कांग्रेस के लिए इन राज्यों में अपने प्रदर्शन को बेहतर करना बेहद जरूरी है तभी वह 2019 से पहले खुद को भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर पेश कर सकेगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो संभावित महागठबंधन के साथी दलों द्वारा काग्रेस का खुलकर चौतरफा विरोध शुरू हो जाएगा और राहुल गांधी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा होने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाएंगी। ऐसे में कहना न होगा कि ये पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए जीवन-मरण के प्रश्न की तरह हैं। इन चुनावों का परिणाम ही उसके राजनीतिक भविष्य की दशा-दिशा तय करेगा।
पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव की आधिकारिक घोषणा के साथ ही सत्ता का सेमिफाइनल शुरू हो गया है। रणभेरियाँ बज चुकी हैं। वैसे तो यह राज्यों का चुनाव है, लेकिन इन्हीं प्रदेशों की राजधानियों से निकलकर आगे रास्ता दिल्ली के लिए जाएगा। इन पाँचों राज्यों में मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव पर सबकी विशेष नजर है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा काफी समय से सत्ता में है, जहाँ शिवराज सिंह और रमन सिंह ने क्रमशः पिछले 15 वर्षों से अपने प्रदेश की सेवा की है। इन राज्यों में असली मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होगा।
केंद्र से 2014 में सत्ता से बाहर होने और फिर लगातार विधानसभा चुनावों में भी मुंह की खाने के बाद कांग्रेस के लिए अपना दमखम दिखाने का यह अच्छा अवसर है, उसके लिए ज़रूरी है कि वह बीजेपी के मुकाबले अपने प्रदर्शन को थोड़ा बेहतर करे। हालांकि कांग्रेस की राजनीतिक दशा जैसी चल रही, ये करना उसके लिए आसान नहीं होगा। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी अंदरूनी लड़ाई से दो चार हो रही है। नेतृत्व को लेकर अभी तक स्पष्टता नहीं है। रही सही कसर बहन मायावती ने राहुल गांधी के नेतृत्व को पूरी तरह से नकार के पूरी कर दी है।
कांग्रेस भले ही कह रही हो कि यह दूरी 2019 से पहले मिट जाएगी, लेकिन सच्चाई यही है कि मायावती लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को किसी तरह की रियायत देने के मूड में नहीं हैं, खासकर उत्तर प्रदेश जैसे अहम राज्य में। मायावती उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पैर फ़ैलाने की जगह देंगी, इसकी सम्भावना बहुत ही कम है। वहीं दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी की भी खीज साफ़ है, जहाँ अखिलेश ने साफ़ कह दिया कि वह कांग्रेस की इंतजार कराने की आदत से परेशान हैं। जाहिर है, कोई भी क्षेत्रीय दल उसे ज्यादा भाव देने के मूड में नहीं है।
कांग्रेस पार्टी ने राजस्थान में युवा सचिन पायलट को पार्टी की कमान देकर राज्य इकाई पर ध्यान दिया है, लेकिन सच्चाई यह है कि सचिन पायलट अभी भी आम जनता में लोगों की पसंद नहीं बन पाए हैं। दूसरी तरफ पार्टी के लिए अशोक गहलोत एक सिरदर्द की तरह हैं, जो सचिन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम नहीं कर सकते।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस तीन अलग-अलग धड़ों में बंटी है, अंतर्कलह की वजह से पार्टी एक मंच पर नहीं आ पा रही है, वहीं दूसरी तरफ शिवराज सिंह चौहान के विजयरथ को रोकने की कांग्रेस के क्षत्रपों में अभी तक शक्ति नहीं दिखाई देती। अपनी पहचान मजबूत करने के लिए दिग्विजय सिंह ने नर्मदा नदी के किनारे-किनारे कई महीने तक यात्रा की, लेकिन उनके राजनीतिक भविष्य पर से लगा ग्रहण हटने का नाम नहीं ले रहा है। कमलनाथ तमाम कोशिशों के बावजूद भी अभी तक अपनी ताकत नहीं दिखा सके हैं। इस तरह चुनावाधीन तेलंगाना में भी कांग्रेस अपनी दिशा तय नहीं कर पा रही है।
देखा जाए तो कांग्रेस के लिए इन राज्यों में अपने प्रदर्शन को बेहतर करना बेहद जरूरी है तभी वह 2019 से पहले खुद को भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर पेश कर सकेगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो संभावित महागठबंधन के साथी दलों द्वारा काग्रेस का खुलकर चौतरफा विरोध शुरू हो जाएगा और राहुल गांधी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा होने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाएंगी।
ऐसे में कहना न होगा कि ये पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए जीवन-मरण के प्रश्न की तरह हैं। इसीलिए इन चुनावों में जीत के लिए कांग्रेस जाति-मजहब-क्षेत्र आदि सभी तरह के राजनीतिक हथकण्डों को आजमाने में लगी है। बावजूद इसके कहीं से भी उसके लिए अच्छे संकेत नहीं दिखाई दे रहे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)