2014 के बाद से जब भी कोई चुनाव होता है और उसमें कांग्रेस को हार मिलती है तो राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े होने लगते हैं । राजनीतिक विश्लेषकों के अलावा कांग्रेस के नेता भी उनके नेतृत्व को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर तो नहीं, लेकिन संगठन की चूलें आदि कसने के नाम पर सवाल उठाने लगते हैं । इसमें कोई दो राय नहीं है कि राहुल गांधी में एक सौ तीस साल पुरानी पार्टी की अगुवाई को लेकर कोई स्पार्क नहीं दिखा है । ना ही किसी तरह की कोई ठोस रणनीति के दर्शन हुए हैं । हालिया विधानसभा चुनावों खासकर यूपी में कांग्रेस की हार के बाद एकबार फिर से कांग्रेस के नेता तरह तरह के सवाल खड़े करने लगे हैं । कोई शल्य चिकित्सा की बात कर रहा है, तो कोई संगठन मजबूत करने की बात कर रहा है ।
कांग्रेस के नेताओं को यह लगता है कि उनकी पार्टी अपने बूते पर कम विपक्षी दलों की गलतियों की वजह से सत्ता में आती रही है । चाहे वो इमरजेंसी के बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार की नाकामियां हो जिसकी वजह से उन्नीस सौ अस्सी में इंदिरा गांधी की वापसी हुई या फिर चौरासी में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर हो । या फिर 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद मिला जनादेश हो । इस लंबे कालखंड में सत्ता मिलते रहने से कांग्रेस के नेता आरामतलब हो गए हैं । उनके ज्यादातर नेता जमीन से भी कटने लगे और उनको लगता है राज्यसभा का रूट सबसे अच्छा है । चुनाव लड़ना नहीं है, लेकिन सत्ता सुख हासिल होता रहता है । संघर्ष से दूर होते जाने से पार्टी आम जनता से भी दूर होती चली गई । लोगों से उसका कनेक्ट लगभग खत्म हो गया ।
यह सही है कि पार्टी को सही तरीके से चलाने और उसको संसदीय प्रणाली में जीत दिलवाने की जिम्मेदारी नेतृत्व पर होती है, परंतु यह भी उतना ही सच है कि कोई भी राजनीतिक दल अपने मजबूत नेतृत्व के साथ-साथ समर्पित अन्य नेताओं के कंधों पर ही चल सकता है । अब कांग्रेस को देखें तो इस वक्त पार्टी को लेकर जो ज्यादा चिंतित नजर आ रहे हैं, उनमें से ज्यादातर राज्यसभा के सदस्य हैं । इसके अलावा कांग्रेस ने यूपी में जिनको जिम्मेदारी भी दी वो सारे के सारे राज्यसभा वाले नेता थे; चाहे वो गुलाम नबी आजाद हों, प्रमोद तिवारी हों, राज बब्बर हों या फिर संजय सिंह, पीएल पूनिया हों या फिर राजीव शुक्ला । जनता के बीच जाकर संघर्ष का उनका कोई हालिया इतिहास नहीं रहा है । हम अगर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को ही देखें, तो भारतीय जनता पार्टी ने वहां अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दर्जनों रैलियां की, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने करीब दो सौ रैलियां की । इसके अलावा करीब बीस केंद्रीय मंत्री उत्तर प्रदेश में पार्टी के पक्ष में रात-दिन एक किए हुए थे । एक केंद्रीय महासचिव को पार्टी ने महीने भर से ज्यादा के लिए लखनऊ में तैनात कर दिया था । अब इसकी तुलना में कांग्रेस के नेताओं को देखें । बड़ी बड़ी बातें करनेवाले, टीवी कैमरों के आगे चिंता जताने वाले किस कांग्रेस नेता ने उत्तर प्रदेश में प्रचार किया । सत्यव्रत चतुर्वेदी, मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह और गठबंधन होने के बाद तो गुलामनबी आजाद और राज बब्बर भी अपेक्षाकृत कम दिखाई देने लगे थे । कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी जैसे नेता यूपी चुनाव के दौरान कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे । हिंदी में एक पुरानी कहावत है कि अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ता है । कांग्रेस के साथ इन दिनों वही हो रहा है ।
