1902 के अपने मद्रास (आज चेन्नई) में दिए हुए भाषण में भगिनी निवेदिता ने कहा था, “अगर भारत में स्वयं एकता नहीं थी, तो कोई भी एकता उसे नहीं दी जा सकती थी। निस्संदेह जो एकता भारत की थी, वह स्व-जन्म की थी और उसकी अपनी नियति, अपने कार्य और अपनी विशाल शक्तियाँ थी; लेकिन यह किसी का उपहार नहीं था।”
जैसे मिट्टी का एक घड़ा बनाने में परिश्रम और समय दोनों लगता है लेकिन तोड़ने में दोनों नहीं लगते, बस कुछ सेकंड ही काफी हैं। ऐसे ही नकारात्मकता तो स्वयं आ जाती है, सकारात्मक रहने के लिए प्रयास करना पड़ता है। जैसे शाररिक तौर पर पेट तो उम्र और दिनचर्या के हिसाब से स्वयं बाहर आने लगता है, लेकिन उसको बाहर ना निकलने देना और एक आकार में बनाये रखने में परिश्रम की जरूरत होती है, ऐसे ही आलस्य स्वयं आ जाता है लेकिन ऊर्जा से भरे रहने के लिए विशेष परिश्रम चाहिए होता है।
जब हम अनेकता में एकता की बात करते हैं तो हमें उद्धरण देने में शायद थोड़ा सोचना पड़े लेकिन अनेकता बताने में हमें ज्यादा समय नहीं लगेगा। जैसे एक परिवार के लोग वजन से, कद-काठी से, त्वचा के रंग से, विचारों से और अधिकतर परिवार के सदस्य शक्ल से एक जैसे नहीं दिखते लेकिन आत्मीय संबंधों के कारण वह परिवार कहलाता है। ऐसे ही, भारत में भले ही विभिन्न भाषाओं, खान -पान, कद -काठी, पंथो और मतों वाले लोग रहते हों, जो बाहरी रूप से अलग लगते हैं, लेकिन वह एक परिवार की तरह है जो आत्मीयता से जुड़ा हुआ है।
हम सब भारतीयों की सांस्कृतिक विरासत एक है और हम एक सांस्कृतिक राष्ट्र हैं, जो आज से नहीं हज़ारों वर्षों से चलते चले आ रहे हैं। भारत दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से इकलौती ऐसी सभ्यता है जो आज भी मूल रूप में अपने अस्तित्व में है।
‘उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र सन्तति॥’
विष्णु पुराण का यह श्लोक जिसका अर्थ है कि समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो वर्ष स्थित है, उसका नाम भारत है और उसकी संतति को भारती कहते हैं। यह श्लोक भारत की भौगोलिक एकता के साक्षात्कार के अनेक प्रमाणों में से एक है। इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ के हिसाब से विष्णु पुराण 400-300 ईसा पूर्व लिखी गई है , वहीं इतिहासकार रामचंद्र दीक्षित विष्णु पुराण को 700-300 ईसा पूर्व लिखी हुई बताते हैं।
अगर हम आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार दिए हुए विष्णु पुराण के रचना काल को भी मान लें तो भी हम यह कह सकते हैं कि हमारे भारत जैसे विशाल भूखंड की एकता का साक्षात्कार कम-से-कम दो हज़ार से लेकर पंद्रह सौ साल पुराना है। भारत से अलग कोई भी अन्य सभ्यता, संस्कृति या साहित्य अपने देश के बारे में ऐसा प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता है।
इससे पूर्व में रचित दो राष्ट्रीय ग्रन्थ महाभारत और रामायण भी सम्पूर्ण भारत का भौगोलिक परिचय और वर्णन करते है जिसका एक उद्धरण है जब युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करते हैं तो बाकी 4 पांडव भाई अर्जुन, भीम , नकुल , सहदेव देश दुनिया के चारों दिशाओं में दिग्विजय पर जाते हैं अपनी सेनाओं के साथ।
विभिन्न प्रांतो के राजा यज्ञ में शामिल होने आते हैं और आर्थिक सहभागिता भी देते हैं। इसके अतिरिक्त तीर्थयात्रा वर्णन एवं स्वयंवर वर्णन के द्वारा भी हमें सम्पूर्ण भारत का भौगोलिक परिचय मिल जाता है।
