एक चर्चित पंक्ति है, ‘जब तलाशी हुई तो सच से पर्दा उठा कि घर के ही लोग घर के लूटेरे मिले’। यह पंक्ति अभी दो दिन पहले आई एक ख़बर पर सटीक बैठती है। हालांकि चुनावी ख़बरों के बीच वह ज़रूरी खबर दब सी गयी। दिल्ली विश्वविद्यालय से एक प्रोफ़ेसर जीएन साईबाबा को वर्ष २०१४ में नक्सलियों से संबंध होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और अब गढ़चिरौली की अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाई है। हालांकि जब यह गिरफ्तारी हुई थी तब नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं आई थी, लेकिन लोकसभा चुनाव हो चुके थे और परिणाम आने वाले थे। नक्सलियों से संबंध होने के आरोपित जीएन साईबाबा की गिरफ़्तारी के कुछ ही दिनों बाद चुनाव परिणाम आया और भाजपा की सरकार आ गयी।
इसमें कोई शक नहीं कि नक्सलवाद कम्युनिज्म से कोई अलग विचारधारा नहीं है। भारत में जो वामपंथी है, उसके मन में थोड़ा या ज्यादा एक-एक नक्सलवादी विचार भी रहता ही है। सही मायने में वामपंथ और नक्सलवाद के बीच एक मामूली लकीर है, जो बहुत बारीक है और दिखती नहीं है। वरना उदेश्य, लक्ष्य और चरित्र में दोनों एक ही हैं। खैर, बहस ये है कि आखिर मानवाधिकार और न्याय के नाम पर वामपंथी संगठनों के आपसी साझ से खड़े रिहाई मंच की वास्तविकता क्या है ? क्या वाकई ये मानवाधिकार जैसी कोई लड़ाई लड़ रहे हैं, अथवा इनका मंसूबा कुछ और है ?
जीएन साईबाबा की गिरफ्तारी के बहाने कम्युनिस्ट खेमे को मोदी पर हमला करने का एक अस्त्र तो मिल ही गया था। रिहाई मंच के नाम से जन्तर-मन्तर पर अनेक जुटान हुए जिसमें दिल्ली विश्विद्यालय और जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय के प्राध्यापकों सहित अनेक तथाकथित बुद्धिजीवियों ने नारे लगाए और मोदी सरकार को फासीवादी एवं अभिव्यक्ति की आजादी का दमन करने वाला बताया। उन विरोध प्रदर्शनों में रिहाई मंच के बैनर तले डूटा की अध्यक्ष नंदिता नारायण, फिल्मकार संजय काक, जलेस के राष्ट्रीय उपसचिव संजीव कुमार, नंदिनी चंद्रा, डीएसयू के उमर खालिद, फिल्मकार झरना जावेरी, कवि मदन कश्यप, भोर पत्रिका के संपादक अंजनी, पीडीएफआई के अर्जुन प्रसाद सिंह, आइसा नेता ओम, इनौस नेता असलम, दलित लेखक उमराव सिंह जाटव, विद्याभूषण रावत, रेडिकल नोट्स के पोथिक घोष, प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार सहित वामपंथ से जुड़े तमाम लोग इकठ्ठा हुए थे। लगभग ये सारे नाम वामपंथी संगठनों से जुड़े हैं और इनमे से कुछ देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोपित भी हैं।
खैर, ताजा खबर के मुताबिक़ गढ़चिरौली की निचली अदालत ने जीएन साईबाबा को नक्सलियों की मदद करने के आरोप में दोषी माना है और उम्र कैद की सजा सुनाई है। इसी मामले में एक जेएनयू के छात्र हेम मिश्र सहित तीन और को भी सजा सुनाई गयी है। अदालत द्वारा दोषी करार दिए जाने के बाद बेशक जीएन साईबाबा के पास ऊपरी अदालत में जाने का रास्ता बचता है; लेकिन रिहाई मंच के नाम पर जो लोग साईबाबा का बचाव कर रहे थे, उनकी संदिग्ध भूमिका पर भी बात की जानी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि नक्सलवाद कम्युनिज्म से कोई अलग विचारधारा नहीं है। भारत में जो वामपंथी है, उसके मन में थोड़ा या ज्यादा एक-एक नक्सलवादी विचार भी रहता ही है। सही मायने में वामपंथ और नक्सलवाद के बीच एक मामूली लकीर है जो बहुत बारीक है और दिखती नहीं है। वरना उदेश्य, लक्ष्य और चरित्र में दोनों एक ही हैं। खैर, बहस ये है कि आखिर मानवाधिकार और न्याय के नाम पर वामपंथी संगठनों के आपसी साझ से खड़े रिहाई मंच की वास्तविकता क्या है ? क्या वाकई ये मानवाधिकार जैसी कोई लड़ाई लड़ रहे हैं, अथवा इनका मंसूबा कुछ और है ?
