लॉकडाउन के दौरान ही बीते एक पखवाड़े में महाराष्ट्र से लगातार ऐसी खबरें आ रही हैं जो ये साबित करती हैं कि सरकार चलाना ठाकरे के बस की बात नहीं है। चाहे मजदूरों का पलायन हो, ब्रांदा रेलवे स्टेशन पर लॉकडाउन तोड़कर भारी भीड़ का जमा होना, उद्योगपति को घूमने जाने के लिए अनुमति मिलना हो या अब पालघर जैसी नृशंस घटना, हर मोर्चे पर ठाकरे सरकार बुरी तरह विफल हुई है।
इन दिनों देश कोरोना महामारी से जूझ रहा है। 3 मई तक पूरे देश में लॉकडाउन है। ऐसे में सभी राज्यों के सामने आज जनता की सुविधा से लेकर राज्य में सुरक्षा कानून व्यवस्था की दोहरी चुनौती है। कई प्रदेश इस कठिन समय में बेहतर परिणाम दे रहे हैं लेकिन महाराष्ट्र एक ऐसा प्रदेश बनकर उभर रहा है जहां हर मोर्चे पर बड़ी अव्यवस्थाएं, नाकामी और लचरपन उजागर हुआ है।
बात कानून व्यवस्था की हो या लॉकडाउन के पालन की, यहां सख्ती जैसी कोई चीज नजर नहीं आती, उल्टा नियमों की धज्जियां उड़ी हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सत्ता की चाबी पाने के लिए अपने पिता के आदर्शों को ताक पर रखते हुए एनसीपी और कांग्रेस से जोड़ तोड़ की सरकार बनाने में जो तेजी दिखाई थी, वह तेजी अब मुश्किल समय में प्रदेश के मुखिया की भूमिका में आने के बाद दायित्वों के निर्वहन में कहीं नज़र नहीं आती।
लॉकडाउन के दौरान ही बीते एक पखवाड़े में महाराष्ट्र से लगातार ऐसी खबरें आ रही हैं जो ये साबित करती हैं कि सरकार चलाना ठाकरे के बस की बात नहीं है। चाहे मजदूरों का पलायन हो, ब्रांदा रेलवे स्टेशन पर लॉकडाउन तोड़कर भारी भीड़ का जमा होना, उद्योगपति को घूमने जाने के लिए अनुमति मिलना हो या अब पालघर जैसी नृशंस घटना, हर मोर्चे पर ठाकरे सरकार बुरी तरह विफल हुई है। इस समय देश में कोरोना के सर्वाधिक मामले महाराष्ट्र में हैं और लगातार बढ़ रहे जो कि उद्धव सरकार की विफलता का प्रमाण है।
ताजा घटनाक्रम पालघर का है जो पूरे देश में पालघर मॉब लिंचिग के रूप में चर्चा का विषय बन चुका है और अब मामला गंभीर रूप लेता जा रहा है। यह घटना गत 16 अप्रैल की है। यहां एक ख़ास समुदाय की उन्मादी भीड़ ने दो साधुओं और उनके वाहन चालक की हत्या कर दी।
यह महाराष्ट्र सरकार की बड़ी विफलता ही है कि सोशल मीडिया पर साधुओं के पक्ष में भड़के आक्रोश के बाद जब मामला राष्ट्रीय सुर्खी बना तब दो दिन बाद पुलिस ने यहां 110 लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया। मामले में 101 लोगों को हिरासत में लिया गया है लेकिन जब आरोपी कहीं बाहर से नहीं आए थे, स्थानीय ग्रामीण ही थे तो पुलिस को कार्यवाही में दो दिन कैसे लग गए, यह भी सवाल खड़ा होता है।
गौर करने लायक बात तो यह भी है कि जिस समय सैकड़ों की भीड़ तीन लोगों पर टूट पड़ी थी तब पुलिस ने उन्हें बचाया क्यों नहीं? वो मूकदर्शक क्यों बनी रही? 3 मई तक देश में अभी लॉकडाउन जारी है और ऐसे में महाराष्ट्र तो कोरोना का हॉटस्पॉट बना हुआ है। मध्यप्रदेश, गुजरात, दिल्ली के बाद सर्वाधिक मामले महाराष्ट्र से सामने आ रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि लॉकडाउन में जब किसी को भी व्यर्थ घूमने, बाहर निकलने की अनुमति नहीं है, पालघर में सैकड़ों लोग एक साथ कैसे निकल आए। हिंसा को रोकना तो दूर, क्या पुलिस लॉकडाउन का भी ठीक से पालन नहीं करा सकती थी।
