16 अगस्त की सुबह 10 बजे से ही कलकत्ता में जगह-जगह छुरे-बाजी, पथराव की घटनाएं हुई तथा जबरदस्ती दुकानें बंद करवाई गई। मुस्लिम लीग के समर्थकों ने हिंदुओं और सिखों की दुकानें लूटनी शुरू कर दी। उनका कत्लेआम हुआ। हत्यारों को पुलिस का संरक्षण मिला हुआ था। तब वहां पर जिन्ना के चेले सुहारावर्दी की सरकार थी। कहते हैं कि उन्होंने पुलिस महकमें को कह दिया था कि कत्लेआम होने देना। पुलिस में मुसलमान भरे हुए थे। एक ही दिन में जिन्ना के सीधी कार्रवाई के आह्वान ने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया। उस कत्लेआम के लिए जिन्ना ने कभी माफी नहीं मांगी। जाने किस आधार पर ऐसे आदमी को महान बनाकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्ववविद्यालय के छात्र संघ ने उसकी तस्वीर टांग रखी है।
मोहम्मद अली जिन्ना का अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी छात्र संघ के कक्ष में चित्र टंगा होना शर्मनाक ही माना जाएगा। जिस शख्स ने मुसलमानों का 16 अगस्त, 1946 को आह्वान किया कि वे सीधी कार्रवाई करें पाकिस्तान की मांग मनवाने के लिए, उसका चित्र एक प्रमुख केन्द्रीय यूनिवर्सिटी में होना अक्षम्य है। जिन्ना की बात है, तो शुरूआत उनके सीधी कार्रवाई के आह्वान से ही करते हैं।
उन्होंने इस तरह से एक बहुत बड़े कत्लेआम की नींव तैयार की थी। 16 अगस्त की सुबह 10 बजे से ही कलकत्ता में जगह-जगह छुरे-बाजी, पथराव की घटनाएं हुई तथा जबरदस्ती दुकानें बंद करवाई गई। मुस्लिम लीग के समर्थकों ने हिंदुओं और सिखों की दुकानें लूटनी शुरू कर दी। उनका कत्लेआम हुआ। हत्यारों को पुलिस का संरक्षण मिला हुआ था। तब वहां पर जिन्ना के चेले सुहारावर्दी की सरकार थी। कहते हैं कि उन्होंने पुलिस महकमें को कह दिया था कि कत्लेआम होने देना। पुलिस में मुसलमान भरे हुए थे। एक ही दिन में जिन्ना के सीधी कार्रवाई के आह्वान ने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया। उस कत्लेआम के लिए जिन्ना ने कभी माफी नहीं मांगी। जाने किस आधार पर ऐसे आदमी को महान बनाकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्ववविद्यालय के छात्र संघ ने उसकी तस्वीर टांगी है।
हिन्दुओं से बेहद नफरत करते थे जिन्ना
देश के विभाजन के दौरान तमाम जगह सांप्रदायिक हिंसा फैली, दंगे भड़के। पर जिन्ना ने कभी हिंसा को रोकने की कोशिश नहीं की। वे कभी दंगाग्रस्त क्षेत्र में नहीं गए। इसके विपरीत गांधी जी लगातार दंगे रुकवाने के लिए घूम रहे थे। जिन्ना की हिन्दुओं के प्रति नफरत को समझने के लिए 24 मार्च, 1940 को उनकी तकरीर को फिर पढ़ना होगा।
24 मार्च, 1940 को पाकिस्तान की स्थापना की बुनियाद रखी गई थी। उस दिन लाहौर की बादशाही मस्जिद के ठीक आगे बने मिन्टो पार्क (अब इकबाल पार्क) में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग करते हुए प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव मशहूर हुआ पाकिस्तान प्रस्ताव के नाम से। इसमें कहा गया था कि वे (मुस्लिम लीग) मुसलमानों के लिए पृथक राष्ट्र का ख्वाब देखती है। वह इसे पूरा करके ही रहेगी।
प्रस्ताव के पारित होने से पहले मोहम्मद अली जिन्ना ने अपनी दो घंटे लंबी चली बेहद आक्रमक तकरीर में कहा था- “हिन्दू–मुसलमान दो अलग मजहब हैं। दो अलग विचार हैं। दोनों की परम्पराएं और इतिहास अलग हैं। दोनों के नायक अलग हैं। इसलिए दोनों कतई साथ नहीं रह सकते।” जिन्ना ने अपनी तकरीर के दौरान लाला लाजपत राय से लेकर चितरंजन दास को कोसा। उनके भाषण के दौरान वहां पर मौजूद एक प्रतिनिधि मलिक बरकत अली ने ‘लाला लाजपत राय को राष्ट्रवादी हिन्दू कहा।‘ जवाब में जिन्ना ने कहा, ‘कोई हिन्दू नेता राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। वह पहले और अंत में हिन्दू ही है।’ आप समझ सकते हैं कि वे हिन्दुओं याकि भारतीयों के प्रति कितनी घृणा का भाव रखते थे।
उर्दू बनाम बांग्ला