देवेंद्र स्वरूप के लेख ‘सरस्वती तट से निकली सांस्कृतिक जय-यात्रा’ से हमे जानकारी मिलती है कि कौटिल्य जो अर्थशास्त्र के रचयिता हैं, वह नंद वंश का उच्छेदन कर चंद्रगुप्त मौर्य को मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठाने वाले आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य भी कहलाते हैं। आधुनिक विद्वत्ता के द्वारा निर्धारित भारतीय इतिहास के तिथिक्रम में कौटिल्य की अर्थशास्त्र का रचना काल चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व है।
इस कौटिल्य अर्थशास्त्र के नवम् अधिकरण के 135-136 प्रकरण में चक्रवर्ती क्षेत्र की व्याख्या निम्न सूत्र में की गई है— ‘देशः पृथ्वी! तस्यां हिमवत्समुद्रांतर मुदीचीनम्। योजन सहस्र परिमाणं तिर्यंक चक्रवर्तीक्षेत्रम्॥’
इसका अर्थ है हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्रपर्यंत, पूर्व से पश्चिम दिशा में एक हजार योजन तक फैला हुआ भू-भाग चक्रवर्ती क्षेत्र है। कौटिल्य अर्थशास्त्र का यह सूत्र अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। वह उत्तर और दक्षिण की सीमाओं के साथ-साथ पूर्व-पश्चिम के विस्तार को भी स्पष्ट करता है। चक्रवर्ती क्षेत्र कहने का अर्थ है भारत की राजनीतिक एकता का लक्ष्य और यह लक्ष्य केवल भारत की प्राकृतिक सीमाओं तक सीमित है।
हमारे उत्सव भी हमारी एकता का प्रमाण हैं – मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का एक प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्यौहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन आता है। इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। नाम अलग हो सकता है लेकिन इस त्योहार को सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है जैसे तमिलनाडु में इसे पोंगल ,कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में केवल संक्रांति ही कहते है।
गुजरात और उत्तराखण्ड के कुछ भागों में उत्तरायण तो गढ़वाल में खिचड़ी संक्रान्ति, पंजाब , हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के कुछ भागों में माघी और लोहड़ी के नाम से तो पश्चिमी बिहार के कुछ भाग में खिचड़ी तो असम में बिहु, कश्मीर घाटी में शिशुर सेंक्रात तो पश्चिम बंगाल के कुछ भागो में पौष संक्रान्ति और अधिकतर प्रांतो में जैसे छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, गुजरात जम्मू और देश के अन्य भागो में मकर संक्रान्ति ही कहते हैं।
भारत की अनेकता में एकता का राम कथा भी है उदाहरण – भारत का कोई भाग ऐसा नहीं है जहां श्री राम का नाम और विचार ना पहुँचा हो। ऋषि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रामायण मूल रूप से लिखी गई और संस्कृत में ही उसके अनेक संस्करण भी हैं, जैसे कि वशिष्ठ रामायण, अगस्त्य रामायण, आध्यात्म रामायण आदि।
अगर भारतीय भाषाओं की बात करें तो तमिलनाडु में 12वीं शताब्दी के कवि कम्बन तमिल में कंब रामायण लिखते है, असम में 14वीं शताब्दी में माधवा कंडाली सप्तकाण्ड रामायण, 15वीं शताब्दी में कृत्तिबास ओझा बंगाली कृत्तिवासा रामायण, उत्तर प्रदेश के अवध में 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस, संत एकनाथ 16वीं शताब्दी में मराठी भावार्थ रामायण, कवि प्रेमानंद स्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस से प्रभावित होकर 17वीं शताब्दी में गुजराती में तुलसी रामायण लिखते हैं।
