊपर दाग लगाने की असफल कोशिश करने वाले इन खुराक के बदले इतिहास लिखने वालों को भी सबक लेने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में दिया गया आदेश, राहुल गांधी पर ही नहीं बल्कि देश को गुमराह करने वाले इरफ़ान हबीबों और रोमिला थापरों के मुह पर करार तमाचा है।