दरअसल जिन्ना पाकिस्तान के संस्थापक होने के साथ-साथ उसे दो भागों में बांटने वाले भी साबित हुए। मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के बाद अपनी पहली ढाका यात्रा के समय एकतरफा घोषणा कर दी थी कि नए देश की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी। जिन्ना 19 मार्च, 1948 को ढाका पहुंचे। उनका वहां पर गर्मजोशी के साथ स्वागत हुआ। पूर्वी पाकिस्तान के अवाम को उम्मीद थी कि वे पूर्वी पाकिस्तान के विकास को लेकर कुछ अहम घोषणाएं करेंगे।
जिन्ना ने 21 मार्च को ढाका के खचाखच भरे रेसकोर्स मैदान में एक सार्वजिनक सभा को संबोधित किया। वहां पर पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी। उन्होंने अपने चिर-परिचित आदेशात्मक स्वर में कहा कि ‘सिर्फ उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा रहेगी। जो इससे अलग तरीके से सोचते हैं, वे मुसलमानों के लिए बने मुल्क के शत्रु हैं।’ जिन्ना की घोषणा से बांग्ला भाषी जनता में निराशा और गुस्से की लहर दौड़ गई। वे ठगा-सा महसूस करने लगे। वे असहाय थे। जाहिर तौर पर उन्होंने पृथक मुस्लिम राष्ट्र का हिस्सा बनने का तो फैसला किया था, पर वे अपनी बांग्ला संस्कृति और भाषा से दूर जाने के लिए भी किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे।
जिन्ना ने कराची वापस जाने से पहले एक बार 24 मार्च, 1948 को भी ढाका यूनिवर्सिटी कैंपस में आयोजित एक समारोह में उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाए जाने के संबंध में अपनी बात दोहराई। जिन्ना की घोषणाओं का तीखा विरोध उनकी मौजदूगी में हुआ। वे जब समारोह स्थल पर ही थे, तब ही विरोध और नारेबाजी चालू हो गए। उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी इस तरह की कल्पना नहीं की होगी। और ढाका से जाते-जाते उन्होंने अपने एक रेडियो इंटरव्यू में 28 मार्च, 1948 को फिर कहा कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा तो उर्दू ही होगी और रहेगी। इस मसले पर किसी भी तरह की बहस या संवाद की कोई जगह नहीं है।
और जो नफरत का बीज जिन्ना ने बोया था उसका घातक परिणाम 21 फरवरी, 1952 को सामने आया। उस दिन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांगलादेश) में बांग्ला भाषियों पर उर्दू थोपने के विरोध में आंदोलनरत छात्रों पर अकारण की गई पाकिस्तानी पुलिस की अंधाधुंध गोलीबारी में दर्जनों छात्रों की छात्रों की जान चली गई थी। वह घटना ढाका यूनिवर्सिटी के कैंपस में हुई थी।
दरअसल बांग्ला बनाम उर्दू के बीच के संघर्ष का चरम था 21 फरवरी, 1952 का मनहूस दिन। हर रोज की तरह उस दिन भी ढाका यूनिवर्सिटी कैंपस में बड़ी संख्या में छात्र प्रदर्शन करने के लिए एकत्र हुए थे। उसी दौरान न जाने क्य़ों, हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों ने उन निहत्थे छात्रों पर गोलियां बरसानी चालू कर दीं, जिसमें दर्जनों छात्रों की मौत हो गई। इस नृशंस सामूहिक हत्याकांड से दुनिया सन्न रह गई, पर पाकिस्तानी सरकार ने किसी तरह का अपराधबोध का प्रदर्शन नहीं किया।
अपनी मातृभाषा को लेकर इस तरह के प्रेम और जज्बे की दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है। बांग्लाभाषा के चाहने वालों ने मारे गए छात्रों की स्मृति में घटनास्थल पर स्मारक बनाया तो उसे ध्वस्त कर दिया गया। इस घटना के बाद पाकिस्तान के शासक पूर्वी पाकिस्तान से हर स्तर पर भेदभाव करने लगे। उसकी जब प्रतिक्रिया हुई तो जिन्ना और मुस्लिम लीग की टू नेशन थ्योरी धूल में मिल गई।
बहरहाल जाहिर है, जिन्ना हिन्दू समुदाय, हिन्दू संस्कृति-भाषा आदि से बेहद नफरत करते थे। ऐसे आदमी की तस्वीर देश के एक विश्वविद्यालय में टाँगे रहना, शर्मनाक है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को तस्वीर हटाकर तत्काल ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। देश से माफ़ी भी मांगनी चाहिए।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)