अच्छा तो यह होता कि श्रीरामजन्मभूमि मंदिर के लिए भूमि के समतलीकरण के दौरान प्राप्त सामग्रियों यथा- शिवलिंग, शंख, चक्र, स्तंभ, कमल, देव-मूर्त्तियों आदि को देखकर छद्म धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों और राजनेताओं के गिरोह स्वयं सामने आकर अपने मिथ्या निष्कर्षों के लिए देश के बहुसंख्यक समाज से क्षमा माँगते, परंतु यदि वे ऐसा न कर भी, केवल खुले हृदय से सत्य भर स्वीकार कर लें तो भी इस देश का उदार-सहिष्णु समाज कदाचित उन्हें उनके अपराध से दोषमुक्त कर दे।
इतिहास घटित होता है, निर्देशित नहीं। जबकि मुगलों, अंग्रेजों और स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी हमने घटित इतिहास की बजाय निर्देशित इतिहास को ही पाठ्य-पुस्तकों, बौद्धिक विमर्शों में स्थान दिया। पराधीनता व्यक्ति की हो या राष्ट्र की हमेशा दुःखदायी और कष्टकारी होती है। पराधीन व्यक्ति और राष्ट्र अपना स्वत्व, गौरव, स्वाभिमान सब भूल जाता है या भूल जाने पर बाध्य कर दिया जाता है।
हम भारतीयों के साथ भी यही हुआ। लंबी गुलामी के पश्चात हम शरीर से तो स्वतंत्र हुए, पर मन और आत्मा से गुलाम ही बने रहे। गुलामी की ग्रन्थियाँ हममें गहरे पैठी रहीं और इसीलिए हमने पराए दृष्टिकोण से अपने इतिहास का आकलन-विश्लेषण किया। उन्होंने जो-जो बताया, जैसा-जैसा पढ़ाया हमने बहुधा वही सच मान लिया।
उन्होंने हमें बताया कि तुम्हारे लोक-नायक राम और कृष्ण तो मिथक व गल्प हैं, तुम्हारे महाकाव्य तो कवियों की कल्पनाओं की उड़ान मात्र हैं और हमने मान लिया।
परकीय सत्ताओं और उनके चाटुकारों ने इस राष्ट्र की चेतना को सदा-सर्वदा के लिए गुलाम बनाए रखने की दृष्टि से इतिहास और संस्कृति की गौरव-गाथा को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया और धन-लोभी, पद-प्रतिष्ठा के आकांक्षी इतिहासकारों-शिक्षाविदों-साहित्यकारों ने उनकी धुनों पर नाचना और उनके सुर में सुर मिलाना स्वीकार कर लिया। कोढ़ में खाज का काम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेतागण और दल करते रहे।
बार-बार प्रमाण प्रस्तुत करने के बावजूद ऐसे लोगों ने राममंदिर के अस्तित्व को अस्वीकार करने में कोई कोर कसर बाक़ी नहीं रखी। जो अयोध्या राममय है, जिसके पग-पग पर श्रीराम के चरणों की मधुर चाप सुनाई पड़ती है, वहाँ वे बाबर की निशानदेही तलाशते रहे। उस बाबर की, जिसका अयोध्या से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा।
सनातनी हिंदुओं ने अपनी आस्था के लिए जाने किस-किससे गुहार लगाई, किस-किसके दरवाज़े खटखटाए, जाने कितनी लंबी लड़ाई लड़ी, कितने निर्दोष प्राणों ने बलिदान दिया? पर इस देश के तमाम सत्ताधीशों ने इन आस्थावादी स्वरों की जान-बूझकर उपेक्षा व अनसुनी की।
अपने आराध्य राम के लिए असंख्य रामभक्त कारसेवकों ने अपने सीने पर गोलियाँ तक खाईं। रामभक्तों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक ने श्रीरामजन्मभूमि के पक्ष में फैसला सुनाया। इसके बावजूद सूडो सेकुलरिज्म के ठेकेदारों और तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों ने मनमाना विमर्श चलाया, मनमाने निष्कर्ष सुनाए।
उन्होंने नासा द्वारा रामसेतु के अस्तित्व स्वीकारने को चलताऊ बताकर ख़ारिज किया, पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन में प्राप्त अवशेषो और अनेकानेक पुष्ट प्रमाणों को प्रायोजित बताया।
और आज जब फिर अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि से ऐतिहासिक-पुरातात्विक महत्त्व के अनेकानेक अवशेष प्राप्त हो रहे हैं तो ऐसे कथित इतिहासकारों-पुरातत्ववेत्ताओं-राजनीतिज्ञों-सूडो सेकुलरों को साँप सूँघ गया है। वे आगे आकर आज भी सत्य की सार्वजनिक उद्घोषणा में संकोच कर रहे हैं।
अच्छा तो यह होता कि श्रीरामजन्मभूमि मंदिर के लिए भूमि के समतलीकरण के दौरान प्राप्त सामग्रियों यथा- शिवलिंग, शंख, चक्र, स्तंभ, कमल, देव-मूर्त्तियों आदि को देखकर वे स्वयं सामने आकर अपने मिथ्या निष्कर्षों के लिए देश के बहुसंख्यक समाज से क्षमा माँगते, परंतु यदि वे ऐसा न कर भी, केवल खुले हृदय से सत्य भर स्वीकार कर लें तो भी इस देश का उदार-सहिष्णु समाज कदाचित उन्हें उनके अपराध से दोषमुक्त कर दे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)