अल्पसंख्यकों पर होने वाले कथित हमले को हथियार बना प्राइम टाइम करने वाले पत्रकार आज क्यों मौन हैं? क्यों तबरेज़ और अखलाक पर आँसू बहाने वाले तबलीगियों, मसीहियों, वामपंथी कार्यकर्त्ताओं के कुकृत्यों पर परदा डालने का प्रयत्न करते रहते हैं? भगवा आतंकवाद कहकर संपूर्ण बहुसंख्यक समाज को बार-बार अपमानित करने वाले क्यों इन संतों की नृशंस हत्या में मज़हबी जुनून, उन्माद और राजनीतिक साज़िशों को न देखने की वक़ालत करते हैं? जबकि ये उन्मादी धर्मांध और लाल सलाम वाले आए दिन क़ानून-व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाते रहते हैं। क्यों वे सत्य को देखने-विश्लेषित करने के लिए दोहरा मापदंड अपनाते हैं? जो सत्य इस देश के आम इंसान को इतना सीधा-साफ़ दिखाई देता है, वह इन्हें क्यों नहीं दिखता?
बीते दिनों ऐसी दो घटनाएँ हुईं जो इस देश के कथित बुद्धिजीवियों की सच्चाई बताने के लिए पर्याप्त हैं। इन घटनाओं के आलोक में इन बुद्धिजीवियों के चरित्र एवं चिंतन का यथार्थ मूल्यांकन किया जा सकता है। पहली घटना बीते कई सप्ताह से देश के शरीर पर फोड़ों की तरह जगह-जगह उभर आई है, जो अब नासूर बनती जा रही है। आँकड़े बताते हैं कि जमातियों द्वारा कोरोना-संक्रमण का सुनियोजित संचार न किया गया होता तो देश अब तक इस महामारी पर लगभग नियंत्रण स्थापित कर चुका होता।
जमातियों की भूमिका का सहज अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कुल संक्रमितों में लगभग तीस फीसद मामले जमातियों के हैं। अभी भी ये अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे, न ही सरकार का सहयोग कर रहे। सरकार द्वारा बार-बार सहयोग की अपील के बावजूद ये स्वेच्छा से सामने नहीं आ रहे। तमाम मस्जिदों और उनके मौलानाओं व इमामों की भूमिका भी लगातार संदिग्ध रही है। मस्ज़िद इन जमातियों की शरणस्थली बनकर उभरी है। ताजा मामला प्रयागराज के दो मस्जिदों का है, जहाँ 12 विदेशी जमातियों को छुपा कर रखा गया था।
सोचिए कि एक राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक प्रोफेसर शाहिद पर इन्हें मस्ज़िदों में छुपाकर रखने में अवैध मदद का आरोप पुष्ट हुआ है। यदि पढ़े-लिखे प्रोफ़ेसर भी मज़हब से ऊपर उठकर सोच नहीं पा रहे तो धर्मांधता एवं स्थितियों की भयावहता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इन जमातियों का सरगना मौलाना साद अब तक फ़रार चल रहा है। कोढ़ में खाज यह कि इनसे जुड़े लोग पुलिस-प्रशासन-डॉक्टर्स पर भी हमलावर हैं। इन्हें जहाँ उपचार के लिए ले जाया जा रहा, वहाँ भी उनका व्यवहार सभ्य समाज के लायक़ नहीं।
ये एक जगह से दूसरी जगह कोरोना के वाहक बनकर जा रहे हैं। इन्होंने एक प्रकार से सरकार और स्थानीय प्रशासन के सामने भारी चुनौती प्रस्तुत कर रखी है। बल्कि आशंका यहाँ तक प्रकट की जा रही है कि कहीं यह सब इनके षड्यंत्र का हिस्सा न हो। कहीं ऐसे कुकृत्य ये देश की बहुसंख्यक आबादी के विरुद्ध अपनी चिर-परिचित घृणा एवं मज़हबी कट्टरता के कारण न कर रहे हों।
यह सब देखते-समझते हुए भी इस देश की बहुसंख्यक आबादी ने अभूतपूर्व त्याग, संयम, अनुशासन और सौहार्द का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। सरकारें भी इनके प्रति उतनी ही सदय, सहृदय और संवेदनशील बनी रहीं जितनी कि किसी सहयोगी-अनुशासित नागरिक-समाज के प्रति। फिर भी अरुंधति रॉय जैसी कथित लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सरकार को वैश्विक मंच पर बदनाम करने का एजेंडा चला रही है।
दूसरी घटना भी कम मर्मांतक नहीं। विदित हो कि विगत 16 अप्रैल को महाराष्ट्र के पालघर में पूज्य संत कल्पवृक्ष गिरि महाराज, सुशील गिरि महाराज और उनके ड्राइवर नीलेश तेलगाने की अराजक-उत्तेजक-धर्मांध भीड़ द्वारा नृशंस हत्या कर दी गई। क्रूर एवं अराजक भीड़ ने जिस बर्बरता एवं वीभत्सता से उनकी हत्या की है, वह मानवता को दहला देने वाली घटना है।
उन निरीह, निर्दोष, निहत्थे संतों की पुलिस की उपस्थिति में हत्या मानवता को शर्मसार करती है। उन बुजुर्ग संतों ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए पुलिस के हाथ जोड़े, विनती की, गुहार पे गुहार लगाई, परंतु पुलिस ने बचाने की जगह अराजक भीड़ के हाथों सौंप उन्हें असहाय मर जाने दिया। इस नृशंस हत्या के बाद पुलिस-प्रशासन, क़ानून-व्यवस्था पर से आम आदमी का विश्वास ही उठ गया! यह पुलिस-प्रशासन के पतन की पराकाष्ठा है। क्या कहकर अपना बचाव करेगी पुलिस? क्या कहकर बचाव करेगी महाराष्ट्र की कथित प्रशंसित सरकार?
