लोया मामले पर कोर्ट के निर्णय से राहुल गांधी का बिफरना स्वभाविक था। गलती मानने के लिए अधिक नैतिक साहस की जरूरत होती है, जबकि गलती छिपाने के लिए कई उपक्रम करने होते हैं। कांग्रेस ने दूसरा रास्ता चुना। उसने मुख्य न्यायाधीश को हटाने की कवायद शुरू कर दी। यह अपनी गलती और बौखलाहट को छिपाने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं है। पहले ही उम्मीद जताई जा रही थी कि उपराष्ट्रपति इस निराधार और तथ्यहीन नोटिस को मंजूरी नहीं देंगे। विपक्ष ने उपराष्ट्रपति को जो नोटिस दिया, उसमें गंभीरता नहीं थी। अधिकांश आरोप मात्र संभावना पर आधारित थे, जबकि ऐसे प्रस्ताव पुख्ता प्रमाणों के बाद ही मंजूर होते हैं।
मुख्य न्यायाधीश को हटाने की कांग्रेसी मुहिम का यही हश्र होना था। राज्यसभा के सभापति वैकैया नायडू ने इस संबन्ध में विपक्ष की नोटिस को खारिज कर दिया। उन्होंने इसके लिए पर्याप्त होमवर्क किया। देश के दिग्गज संविधान और विधि विशेषज्ञों से विचार विमर्श किया। इसके आधार पर विपक्ष की नोटिस के प्रत्येक बिंदु का परीक्षण किया। तदुपरांत बाईस तथ्यों के आधार पर नोटिस को निरस्त किया गया।
इस घटनाक्रम से यह स्पष्ट हुआ कि विपक्ष ने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ केवल संभावनाओं के आधार पर इतने आरोप लगा दिए। संविधान संभावनाओं के आधार पर किसी जज को हटाने की इजाजत नहीं देता। लेकिन, इससे भी कांग्रेस ने सबक नहीं लिया। उसे यही अहंकार है कि चौसठ राज्यसभा सदस्यों ने नोटिस पर हस्ताक्षर किए हैं। मतलब यह कि चौसठ सांसद होंगे, तो संविधान के प्रतिकूल भी कार्य की जिद होने लगेगी।
हमारे संविधान निर्माताओं ने उच्चतम और उच्च न्यायालय को संरक्षक की भूमिका में स्वीकार किया। इसी के अनुरूप उसे गरिमा प्रदान की गई। देश में न्यायपालिका का विशिष्ट सम्मान भी है। कार्यपालिका और व्यवस्थापिका से निराश व्यक्ति को न्यायपालिका से उम्मीद रहती है। उसे लगता है कि यहाँ उसे न्याय मिलेगा। उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों को हटाने के लिए संविधान निर्माताओं ने सार्थक और गंभीर प्रावधान किए हैं। वह नहीं चाहते थे कि जजो को राजनीतिक आधार पर हटाने की चर्चा की जाए। लेकिन, कांग्रेस और उसके साथ छह पार्टियो ने मुख्य न्यायाधीश को हटाने की जो नोटिस दी, वह सविधान के प्रावधान और भावना को पूरा नहीं करती। विडंबना देखिये कि इसमें वह पार्टी भी शामिल है, जो संविधान निर्माता के नाम पर राजनीति करती है।
देश के मुख्य न्यायाधीश को हटाने के प्रस्ताव पर कांग्रेस के विधि-विशेषज्ञ भी असहमत बताए जा रहे थे। कई लोगों ने आगाह भी किया कि इसका कोई ठोस आधार नहीं है, यह अंततः पार्टी की फजीहत ही कराएगा। लेकिन, कहा गया कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहते हैं, क्योंकि जिस जज लोया के मसले पर राहुल सौ अधिक सांसदों को लेकर राष्ट्रपति से मिलने गए थे, उसको मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने हाल ही में निराधार करार दे दिया।
इतना ही नहीं, विद्वान न्यायाधीशों ने भी इस प्रकार की जनहित याचिकाओं के प्रति नाराजगी व्यक्त की थी। इन्हें व्यर्थ और राजनीति से प्रेरित बताया था। यह अपरोक्ष रूप से राहुल गांधी के लिए शर्मिंदगी का विषय था। वह एक राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया हैं, लोकसभा के सदस्य हैं। इस रूप में उनकी कुछ जिम्मेदारी और मर्यादा है। लेकिन, वह इसके निर्वाह के प्रति कभी गंभीर दिखाई नहीं देते। अन्यथा डेढ़ सौ सांसद लेकर राष्ट्रपति के यहां नहीं चले जाते।