अब चूंकि मामला बढ़ चुका है इसलिए देश भर का साधु समाज आक्रोशित है। महामंडलेश्वर स्वामी विश्वेश्वरानंद गिरि ने महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी को पत्र लिखकर इस घटना की भर्तस्ना की है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस हर मोर्चे पर इस गठबंधन सरकार को आड़े हाथों ले रहे हैं। उन्होंने भी इस घटना पर रोष जताया है।
स्वामी विश्वेश्वरानंद गिरि ने स्पष्ट पूछा है कि यदि अन्य किसी धर्म विशेष या व्यक्ति के साथ यह घटना होती, क्या तब भी मानवाधिकारवादी एवं मीडिया के लोग ऐसे ही चुप बैठते? इतनी बड़ी घटना होने पर भी मानव अधिकार आयोग का चुप बैठना आश्चर्य पैदा करता है। इस मामले पर अब राजनीति भी शुरू हो गई है। भाजपा उद्धव ठाकरे सरकार से जवाब मांग रही है और दोषियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने की मांग की जा रही है।
अभी अधिक दिन नहीं बीते, बांद्रा के रेलवे स्टेशन पर उमड़ी भारी भीड़ ने मुंबई का पूरे देश के सामने तमाशा बनाकर रख दिया था। यह वाकया भी 14 अप्रैल को ऐसे दिन हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लॉकडाउन की अवधि को 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा कर चुके थे।
प्रेस वार्ता में ठाकरे ने अपनी सफाई में यह तो कह दिया कि किसी को पलायन की आवश्यकता नहीं है, सरकार सबका ध्यान रखेगी, लेकिन यह बात कोरी और खोखली साबित हो गई। धरातल पर इसका कोई असर नज़र नहीं आ रहा। यही कारण है कि अभी कल ही मीडिया में महाराष्ट्र से मजदूरों के पलायन की खबरें चलती रहीं। मुंबई और नासिक से बड़े पैमाने पर मजदूर अपने गांव, घरों की ओर लौट रहे हैं।
महाराष्ट्र सरकार का सुविधाएं देने का दावा करना और उसके बावजूद मजदूरों का पलायन करना स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है कि उद्धव सरकार की कथनी व करनी में बड़ा भेद है। बांद्रा में भारी भीड़ के उमड़ने का खामियाजा अब उन निर्दोष लोगों को भी संक्रमण के रूप में भुगतना पड़ सकता है जो इस पूरे घटनाक्रम में कहीं नहीं हैं।
इससे पहले गत 10 अप्रैल को यस बैंक और डीएचएफएल फर्जीवाड़े के आरोपी डीएचएफएल प्रमोटर्स कपिल, धीरज वधावन, परिवार के अन्य सदस्य सहित कुल 23 लोग गुरुवार को महाराष्ट्र के सतारा जिले के महाबलेश्वर में स्थित अपने फॉर्महाउस में पाए गए थे। हैरत की बात है कि इनके पास महाराष्ट्र सरकार के प्रधान सचिव (होम) अमिताभ गुप्ता की ओर से जारी पास थे। सवाल यह है कि जब लॉकडाउन में सभी जिलों की सीमाएं सील हैं तो इन 23 लोगों को पुणे जिले के खंडाला से महाबलेश्वर जाने की इजाजत कैसे दी गई। इनके पास शासन के वीवीआईपी पास थे लेकिन इस समय इस पास को दिए जाने की मंशा पर सवाल खड़ा होता है।
ऐसा लगता है जैसे उद्धव ठाकरे का नौकरशाही से लेकर आम जनता तक ना कोई नियंत्रण है, ना प्रभावी संवाद। संकट के इस दौर में नियंत्रण एवं संवाद ना केवल वक्त की दरकार है, बल्कि कसौटी भी है। पूरे देश को याद होगा कि किस प्रकार गत वर्ष अक्टूबर में सत्ता में आने के लिए ठाकरे ने जोड़ तोड़ की राजनीति की सारी हदें पार कर दी थीं और शिवसैनिकों का आंतरिक विरोध झेलने के बावजूद मुख्यमंत्री बने।
उन्होंने एनसीपी व कांग्रेस से हाथ मिलाकर सत्ता तो हासिल कर ली लेकिन शासन के मोर्चे पर विफल प्रतीत हो रहे हैं। मुख्यालय पर बैठकर नीतियां बनाना और धरातल पर उनका अमल होना अलग-अलग बातें हैं। महाराष्ट्र की सरकार नीतियां तो बना रही हैं लेकिन धरातल पर सब शून्य साबित हो रहा है। उन्हें अब बैठकर आत्म मूल्यांकन करना चाहिये कि उनके मुख्यमंत्री बनने से उनकी निजी महत्वाकांक्षा के अलावा और किसका हित हुआ।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)