ऐसी घटनाओं के बाद सवालों के घेरे में केवल कानून-व्यवस्था के रक्षक और संचालक ही नहीं आते। बल्कि उनसे भी अधिक सवालों के घेरे में वे बुद्धिजीवी आते हैं जो सेकुलरिज़्म के झंडेबरदार हैं, जिन्होंने थोड़े-थोड़े अंतराल पर देश में धर्मनिरपेक्षता पर आए कथित संकट की वैश्विक डुगडुगी बजा रखी है, जिनकी जड़ें विदेशी खाद-पानी से पोषित हैं।
अल्पसंख्यकों पर होने वाले कथित हमले को हथियार बना प्राइम टाइम करने वाले पत्रकार आज क्यों मौन हैं? क्यों उन्होंने सोशल मीडिया पर इस नृशंस हत्या के वीडियो वायरल होने से पूर्व इसकी रिपोर्टिंग नहीं की? क्यों तबरेज़ और अखलाक पर आँसू बहाने वाले तबलीगियों, मसीहियों, वामपंथी कार्यकर्त्ताओं के कुकृत्यों पर परदा डालने का प्रयत्न करते रहते हैं?
भगवा आतंकवाद कहकर संपूर्ण बहुसंख्यक समाज को बार-बार अपमानित करने वाले क्यों इन संतों की नृशंस हत्या में मज़हबी जुनून, उन्माद और राजनीतिक साज़िशों को न देखने की वक़ालत करते हैं? जबकि ये उन्मादी धर्मांध और लाल सलाम वाले आए दिन क़ानून-व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाते रहते हैं। क्यों वे सत्य को देखने-विश्लेषित करने के लिए दोहरा मापदंड अपनाते हैं? जो सत्य इस देश के आम इंसान को इतना सीधा-साफ़ दिखाई देता है, वह इन्हें क्यों नहीं दिखता?
तबलीगियों के बहाने ”सरकार मुस्लिमों का नरसंहार करवा रही है” कहने वाली ”अरुंधती रॉय” ऐसे मामलों पर क्यों मुँह सिल लेती हैं? अरुंधति तो केवल एक नाम है, बल्कि पूरा सेकुलर धड़ा बौद्धिक दोहरेपन का पर्याय है। क्या अब भी कोई संदेह रह गया कि बुद्धिजीवियों का एक गिरोह सुनियोजित तरीके से भारत की छवि को दुनिया भर में कलंकित करने के लिए ही काम कर रहा है? बल्कि सच तो यह है कि भारत की केंद्रीय सरकार अपने जन कल्याणकारी कार्यों और सबके साथ समान व्यवहार के प्रति इतनी प्रतिबद्ध, संवेदनशील और सजग रही है कि कई बार उसे अपने पारंपरिक मतदाता-वर्ग की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है।
परंतु, प्रधानमंत्री मोदी ने कभी वोट-बैंक की परवाह नहीं की। अपने नारे और वादे के अनुसार वे सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास की नीति पर चल रहे हैं। देश उन बुद्धिजीवियों को कभी क्षमा नहीं करेगा जो इस संकट-काल में भी वैचारिक ख़ेमेबाजी और किलेबंदी से बाज़ नहीं आ रहे और घृणा का व्यापार कर रहे हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)