राजनीति अपनी जगह है, लेकिन संवेदना और संविधान से संबंधित विषयों पर मर्यादा का पालन अपरिहार्य होता है। राहुल अक्सर इसमें चूक करते हैं। वह राजनीति को इतनी अहमियत देते हैं कि मर्यादा के विषय पीछे रह जाते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। जिस विषय को राहुल तरजीह दी रहे थे, वह निराधार माना गया। चार जज की प्रेस कांफ्रेंस से ज्यादा महत्वपूर्ण इससे पांच गुना ज्यादा जजों के विचार थे। वे मुख्य न्यायाधीश की भूमिका से सहमत थे।
ये सब बातें कांग्रेस को नागवार लगने वाली थीं। लोया मामले पर कोर्ट के निर्णय से राहुल गांधी का बिफरना स्वभाविक था। गलती मानने के लिए अधिक नैतिक साहस की जरूरत होती है, जबकि गलती छिपाने के लिए कई उपक्रम करने होते हैं। कांग्रेस ने दूसरा रास्ता चुना। उसने मुख्य न्यायाधीश को हटाने की कवायद शुरू कर दी। यह अपनी गलती और बौखलाहट को छिपाने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं है। पहले ही उम्मीद जताई जा रही थी कि उपराष्ट्रपति इस निराधार और तथ्यहीन नोटिस को मंजूरी नहीं देंगे। विपक्ष ने उपराष्ट्रपति को जो नोटिस दिया, उसमें गंभीरता नहीं थी। अधिकांश आरोप मात्र संभावना पर आधारित थे, जबकि ऐसे प्रस्ताव पुख्ता प्रमाणों के बाद ही मंजूर होते हैं।
दरअसल कांग्रेस के दिग्गज विधि और संविधान विशेषज्ञों ने अपने अध्यक्ष राहुल गांधी की इच्छा पूरी करने के लिए जैसे-तैसे नोटिस तैयार की, लेकिन आरोपों के पक्ष में ठोस प्रमाण नहीं दे सके। उनका प्रस्ताव संभावनाओं पर आधारित ही बन पाया। मुख्य न्यायाधीश पर पांच आरोप लगाए गए। इनमें तीन सन्देह पर आधारित हैं। अन्य दो के पक्ष में निश्चित प्रमाण नहीं दिए गए हैं। तथ्य की जगह मुख्य न्यायाधीश की भूमिका पर प्रश्न उठाये गए हैं।
चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस का विषय उठाया गया। लेकिन, इस आधार पर मुख्य न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता। ‘न्यायाधीश जांच कानून 1968’ के अनुसार जजो को हटाने के प्रस्ताव के लिए तथ्यपूर्ण और प्रमाणिक आरोप होने चाहिए।राहुल गांधी को देखना चाहिए कि उनके विद्वान सहयोगी भी इस मामले में कुछ खास नहीं कर सके। वह ठोस प्रस्ताव नहीं बना सके, क्योंकि, यह मसला मुख न्यायाधीश के प्रति राजनीतिक मंशा से प्रेरित और दुर्भावना पर आधारित था। इसमें लेशमात्र भी प्रमाणिकता और सत्यता नहीं थी।
कांग्रेस का इस पर जवाब दिलचस्प है। उसने कहा, यह लोकतंत्र को ख़ारिज करने वालों और लोकतंत्र को बचाने वालों के बीच की लड़ाई है। इतना ही नहीं, कांग्रेस ने कहा है कि उपराष्ट्रपति को इस प्रस्ताव के गुण-दोष पर फैसला करने का अधिकार नहीं है। सुरजेवाला ने कहा, ‘यदि सभी आरोपों को जांच से पहले ही साबित करना है, जैसा राज्यसभा के सभापति कह रहे हैं, तो ऐसे में संविधान और न्यायाधीश जांच क़ानून की कोई प्रासंगिकता नहीं रह जाएगी।‘ विचित्र है कि कांग्रेस चौसठ सांसद लेकर लोकतंत्र को बचाने की बात कर रही है। जबकि वह बखूबी जानती है कि इससे कई कई गुना अधिक सांसद और अधिसंख्य संविधान विशेषज्ञ ऐसे प्रस्ताव को निराधार मानते हैं।
कांग्रेस की दलील के हिसाब से ये सभी लोकतंत्र के दुश्मन हैं। इस बात पर कितने लोग विश्वास करेंगे, कांग्रेस को इस पर विचार करना चाहिए। सच्चाई वह नहीं है, जो चौसठ सांसद बता रहे हैं। सच्चाई यह है कि कांग्रेस अपनी सियासत के अनुरूप न्यायपालिका पर हमला बोल रही है, जबकि उसका यह प्रयास संविधान की भावना के प्रतिकूल है।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)