काश्मीर: विलासितों के लोकतंत्र से बढ़ता आतंकवाद का खतरा

पुष्कर अवस्थी
वर्तमान समय में काश्मीर के सन्दर्भ में जो बुद्धिजीवी यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि काश्मीर में उत्पात मचा रहे अलगाववादी ताकतों से शान्ति एवं सद्भावना की उम्मीद की जानी चाहिए, वह या तो झूठ बोलते है या फिर वह स्वयं किसी यूटोपिया में जी रहे हैं। अलगाववादी पत्थरबाजों से शान्ति की अपील इसलिए भी असंभव लगती है क्योंकि वे पिछले 69 सालो से शेष भारत से अलग और विशेष होने की विलासता में जीवन जी रहे हैं और उनको वैसे ही जीते रखने की कोशिश भी तथाकथित सेक्युलर सरकारों द्वारा की गयी है। ऐसे में अब उनसे यह उम्मीद करना कि पीढियों के संकरण से पैदा हुई नस्ल, चन्द वर्षो में ठीक हो जायेगी यह सिर्फ एक ख्याली पुलाव भर है।

लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर विलासिता का भोग करने वाले बुद्धिजीवियों के बारे में भी पुनर्विचार की जरूरत है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की सीमा इतनी तो बिलकुल नहीं होनी चाहिए कि इनके नाम पर कोई आतंकवादी के समर्थन में उतर जाए।

कश्मीर में जो हो रहा है उसको लेकर सोशल मीडिया पर टूटी फूटी खबरों का अम्बार लगा हुआ है और कुछ वीडियो भी शेयर किये जा रहे हैं। एक तरफ जहाँ इस बात पर लोग हर्षित हैं कि भारत की सरकार उपद्रवियों से सख्ती से निपट रही है वही कुछ लोग इस तरह की किसी खबर को सिरे से ही नकार रहे है और आक्रोशित होकर बता रहे है की सरकार कुछ नही कर रही है और आज भी सुरक्षाकर्मी कश्मीरी उपद्रवियों द्वारा मारे जारहे है। हालांकि हकीकत हकीकत यह है की कश्मीर की घाटी से समाचार आने और जाने पर प्रतिबंध लगा हुआ है। जो समाचार आ रहे है वह छन छन कर आरहे है और उसकी विवेचना और प्रमाणिकता कुछ समय बाद ही हो पायेगी।

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लेकिन जो सत्य है वह यह कि हम काश्मीर में पिछले 3 दशको से युद्ध की ही स्थिति में है। यह युद्ध बहुत कुछ छापेमारी का युद्ध है, जो रुक रुक कर होता रहता है। काश्मीर की आबो हवा में बारूद की गंध इस तरह मिल गयी है कि वहां अब बिना सख्ती के कभी भी परिणाम नही आने वाला है। हमे और आपको कश्मीर को बचाने के लिए काश्मीरी अलगाववादियों से युद्ध की मानसिकता के लिए तैयार रहना होगा। यह हम सबको समझना होगा कि कई दशको से उलझा काश्मीर का मामला लॉ एंड आर्डर का मामला नही रह गया है बल्कि इस मामले का समाधान अब शस्त्रयुक्त सख्ती बरतने का है। अलगाववादी ताकतों की वजह से वहां के आम काश्मीरी भी परेशान रहते हैं। पिछले कुछ समय से जितना मैं कश्मीर, पाकिस्तान, चीन और स्वयं भारत की नई कश्मीरी नीति के परिणामों को समझ रहा हूँ उसके आधार पर मुझे यह लगता है की काश्मीर की अस्थिरता अपने मौजूदा स्थिति के आखिरी दौर में है। इसबात की संभावना बहुत ज्यादा दिखाई दे रही है कि अब समस्या अपने समाधान की तरफ जा रही है। सरकार की नीतियाँ अब वहां की स्थिति से निपटने में ज्यादा कारगर नजर आ रही हैं। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि भारतीय सेना की स्थिति को वहां और मजबूत बनाया जाय। इसके अतिरिक्त लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर विलासिता का भोग करने वाले बुद्धिजीवियों के बारे में भी पुनर्विचार की जरूरत है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की सीमा इतनी तो बिलकुल नहीं होनी चाहिए कि इनके नाम पर कोई आतंकवादी के समर्थन में उतर जाए। आतंकवादी बुरहान मामले में तथाकथित पत्रकार राजदीप सरदेसाई एवं कम्युनिस्ट कविता कृष्णन जैसे लोगों द्वारा जो स्टैंड लिया गया है, वो इस बात के लिए हमे सोचने पर मजबूर करता है कि लोकतंत्र के नाम विलासी हो चुके इन लोगों के अभिव्यक्ति की सीमा को भी तय किया जाय।
                                                                                                                                                                   लेखक के निजी विचार हैं