इस पूरे मामले को अगर आंकड़ों के लिहाज से देखें तो चित्र साफ़ होता है। भारत में सजा प्राप्त कैदियों की तुलना में कहीं अधिक लोग अंडर ट्रायल जेल में हैं। तमाम ऐसे भी लोग जेल में हैं जिनपर आरोप पत्र दाखिल हो गया है, लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिल रही है। लेकिन रिहाई मंच के नाम जीएन साईंबाबा जैसे दोषी घोषित नक्सली के खड़े हो जाने वाले इन वामपंथी संगठनों का मासूम अथवा लंबित मामलों में बंद कैदियों से कोई संबंध नहीं है। अगर रिहाई मंच का उद्देश्य बेगुनाहों को कैद से मुक्त कराना होता तो उन हजारों कैदियों की लड़ाई लड़ते जो जमानत के हकदार होने के बावजूद किन्हीं कारणों से जमानत नहीं पा रहे हैं। लेकिन नहीं! वामपंथी संगठनों की एकजुटता का यह रिहाई मंच जब भी सड़क पर उतरता है, तो उसे किसी जीएन साईंबाबा की ही चिंता होती है। आज जब अदालत ने जीएन साईंबाबा को दोषी पाया है, तो यह दावा मजबूत नजर आ रहा है कि भारत में मानवाधिकार के नामपर रिहाई मंच का धन्धा करने वालों का भी किसी न किसी रूप में नक्सलियों से संबध है। इन रिहाई मंचों को समर्थन देने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों की मूल विचारधारा इन्हें संसदीय व्यवस्था के ख़िलाफ़ ले जाती है। सर्वहारा की तानाशाही और वर्गशत्रु के रक्त से हाथ लाल करने की हिंसात्मक सोच की वजह से ये भारतीय लोकतंत्र को व्यवहार में स्वीकार नहीं कर पाते हैं। जब अदालत इनके खिलाफ फैसला सुनाती है, तो ये अदालत को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं। जीएन साईंबाबा मामले में भी यही इनका रुख होगा। न्याय की विश्वसनीयता को लेकर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की सोच बेहद चयनित है। नक्सली जीएन साईंबाबा के बहाने सरकार को फासीवादी और दमनकारी साबित करने की भरसक कोशिशों के बीच अपने नक्सलवाद का अप्रत्यक्ष समर्थन करना इनका प्रिय शगल है।
देश के खिलाफ साजिशें बुनने के अभ्यस्त इन लोगों की गतिविधियों पर गौर करना होगा। इन लोगों के पास एक ही किस्म के कुछ स्थायी मुद्दे हैं; मसलन देश में अस्थिरता की स्थिति पैदा करना, लोकतंत्र को कमजोर करना, गृहयुद्ध की स्थिति पैदा करना और आयातित एजेंडे को लागू कराना। इन स्थायी मुद्दों को हवा देने के लिए अकसर ये कुछ अस्थायी गतिविधियों को हवा देने का काम करते हैं। जैसे जेएनयू में देश विरोधी गतिविधियों पर काम करना, कभी गुरुमेहर तो कभी रोहित वेमुला के बहाने अपने एजेंडे को सामने लाना इत्यादि। जीएन साईबाबा के दोषी करार दिए जाने के बाद हमें सोचना होगा कि रिहाई मंच के नाम पर नक्सलियों, आतंकियों और देश को खंडित करने वाली देश विरोधी ताकतों पर लगाम लगाई जाए। जनता के बीच इनकी स्वीकार्यता शून्य है; लेकिन लोकतंत्र और भारतीयता के लिए दीमक की तरह पैदा हो चुके रिहाई मंच के इन पैरवीकारों पर भी निगरानी जरुरी है और नक्सलियों का समर्थन करने वालों की जांच भी जरुरी है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फैलो हैं एवं नैशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम में संपादक हैं।)