आज के अखबारों में कमलनाथ का साक्षात्कार छपा है, जिसमें उन्होने कहा है कि राहुल गांधी को नेतृत्व संभाल लेना चाहिए । दरअसल कमलनाथ हर हार के बाद बाहर आते हैं और राहुल गांधी के बारे में अपनी अपेक्षा जाहिर कर नेपथ्य में चले जाते हैं । पिछले दिनों मुंबई लिटो फेस्ट में एक सत्र में कांग्रेस की पूर्व सांसद प्रिया दत्त से संवाद का अवसर मिला था । मैंने उनसे जब पूछा कि क्या कांग्रेस को नेतृत्व में बदलाव की जरूरत है, तो उन्होंने साफ जवाब तो नहीं दिया लेकिन इतना जरूर कहा कि कांग्रेस को गंभीर आत्ममंथन की आवश्यकता के साथ कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है । प्रिया दत्त ने बगैर कहे भी सबकुछ कह दिया था । दरअसल कांग्रेस के नेता अपनी कमजोरियों को ढांपने के लिए राहुल की कमजोरी को अपनी ढाल बना लेते हैं । दिग्विजय सिंह बहुधा ज्ञान देते रहते हैं, लेकिन गोवा कांग्रेस के नेता उनपर जो इल्जाम लगा रहे हैं, उसपर ध्यान देने की जरूरत है । गोवा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने वाली कांग्रेस समर्थन का पत्र टाइप नहीं करवा पाई। जबकि भारतीय जनता पार्टी ने उतने वक्त में ही समर्थन भी जुटा लिया और अपने रक्षा मंत्री का इस्तीफा दिलवाकर दावा भी पेश कर दिया। बावजूद इस भ्रम के दिग्विजय सिंह से किसी तरह की कोई पूछताछ की गई हो, लगता नहीं है ।
दरअसल कांग्रेस के नेताओं को यह लगता है कि उनकी पार्टी अपने बूते पर कम विपक्षी दलों की गलतियों की वजह से सत्ता में आती रही है । चाहे वो इमरजेंसी के बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार की नाकामियां हो जिसकी वजह से उन्नीस सौ अस्सी में इंदिरा गांधी की वापसी हुई या फिर चौरासी में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर हो । या फिर 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद मिला जनादेश हो । इसी तरह से 2004 में शाइनिंग इंडिया को लेकर भारतीय जनता पार्टी के आंकलन में हुई गलती से कांग्रेस को सत्ता मिली । अभी पंजाब भी इसका सर्वोत्तम उदाहरण है, जहां अकालियों की वजह से कांग्रेस को सत्ता मिली । इस लंबे कालखंड में सत्ता मिलते रहने से कांग्रेस के नेता आरामतलब हो गए हैं । उनके ज्यादातर नेता जमीन से भी कटने लगे और उनको लगता है राज्यसभा का रूट सबसे अच्छा है । चुनाव लड़ना नहीं है, लेकिन सत्ता सुख हासिल होता रहता है । संघर्ष से दूर होते जाने से पार्टी आम जनता से भी दूर होती चली गई । लोगों से उसका कनेक्ट लगभग खत्म हो गया । संसदीय प्रणाली में चुनावी जीत बहुत अहम होती है । 2009 से लेकर 2012 तक भारतीय जनता पार्टी के माहौल को भी याद करना चाहिए । कितनी निराशा थी, लेकिन उसी वक्त गुजरात से पार्टी को आशा की किरण दिखाई दी । नरेन्द्र मोदी ने अपने कुशल नेतृत्व से पार्टी को लगातार जीत दिलाई । अमित शाह जैसे कुशल संगठनकर्ता ने उस जीत को आगे बढ़ाया । अब अगर कांग्रेस को अपनी खोई जमीन हासिल करनी है तो उसको जमीन पर आना होगा । सोनिया और राहुल गांधी के बीच के ‘पार्टी का असली बॉस कौन’ के भ्रम को भी दूर करना होगा ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)