अगर हम कर्नाटक की बात करें तो कन्नड़ में कुमुदेन्दु रामायण (जैन संस्करण) 13वीं शताब्दी में लिखी जाती है और कुमारा-वाल्मीकि तोरवे रामायण 16वीं शताब्दी में लिखते हैं। ओडिशा में भी रामायण की परंपरा बहुत पुरानी है। उड़िया दाण्डि रामायण या बळराम दास कृत जगमोहन रामायण 14वीं शताब्दी में रची जाती है।
गुरु गोविन्द सिंह जी द्वारा गुरुमुखी लिपि में लिखी रामायण उस समय के कार्यकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक साबित हुई थी। दक्षिण भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले वि. वि. एस अय्यर जेल में ‘अ स्टडी ऑफ़ कंब रामायण’ लिखते हैं।
इनके अतरिक्त आंध्र प्रदेश, बिहार, गोवा, केरल, मणिपुर और अन्य प्रांतों में रामायण सालों से सुनाई और पढ़ी जा रही है। अनेक भारतीय भाषाओं में लिखित रूप में आने से पहले भी, रामायण घर घर में कहानियों के माध्यम से अनेक वर्षों से प्रचलित है। इसके अतरिक्त बौद्ध और जैन पंथों में भी रामायण के अपने-अपने संस्करण हैं।
आदि गुरु शंकराचार्य जी और स्वामी विवेकानंद जी का कार्य – भारत की एकता और उसके ऐतिहासिक विचार का कोई सबसे बड़ा उदाहरण है तो वो हैं, आदि गुरु शंकराचार्य जी जो द्रष्टा-बौद्धिक थे। उन्होंने 8 वीं शताब्दी में वेदांत की सर्वोच्चता स्थापित की थी। उन्होंने सनातन धर्म में विद्यमान विभिन्न मतों का एकीकरण किया।
शंकराचार्य का जन्म केरल के कलादी ग्राम में हुआ था । उन्होंने भारत भूमि की दार्शनिक विजय की यात्राएं कीI श्रीनगर में शंकराचार्य मंदिर अभी भी इस महाकाव्य यात्रा का गवाह है जो भारत के सुदूर उत्तर की अविश्वसनीय केंद्रीयता के साथ-साथ इसके सुदूर दक्षिण की कल्पना की ओर भी है।
शंकराचार्य जी की अखिल भारतीय यात्राएं भारत के भौगोलिक और सांस्कृतिक तौर पर एक होने का प्रमाण देती हैं। शंकराचार्य जी ने चार दिशाओं में मठों की स्थापना भी की। बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ, पूर्व जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ(ओडिशा), दक्षिण के शृंगेरी में शंकराचार्यपीठ(कर्नाटक) और पश्चिम में द्वारिका (गुजरात) में शारदामठ। इस कार्य से उन्होंने भारत को पुनः आध्यात्मिक एकता और एकात्मकता के सूत्र में पिरो दिया था।
19वीं शताब्दी में जन्में स्वामी विवेकानंद का जन्म स्थान और उनका मठ बंगाल में है तो उनको अपने जीवन का उद्देश्य दक्षिण भारत के आखरी तट कन्याकुमारी में मिला था। परिव्राजक जीवन में उन्होंने बिहार के बोधगया और उत्तर प्रदेश के वाराणसी में भी सुखद समय बिताया तो उत्तराखंड के शहर अल्मोड़ा से उनको अत्यंत प्रेम था। कश्मीर में बाबा अमरनाथ जी के और माता क्षीर भवानी के भी दर्शन हुए थे तो राजस्थान में उनको विवेकानंद नाम भी मिला था और सर पर बांधने को साफा भी। और जब स्वामी विवेकानद 11 सितम्बर 1893 को शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सभा में भारतीय संस्कृति,सभ्यता और दर्शन को विश्व से रूबरू करवाते हैं तो भारत विश्व विजयी बन जाता है।
मैं इस लेख का समापन भगिनी निवेदिता के उन शब्दों से करना चाहूंगा जो उन्होंने 1902 के अपने मद्रास (आज चेन्नई) में दिए हुए भाषण में कहे थे, “अगर भारत में स्वयं एकता नहीं थी, तो कोई भी एकता उसे नहीं दी जा सकती थी। निस्संदेह जो एकता भारत की थी, वह स्व-जन्म की थी और उसकी अपनी नियति, अपने कार्य और अपनी विशाल शक्तियाँ थी; लेकिन यह किसी का उपहार नहीं था।”
(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैंI प्रस्तुत विचार उनके निजी हैंI)